
भारत के सर्वाधिक करिश्माई नेताओं में शुमार अटल बिहारी वाजपेयी का देश के राजनीतिक पटल पर एक ऐसे विशाल व्यक्तित्व वाले राजनेता के रूप में सम्मान किया जाता है, जिनकी व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता है और जिन्होंने तमाम अवरोधों को तोड़ते हुए 90 के दशक में राजनीति के मुख्य मंच पर भाजपा को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसे वाजपेयी के व्यक्तित्व का ही आकर्षण कहा जाएगा कि नए सहयोगी दल उस भाजपा के साथ जुड़ते गए, जिसे अपने दक्षिणपंथी झुकाव के कारण उस जमाने, खासतौर से बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद राजनीतिक रूप से ‘अछूत’ माना जाता था।
अपनी वाणी के ओज और ठोस फैसले लेने के लिए विख्यात वाजपेयी को भारत-पाकिस्तान मतभेदों को दूर करने की दिशा में ठोस कदम उठाने का श्रेय दिया जाता है। अपने इन ठोस कदमों के साथ वह भाजपा के ‘राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेंडे’ से परे जाकर एक व्यापक फलक के राजनेता के रूप में जाने जाते हैं।
कांग्रेस के बाहर देश के सर्वाधिक लंबे समय तक प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहने वाले वाजपेयी को अक्सर भाजपा का उदारवादी चेहरा कहा जाता है।
उनके आलोचक हालांकि उन्हें आरएसएस का ऐसा ‘मुखौटा’ बताते रहे हैं, जिनकी सौम्य मुस्कान उनकी पार्टी के हिन्दुवादी समूहों के साथ संबंधों को छुपाए रखती है।
1999 की वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा की उनकी ही पार्टी के ‘कट्टरवादी नेताओं’ ने आलोचना की थी, लेकिन वह बस पर सवार होकर किसी विजेता की तरह लाहौर पहुंचे।
वाजपेयी की इस राजनयिक सफलता को भारत-पाक संबंधों में एक नए युग की शुरुआत की संज्ञा देकर सराहा गया, लेकिन यह दूसरी बात है कि पाकिस्तानी सेना ने गुपचुप अभियान के जरिये अपने सैनिकों की करगिल में घुसपैठ करायी और इसके बाद दोनों पक्षों के बीच छिड़े संघर्ष में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी।
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कार सेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद को गिराए जाने की घटना वाजपेयी के लिए इस बात की अग्नि परीक्षा थी कि धर्मनिरपेक्षता के पैमाने पर वह कहां खड़े हैं। उस समय वाजपेयी लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। वाजपेयी के विश्वासपात्र सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी और अधिकतर भाजपा नेताओं ने विध्वंस का समर्थन किया, लेकिन वाजपेयी ने स्पष्ट शब्दों में इसकी निंदा की।
उनकी निजी निष्ठा पर कभी गंभीर सवाल नहीं किए गए, लेकिन हथियार रिश्वत कांडों ने उनकी सरकार में भ्रष्टाचार को उजागर किया और ऐसा वक्त भी आया जब उनके फैसलों पर शकांए जाहिर की गईं।
वाजपेयी एक जाने माने कवि भी हैं और उनके पार्टी सहयोगी अक्सर उनकी रचनाओं को उद्धृत करते हैं।
25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में उनका जन्म हुआ। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी और मां कृष्णा देवी हैं। वाजपेयी का संसदीय अनुभव पांच दशकों से भी अधिक का विस्तार लिए हुए है। वह पहली बार 1957 में संसद सदस्य चुने गए थे।
ब्रिटिश औपनिवेशक शासन का विरोध करने के लिए किशोरावस्था में वाजपेयी कुछ समय के लिए जेल गए, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने कोई मुख्य भूमिका अदा नहीं की। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और जन संघ का साथ पकड़ने से पहले वाजपेयी कुछ समय तक साम्यवाद के संपर्क में भी आए। बाद में दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़ाव के बाद जनसंघ और तत्पश्चात भाजपा के साथ उनके घनिष्ठ संबंधों की शुरुआत हुई।
1950 के दशक की शुरुआत में आरएसएस की पत्रिका को चलाने के लिए वाजपेयी ने कानून की पढ़ाई बीच में छोड़ दी। बाद में उन्होंने आरएसएस में अपनी राजनीतिक जड़ें जमायीं और भाजपा की उदारवादी आवाज बनकर उभरे।
राजनीति में वाजपेयी की शुरुआत 1942-45 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में हुई थी। उन्होंने कम्युनिस्ट के रूप में शुरुआत की, लेकिन हिंदुत्व का झंडा बुलंद करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता के लिए साम्यवाद को छोड़ दिया। संघ को भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी माना जाता है। इसी दौरान वाजपेयी भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्याम प्रसाद मुखर्जी के करीबी अनुयायी और सहयोगी बन गए।
जब मुखर्जी ने 1953 में कश्मीर राज्य में प्रवेश के लिए परमिट लेने की व्यवस्था के खिलाफ आमरण अनशन किया तो वाजपेयी उनके साथ थे। मुखर्जी ने परमिट व्यवस्था को कश्मीर की यात्रा करने वाले भारतीय नागरिकों के साथ ‘तुच्छ’ व्यवहार करार दिया था। साथ ही उन्होंने मुस्लिम बहुल आबादी होने के कारण कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने के खिलाफ भी आमरण अनशन किया था।
मुखर्जी के अनशन और विरोध की परिणति परमिट व्यवस्था समाप्त करने और कश्मीर के भारतीय संघ में विलय की प्रक्रिया तेज किए जाने के रूप में हुई, लेकिन कई सप्ताह की जेलबंदी, बीमारी और कमजोरी के चलते मुखर्जी का निधन हो गया। इन सारी घटनाओं ने युवा वाजपेयी के मन पर गहरी छाप छोड़ी।
मुखर्जी की विरासत को आगे बढ़ाते हुए वाजपेयी ने 1957 में अपना पहला चुनाव लड़ा और जीता। भारतीय जनसंघ के नेता के रूप में उन्होंने इसके राजनीतिक दायरे, संगठन और एजेंडे का विस्तार किया। अपनी युवावस्था के बावजूद वाजपेयी जल्द ही विपक्ष में एक सम्मानित हस्ती बन गए जिनकी तर्कशक्ति और बुद्धिमत्ता के उनके विरोधी भी कायल होने लगे। उनकी व्यापक अपील ने उभरते राष्ट्रवादी सांस्कृतिक आंदोलन को सम्मान, पहचान और स्वीकार्यता दिलायी।
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