प्रतीकात्मक फोटो.
नई दिल्ली:
पिछले एक हफ़्ते से जिओ ग्रुप के लगभग सभी चैनल पाकिस्तान के बड़े इलाक़े में ऑफ़ एयर हैं. इसमें जिओ न्यूज़ भी शामिल है. इसकी वजह कोई तकनीकि गड़बड़ी नहीं है. बल्कि केबल ऑपरेटरों ने अपने स्तर पर जिओ न्यूज़ और ग्रुप के दूसरे चैनलों को ब्लॉक कर दिया है. ये सब कई हफ़्ते से चल रहा है लेकिन पिछले एक हफ़्ते में इस समस्या ज़्यादा गंभीर हो गई है. जबकि पाकिस्तान की सरकार या पाकिस्तानी चैनलों को रेगुलेट करने वाली पाकिस्तान इलेक्ट्रानिक मीडिया रेगुलेटरी ऑथोरिटी (PEMRA) की तरफ़ से ऐसा कोई निर्देश जारी नहीं किया गया है. जिओ तमाम केबल ऑपरेटरों को तयशुदा शुल्क भी अदा कर रहा है. फिर सवाल है कि जिओ का गला कौन दबा रहा है?
पाकिस्तान में बैठे जानकार बताते हैं कि ये पाकिस्तान की सेना है जो जंग/जिओ ग्रुप से ख़फ़ा है. इसलिए अघोषित तौर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उसने जिओ का सिग्नल दर्शकों तक पहुँचने से रोक दिया है. हालाँकि कि खुद जिओ ने अपनी तरफ़ से ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया है. जिओ ग्रुप के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव मीर इब्राहिम रहमान ने न्यूयॉर्क टाइम्स से बातचीत में कहा कि हम 80 फ़ीसदी इलाक़े में ऑफ़ एयर हैं. लेकिन किसी पर सीधी अंगूली नहीं उठायी है. इसके पीछे की वजह को समझा जा सकता है.
जानकार बताते हैं कि जंग/जिओ ग्रुप और सेना के बीच समस्या लंबे समय से चली आ रही है. ये समस्या जिओ टीवी या जिओ न्यूज़ से उतनी नहीं है जितनी जिओ ग्रुप के अख़बारों से है. डेली जंग और द न्यूज़ में छपने वाली कई ख़बरों में इस्तेमाल शब्द और दृष्टिकोण पाक सेना को नहीं सुहाते. जैसे, फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स ने जब पाकिस्तान को टेरर फ़ंडिंग वाले देशों की सूची में दुबारा शुमार किया तो द न्यूज़ ने जो हेडलाइन दिया इसका तर्जुमा था ‘अब कार्रवाई करो या अंजाम भुगतो’. आतंकवाद के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई न लड़ने का दोष पाकिस्तान की ख़ुदमुख़्तार सेना पर जाता है इसलिए ऐसी हेडलाइन से सेना का बिदकना लाज़िमी है.
जिओ/जंग ग्रुप के अख़बारों के ‘दुस्साहस’ के कई और उदाहरण हैं. ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के हाथों जान का ख़तरा झेल चुके उमर चीमा ने जिस तरह से संविधान के 18वें संशोधन की मुख़ालफ़त करने के पीछा की वजहों का विश्लेषण करते हुए पाक सेना को आड़े हाथों लेते हुआ रिपोर्ट किया उससे भी सेना के पेट में भयंकर दर्द हुआ है. 18वां संशोधन दरअसल पाकिस्तान के प्रांतों और चुनी हुई सरकारों को अधिक ताक़त देता है और मार्शल लॉ जैसी मंशाओं पर लगाम लगाता है. सेना 18वें संशोधन का विरोध कर रही है लेकिन राज्यों के पास अधिक स्वायत्तता के लिए उनके पास पर्याप्त संसाधनों के नहीं होने जैसी वजहों को गिना कर. लेकिन चीमा ने आर्मी के ‘कैमोफ्लॉज’ को उतारने का काम किया है.
अब सवाल है कि अख़बारों के ‘दुस्साहस’ की सज़ा जिओ न्यूज़ या इसके दूसरे चैनलों को क्यों? क्योंकि टीवी की पहुँच रोकने से ग्रुप को ज़्यादा वित्तीय नुक्सान पहुँचाया जा सकता है. इसलिए जिओ न्यूज़ के साथ साथ इसके इंटरटेनमेंट और स्पोर्ट्स चैनलों के प्रसारण में भी अवरोध पैदा किया गया है. और किसी ‘स्वतंत्र’ मीडिया संस्थान को मारना हो तो उसके आर्थिक हितों पर चोट सबसे मारक साबित हो सकता है ये एक सार्वभौमिक सत्य है.
कोशिश तो अख़बारों की प्रतियाँ पाठकों तक न पहुँचने देने की है. तभी जिओ ने अपने ट्विटर हैंडल पर जिस ट्वीट को टाँक (pinned) कर छोड़ा है उसमें चैनल न दिखने या इसका नंबर चेंज किए जाने के साथ साथ डेली जंग और द न्यूज़ अख़बारों की प्रतियाँ न पहुँचने पर भी शिकायत करने के लिए टेलीफ़ोन नंबर जारी किया है.
जिओ/जंग ग्रुप में समय समय पर पाक सेना की ग़लतियों के ख़िलाफ़ काफ़ी मुखर रहा है. इसने अपने ‘सैन्य प्रतिष्ठान के ख़िलाफ़ मुखर पत्रकारों’ को सेना की मंशा के हिसाब से बाँधने की कोशिश नहीं की है. लिहाज़ा ये ग्रुप हमेशा ही सेना के निशाने पर रहा है. यहाँ तक कि जब 2007 में पाकिस्तानी सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ़ ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की तख़्ता पलट कर देश में आपातकाल लगा दिया तो जिओ न्यूज़ को प्रतिबंध का सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा.
असल में देश में ‘लोकतंत्र के हिमायती’ जंग/जिओ ग्रुप को नवाज़ शरीफ़ और उनकी पार्टी पीएमएल-एन का समर्थक माना जाता है. जानकार बताते हैं कि जिओ न्यूज़ के अलावा ‘दुनिया टीवी’ जैसे एकाध और चैनलों को छोड़ कर बाक़ी चैनल ‘इमरान खान के मुरीद’ के तौर पर काम कर रहे हैं जिससे सेना को ‘ज़्यादा शिकायत’ नहीं है. दूसरी तरफ़ जंग ग्रुप और जिओ न्यूज़ को पाकिस्तान के संविधान में दिए मूलभूत अधिकारों का हवाला देते हुए अख़बारों में विज्ञापन और ट्वीट के जरिए अपनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है. आम चुनाव नज़दीक है लिहाजा दाँव भी बड़ा है.
पाकिस्तान में बैठे जानकार बताते हैं कि ये पाकिस्तान की सेना है जो जंग/जिओ ग्रुप से ख़फ़ा है. इसलिए अघोषित तौर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उसने जिओ का सिग्नल दर्शकों तक पहुँचने से रोक दिया है. हालाँकि कि खुद जिओ ने अपनी तरफ़ से ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया है. जिओ ग्रुप के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव मीर इब्राहिम रहमान ने न्यूयॉर्क टाइम्स से बातचीत में कहा कि हम 80 फ़ीसदी इलाक़े में ऑफ़ एयर हैं. लेकिन किसी पर सीधी अंगूली नहीं उठायी है. इसके पीछे की वजह को समझा जा सकता है.
जानकार बताते हैं कि जंग/जिओ ग्रुप और सेना के बीच समस्या लंबे समय से चली आ रही है. ये समस्या जिओ टीवी या जिओ न्यूज़ से उतनी नहीं है जितनी जिओ ग्रुप के अख़बारों से है. डेली जंग और द न्यूज़ में छपने वाली कई ख़बरों में इस्तेमाल शब्द और दृष्टिकोण पाक सेना को नहीं सुहाते. जैसे, फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स ने जब पाकिस्तान को टेरर फ़ंडिंग वाले देशों की सूची में दुबारा शुमार किया तो द न्यूज़ ने जो हेडलाइन दिया इसका तर्जुमा था ‘अब कार्रवाई करो या अंजाम भुगतो’. आतंकवाद के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई न लड़ने का दोष पाकिस्तान की ख़ुदमुख़्तार सेना पर जाता है इसलिए ऐसी हेडलाइन से सेना का बिदकना लाज़िमी है.
जिओ/जंग ग्रुप के अख़बारों के ‘दुस्साहस’ के कई और उदाहरण हैं. ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के हाथों जान का ख़तरा झेल चुके उमर चीमा ने जिस तरह से संविधान के 18वें संशोधन की मुख़ालफ़त करने के पीछा की वजहों का विश्लेषण करते हुए पाक सेना को आड़े हाथों लेते हुआ रिपोर्ट किया उससे भी सेना के पेट में भयंकर दर्द हुआ है. 18वां संशोधन दरअसल पाकिस्तान के प्रांतों और चुनी हुई सरकारों को अधिक ताक़त देता है और मार्शल लॉ जैसी मंशाओं पर लगाम लगाता है. सेना 18वें संशोधन का विरोध कर रही है लेकिन राज्यों के पास अधिक स्वायत्तता के लिए उनके पास पर्याप्त संसाधनों के नहीं होने जैसी वजहों को गिना कर. लेकिन चीमा ने आर्मी के ‘कैमोफ्लॉज’ को उतारने का काम किया है.
अब सवाल है कि अख़बारों के ‘दुस्साहस’ की सज़ा जिओ न्यूज़ या इसके दूसरे चैनलों को क्यों? क्योंकि टीवी की पहुँच रोकने से ग्रुप को ज़्यादा वित्तीय नुक्सान पहुँचाया जा सकता है. इसलिए जिओ न्यूज़ के साथ साथ इसके इंटरटेनमेंट और स्पोर्ट्स चैनलों के प्रसारण में भी अवरोध पैदा किया गया है. और किसी ‘स्वतंत्र’ मीडिया संस्थान को मारना हो तो उसके आर्थिक हितों पर चोट सबसे मारक साबित हो सकता है ये एक सार्वभौमिक सत्य है.
कोशिश तो अख़बारों की प्रतियाँ पाठकों तक न पहुँचने देने की है. तभी जिओ ने अपने ट्विटर हैंडल पर जिस ट्वीट को टाँक (pinned) कर छोड़ा है उसमें चैनल न दिखने या इसका नंबर चेंज किए जाने के साथ साथ डेली जंग और द न्यूज़ अख़बारों की प्रतियाँ न पहुँचने पर भी शिकायत करने के लिए टेलीफ़ोन नंबर जारी किया है.
जिओ/जंग ग्रुप में समय समय पर पाक सेना की ग़लतियों के ख़िलाफ़ काफ़ी मुखर रहा है. इसने अपने ‘सैन्य प्रतिष्ठान के ख़िलाफ़ मुखर पत्रकारों’ को सेना की मंशा के हिसाब से बाँधने की कोशिश नहीं की है. लिहाज़ा ये ग्रुप हमेशा ही सेना के निशाने पर रहा है. यहाँ तक कि जब 2007 में पाकिस्तानी सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ़ ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की तख़्ता पलट कर देश में आपातकाल लगा दिया तो जिओ न्यूज़ को प्रतिबंध का सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा.
असल में देश में ‘लोकतंत्र के हिमायती’ जंग/जिओ ग्रुप को नवाज़ शरीफ़ और उनकी पार्टी पीएमएल-एन का समर्थक माना जाता है. जानकार बताते हैं कि जिओ न्यूज़ के अलावा ‘दुनिया टीवी’ जैसे एकाध और चैनलों को छोड़ कर बाक़ी चैनल ‘इमरान खान के मुरीद’ के तौर पर काम कर रहे हैं जिससे सेना को ‘ज़्यादा शिकायत’ नहीं है. दूसरी तरफ़ जंग ग्रुप और जिओ न्यूज़ को पाकिस्तान के संविधान में दिए मूलभूत अधिकारों का हवाला देते हुए अख़बारों में विज्ञापन और ट्वीट के जरिए अपनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है. आम चुनाव नज़दीक है लिहाजा दाँव भी बड़ा है.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं