नई दिल्ली:
बीबीसी ने खबर दी कि मुल्ला उमर मारा जा चुका है तो ये तमाम मीडिया में सुर्खियां बनी। अफगान सरकार के सूत्रों के हवाले से ये भी लिखा गया कि उसकी मौत दो-तीन साल पहले ही हो चुकी है। इससे आगे पीछे की कोई जानकारी यह कहते हुए नहीं दी गई कि सरकारी सूत्र ने इससे अधिक कोई ब्यौरा नहीं दिया है।
इस खबर के थोड़ी देर बाद अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के उप प्रवक्ता सैय्यद जफर हाशमी ने ट्वीट के जरिए मीडिया को प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए बुलाया। फिर अफगान सरकार की ओर से यह बयान आया कि मीडिया में मुल्ला उमर के मारे जाने की खबर देखने के बाद वह इस बात की जांच कर रही है कि क्या मुल्ला उमर की सचमुच में मौत हो चुकी है। फिर अफगानी खुफिया एजेंसी के हवाले से मौत की खबर को सही भी बता दिया गया। अब सवाल यह उठता है कि यदि यह खबर अफगानिस्तान सरकार के 'सूत्र' के हवाले से आई, तो सरकार ने इसके पक्ष में सबूत क्यों नहीं पेश किए। और यह भी कि यदि बीबीसी ने इसे ब्रेकिंग न्यूज की तरह चलाया तो वह कुछ और ब्यौरा क्यों नहीं दे पाया?
ऐसा नहीं है कि मुल्ला उमर के मौत की खबर पहली बार आई हो। पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है, लेकिन कभी जांच नहीं हुई। तालिबान अपनी तरह से इसे नकारता रहा है। यहां तक कि तालिबान ने हाल ही में ईद के मौके पर भी मुल्ला उमर के नाम से बधाई संदेश जारी किया था। इस बार तो यह खबर लिखे जाने तक तालिबान ने अपनी तरफ से मुल्ला उमर की मौत की खबर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
मुल्ला उमर के जिंदा रहने के जितने दावे हैं, उतने ही इशारे उसके जीवित नहीं होने के भी हैं। पूर्व अफगान तालिबान के एक मंत्री ने पाकिस्तान के एक अखबार को बताया था कि मुल्ला उमर की 2013 में टीबी से मौत हो चुकी है। यह भी कहा गया कि उसे अफगानिस्तान की जमीन पर ही दफनाया गया उन्होंने और उनके बेटे ने उसके शव की पहचान भी की। इससे अलग, तालिबान से टूटकर अलग हुए एक ग्रुप अफगानिस्तान इस्लामिक मूवमेंट फिदायीन महज के प्रवक्ता कारी हमजा के अनुसार मुल्ला उमर जुलाई 2013 में ही मुल्ला अख्तर मुहम्मद मंसूर और गुल आगा की गोलियों का शिकार हो गया था। हमजा ने यह भी दावा किया कि उनके पास इस बात के सबूत हैं, लेकिन अफगान सरकार या पश्चिमी मीडिया ने उसे महत्व नहीं दिया।
मुल्ला उमर कहां है इस बात को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। अमेरिकी सहित कई अन्य खुफिया एजेंसियां मानती हैं कि वो पाक अफगान सीमा के आसपास कहीं छिपा है जबकि कुछ का मानना है कि ओसामा बिन लादेन की तरह वह भी पाकिस्तान में शरण लिए हुए है। मुल्ला बरादर की पाकिस्तान में गिरफ्तारी के बाद इस अंदेशे को और हवा मिली कि वह क्वेटा या कराची के पास सुरक्षित जगह पर है, लेकिन उसके ठिकाने को लेकर भरोसे के साथ कभी कुछ कहा नहीं गया। वह भी तब जब उमर के सिर पर 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर का इनाम भी अमेरिका ने घोषित किया हुआ है।
इस बार एक बड़ी दिलचस्प बात मुल्ला उमर के मारे जाने की खबर की टाइमिंग को लेकर भी है। कहा जा रहा है कि तालिबान में नए मुखिया के चुनाव को लेकर बुधवार को ही एक बैठक हुई है। इसमें मुल्ला उमर की ओर से ही नियुक्त दो सहायकों में से एक मुल्ला बरादर को मुखिया बनाए जाने को लेकर चर्चा हुई। बरादर को पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था और बाद में उसे कई अन्य तालिबानी कैदियों के साथ इस दलील के साथ रिहा कर दिया गया था कि इससे तालिबान और अफगान सरकार के बीच शांति वार्ता शुरू करने में मदद मिलेगी। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि मुल्ला उमर जिंदा है तो नए मुखिया के चुनाव का सवाल क्यों। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि इस 'खबर' के जरिए तालिबान पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है ताकि उसके 'सौदा करने की ताकत' को कम किया जा सके?
इस सप्ताह के अंत में अफगान हाई पीस काउंसिल और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच दूसरे दौर की शांति वार्ता होनी है जो पाकिस्तान की मदद से हो रही है। इस बातचीत का मकसद अफगानिस्तान में चौदह साल से चल रही लड़ाई को खत्म करने के लिए रास्ता तलाशना है। दूसरे दौर की बातचीत की तारीख और जगह को लेकर थोड़ा सस्पेंस है लेकिन इसका होना तय है।
कुछ सूत्र बताते हैं कि दूसरे दौर की बातचीत 30-31 जुलाई को पाकिस्तान में ही होगी और वह भी हिल स्टेशन मरी में जहां पहले दौर की शांति वार्ता हुई थी। इसमें यह तय हुआ था कि फिर मिलेंगे। कुछ ऐसी भी रिपोर्ट आ रही थी कि दूसरे दौर की वार्ता चीन के उत्तरी पश्चिमी शहर उरुम्की में होगी, हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हो पाई। इस खबर को इसलिए भी हवा मिली, क्योंकि पहले दौर की बातचीत में चीन और अमेरिका के पर्यवेक्षक भी शामिल हुए थे। यह भी जानकारी आई कि तालिबान दोहा में बातचीत चाहता है।
सात जुलाई को पहले दौर की बातचीत की जगह को गुप्त रखा गया था, लेकिन बाद में पता चला कि यह इस्लामाबाद के नजदीक के हिल स्टेशन मरी में ही हुई थी। इस बातचीत में मुख्य तौर पर तालिबान ने अपनी कई मांगों पर जो दिया। इसमें यूएन में तालिबान से प्रतिबंध हटाना ताकि इसके सदस्य अंतरराष्ट्रीय यात्राएं बिना किसी रुकावट के कर सकें, तालिबान को अपना एक कार्यालय खोलने की अनुमति देना, ताकि वह खुद को एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर खुद को स्थापित कर सके। अफगान सरकार चाहती है कि पहले तालिबान पूरी तरह से युद्धविराम को राजी हो।
बातचीत की औपचारिक मेज तक पहुंचने के पहले अफगान और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच कई अनौपचारिक दौर की बातचीत हुई। ये अलग बात है कि सवाल इस पर भी उठते रहे हैं कि अगर तालिबान के साथ शांति वार्ता किसी नतीजे पर पहुंच ही गई तो क्या अफ़ग़ानिस्त में सक्रिए आतंकवादियों के तमाम धड़े इसे मानेंगे। लेकिन मुल्ला उमर की मौत पर सरकारी सबूत पेश किए जाने तक और तालिबान के इसे मान लिए जाने तक ये सवाल बना रहेगा कि आखिर अभी इस खबर को 'चलाने' के पीछे कहीं कोई अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तो नहीं?
इस खबर के थोड़ी देर बाद अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के उप प्रवक्ता सैय्यद जफर हाशमी ने ट्वीट के जरिए मीडिया को प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए बुलाया। फिर अफगान सरकार की ओर से यह बयान आया कि मीडिया में मुल्ला उमर के मारे जाने की खबर देखने के बाद वह इस बात की जांच कर रही है कि क्या मुल्ला उमर की सचमुच में मौत हो चुकी है। फिर अफगानी खुफिया एजेंसी के हवाले से मौत की खबर को सही भी बता दिया गया। अब सवाल यह उठता है कि यदि यह खबर अफगानिस्तान सरकार के 'सूत्र' के हवाले से आई, तो सरकार ने इसके पक्ष में सबूत क्यों नहीं पेश किए। और यह भी कि यदि बीबीसी ने इसे ब्रेकिंग न्यूज की तरह चलाया तो वह कुछ और ब्यौरा क्यों नहीं दे पाया?
ऐसा नहीं है कि मुल्ला उमर के मौत की खबर पहली बार आई हो। पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है, लेकिन कभी जांच नहीं हुई। तालिबान अपनी तरह से इसे नकारता रहा है। यहां तक कि तालिबान ने हाल ही में ईद के मौके पर भी मुल्ला उमर के नाम से बधाई संदेश जारी किया था। इस बार तो यह खबर लिखे जाने तक तालिबान ने अपनी तरफ से मुल्ला उमर की मौत की खबर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
मुल्ला उमर के जिंदा रहने के जितने दावे हैं, उतने ही इशारे उसके जीवित नहीं होने के भी हैं। पूर्व अफगान तालिबान के एक मंत्री ने पाकिस्तान के एक अखबार को बताया था कि मुल्ला उमर की 2013 में टीबी से मौत हो चुकी है। यह भी कहा गया कि उसे अफगानिस्तान की जमीन पर ही दफनाया गया उन्होंने और उनके बेटे ने उसके शव की पहचान भी की। इससे अलग, तालिबान से टूटकर अलग हुए एक ग्रुप अफगानिस्तान इस्लामिक मूवमेंट फिदायीन महज के प्रवक्ता कारी हमजा के अनुसार मुल्ला उमर जुलाई 2013 में ही मुल्ला अख्तर मुहम्मद मंसूर और गुल आगा की गोलियों का शिकार हो गया था। हमजा ने यह भी दावा किया कि उनके पास इस बात के सबूत हैं, लेकिन अफगान सरकार या पश्चिमी मीडिया ने उसे महत्व नहीं दिया।
मुल्ला उमर कहां है इस बात को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। अमेरिकी सहित कई अन्य खुफिया एजेंसियां मानती हैं कि वो पाक अफगान सीमा के आसपास कहीं छिपा है जबकि कुछ का मानना है कि ओसामा बिन लादेन की तरह वह भी पाकिस्तान में शरण लिए हुए है। मुल्ला बरादर की पाकिस्तान में गिरफ्तारी के बाद इस अंदेशे को और हवा मिली कि वह क्वेटा या कराची के पास सुरक्षित जगह पर है, लेकिन उसके ठिकाने को लेकर भरोसे के साथ कभी कुछ कहा नहीं गया। वह भी तब जब उमर के सिर पर 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर का इनाम भी अमेरिका ने घोषित किया हुआ है।
इस बार एक बड़ी दिलचस्प बात मुल्ला उमर के मारे जाने की खबर की टाइमिंग को लेकर भी है। कहा जा रहा है कि तालिबान में नए मुखिया के चुनाव को लेकर बुधवार को ही एक बैठक हुई है। इसमें मुल्ला उमर की ओर से ही नियुक्त दो सहायकों में से एक मुल्ला बरादर को मुखिया बनाए जाने को लेकर चर्चा हुई। बरादर को पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था और बाद में उसे कई अन्य तालिबानी कैदियों के साथ इस दलील के साथ रिहा कर दिया गया था कि इससे तालिबान और अफगान सरकार के बीच शांति वार्ता शुरू करने में मदद मिलेगी। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि मुल्ला उमर जिंदा है तो नए मुखिया के चुनाव का सवाल क्यों। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि इस 'खबर' के जरिए तालिबान पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है ताकि उसके 'सौदा करने की ताकत' को कम किया जा सके?
इस सप्ताह के अंत में अफगान हाई पीस काउंसिल और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच दूसरे दौर की शांति वार्ता होनी है जो पाकिस्तान की मदद से हो रही है। इस बातचीत का मकसद अफगानिस्तान में चौदह साल से चल रही लड़ाई को खत्म करने के लिए रास्ता तलाशना है। दूसरे दौर की बातचीत की तारीख और जगह को लेकर थोड़ा सस्पेंस है लेकिन इसका होना तय है।
कुछ सूत्र बताते हैं कि दूसरे दौर की बातचीत 30-31 जुलाई को पाकिस्तान में ही होगी और वह भी हिल स्टेशन मरी में जहां पहले दौर की शांति वार्ता हुई थी। इसमें यह तय हुआ था कि फिर मिलेंगे। कुछ ऐसी भी रिपोर्ट आ रही थी कि दूसरे दौर की वार्ता चीन के उत्तरी पश्चिमी शहर उरुम्की में होगी, हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हो पाई। इस खबर को इसलिए भी हवा मिली, क्योंकि पहले दौर की बातचीत में चीन और अमेरिका के पर्यवेक्षक भी शामिल हुए थे। यह भी जानकारी आई कि तालिबान दोहा में बातचीत चाहता है।
सात जुलाई को पहले दौर की बातचीत की जगह को गुप्त रखा गया था, लेकिन बाद में पता चला कि यह इस्लामाबाद के नजदीक के हिल स्टेशन मरी में ही हुई थी। इस बातचीत में मुख्य तौर पर तालिबान ने अपनी कई मांगों पर जो दिया। इसमें यूएन में तालिबान से प्रतिबंध हटाना ताकि इसके सदस्य अंतरराष्ट्रीय यात्राएं बिना किसी रुकावट के कर सकें, तालिबान को अपना एक कार्यालय खोलने की अनुमति देना, ताकि वह खुद को एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर खुद को स्थापित कर सके। अफगान सरकार चाहती है कि पहले तालिबान पूरी तरह से युद्धविराम को राजी हो।
बातचीत की औपचारिक मेज तक पहुंचने के पहले अफगान और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच कई अनौपचारिक दौर की बातचीत हुई। ये अलग बात है कि सवाल इस पर भी उठते रहे हैं कि अगर तालिबान के साथ शांति वार्ता किसी नतीजे पर पहुंच ही गई तो क्या अफ़ग़ानिस्त में सक्रिए आतंकवादियों के तमाम धड़े इसे मानेंगे। लेकिन मुल्ला उमर की मौत पर सरकारी सबूत पेश किए जाने तक और तालिबान के इसे मान लिए जाने तक ये सवाल बना रहेगा कि आखिर अभी इस खबर को 'चलाने' के पीछे कहीं कोई अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तो नहीं?
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