प्रतीकात्मक तस्वीर...
माराकेश:
मोरक्को में चल रहा जलवायु परिवर्तन का सम्मेलन आखिरी दिन आते-आते किसी भी बड़ी कामयाबी से कोसों दूर दिख रहा है. गुरुवार शाम को सम्मेलन में जो प्रस्ताव पास किया गया, वो काफी ढीला-ढाला और बेअसर दिखा. इस सम्मेलन में वार्ता ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने के लिए पास की गई पेरिस डील को आगे बढ़ाने के बजाय तमाम देशों की आपसी खींचतान में फंस गई है. इसके अलावा इस बात का भी कोई ज़िक्र नहीं है कि अमीर देश अपनी ज़िम्मेदारी कैसे निभाएंगे.
एक्शन एड के हरजीत सिंह ने कहा कि "मोरक्को सम्मेलन में विकसित देश 2020 तक कार्बन उत्सर्जन कम करने की ज़िम्मेदारी से भागते नज़र आए हैं और पेरिस डील के तहत जो मदद दी जानी है, उस पर अमल करने के बजाय आंकड़ों की बाजीगरी करते दिख रहे हैं."
हालांकि औपचारिकता के लिए मोरक्को में पास हुए प्रस्ताव में ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने को प्राथमिकता देने की बात कही गई है और ये भी माना गया है कि धरती बहुत तेज़ी से गरम हो रही है, जिससे हालात चिंताजनक बने हुए हैं, लेकिन जानकार मोरक्को में पास हुए प्रस्ताव को खोखला और प्रभावहीन बता रहे हैं. क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (साउथ एशिया) के निदेशक संजय वशिष्ठ ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, "पेरिस में सारे देशों ने साथ आकर एक उम्मीद जगाई और फिर साल भर के भीतर सभी देशों ने पेरिस डील को लागू किया, जिसमें सभी देशों की ज़िम्मेदारी तय की गई है, वहीं मोरक्को के सम्मेलन में विकसित देश ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने में आर्थिक मदद की ज़िम्मेदारी से भागते दिखे हैं."
वशिष्ठ ने एनडीटीवी इंडिया को बताया कि "असल में अमीर देशों ने इस प्रस्ताव के पास होने से पहले ही अपनी रिपोर्ट में ये कह दिया कि 2020 तक क्लाइमेट फंड में दी जाने वाली 100 अरब डॉलर की रकम का आधे से अधिक वह दे चुके हैं. सच्चाई यह है कि अमीर देश अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रहे हैं. अभी तक इस फंड में सिर्फ 10 अरब डॉलर का ही वादा किया गया है. अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आने पर तो जो पैसा मिलना है, उस पर भी ख़तरा मंडरा रहा है।" क्लाइमेट फंड बनाने की बात 2010 में पहली बार हुई, जिसके तहत ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने के लिए अमीर और विकसित देशों को एक फंड में धन जमा करना है ताकि विकासशील और गरीब देश साफ सुथरी ऊर्जा बनाने के तरीके ढूंढ सकें और स्पेस में और कार्बन जमा न हो, लेकिन अमीर देशों ने मोरक्को में जो रुख जताया है वह निराश करने वाला है.
भारत के पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे ने क्लाइमेट फाइनेंस यानी अमीर देशों की ओर से मिलने वाले पैसे की कमी को लेकर पहले ही अपने भाषण में चिंता जताई थी. इसके अलावा कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर इस सम्मेलन में बात आगे नहीं बढ़ी. इनमें एक लगातार बढ़ रही आपदाओं से गरीब और विकासशील देशों पर होने वाले विनाशकारी प्रभाव को लेकर भी है. ये बहस लंबे समय से चल रही है कि विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन की वजह से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव विनाशकारी आपदायें बढ़ा रहा है. इसलिए इन देशों को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, लेकिन मोरक्को सम्मेलन में फिलहाल इस मुद्दे पर वार्ता टल गई है.
एक्शन एड के हरजीत सिंह ने कहा कि "मोरक्को सम्मेलन में विकसित देश 2020 तक कार्बन उत्सर्जन कम करने की ज़िम्मेदारी से भागते नज़र आए हैं और पेरिस डील के तहत जो मदद दी जानी है, उस पर अमल करने के बजाय आंकड़ों की बाजीगरी करते दिख रहे हैं."
हालांकि औपचारिकता के लिए मोरक्को में पास हुए प्रस्ताव में ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने को प्राथमिकता देने की बात कही गई है और ये भी माना गया है कि धरती बहुत तेज़ी से गरम हो रही है, जिससे हालात चिंताजनक बने हुए हैं, लेकिन जानकार मोरक्को में पास हुए प्रस्ताव को खोखला और प्रभावहीन बता रहे हैं. क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (साउथ एशिया) के निदेशक संजय वशिष्ठ ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, "पेरिस में सारे देशों ने साथ आकर एक उम्मीद जगाई और फिर साल भर के भीतर सभी देशों ने पेरिस डील को लागू किया, जिसमें सभी देशों की ज़िम्मेदारी तय की गई है, वहीं मोरक्को के सम्मेलन में विकसित देश ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने में आर्थिक मदद की ज़िम्मेदारी से भागते दिखे हैं."
वशिष्ठ ने एनडीटीवी इंडिया को बताया कि "असल में अमीर देशों ने इस प्रस्ताव के पास होने से पहले ही अपनी रिपोर्ट में ये कह दिया कि 2020 तक क्लाइमेट फंड में दी जाने वाली 100 अरब डॉलर की रकम का आधे से अधिक वह दे चुके हैं. सच्चाई यह है कि अमीर देश अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रहे हैं. अभी तक इस फंड में सिर्फ 10 अरब डॉलर का ही वादा किया गया है. अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आने पर तो जो पैसा मिलना है, उस पर भी ख़तरा मंडरा रहा है।" क्लाइमेट फंड बनाने की बात 2010 में पहली बार हुई, जिसके तहत ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने के लिए अमीर और विकसित देशों को एक फंड में धन जमा करना है ताकि विकासशील और गरीब देश साफ सुथरी ऊर्जा बनाने के तरीके ढूंढ सकें और स्पेस में और कार्बन जमा न हो, लेकिन अमीर देशों ने मोरक्को में जो रुख जताया है वह निराश करने वाला है.
भारत के पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे ने क्लाइमेट फाइनेंस यानी अमीर देशों की ओर से मिलने वाले पैसे की कमी को लेकर पहले ही अपने भाषण में चिंता जताई थी. इसके अलावा कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर इस सम्मेलन में बात आगे नहीं बढ़ी. इनमें एक लगातार बढ़ रही आपदाओं से गरीब और विकासशील देशों पर होने वाले विनाशकारी प्रभाव को लेकर भी है. ये बहस लंबे समय से चल रही है कि विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन की वजह से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव विनाशकारी आपदायें बढ़ा रहा है. इसलिए इन देशों को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, लेकिन मोरक्को सम्मेलन में फिलहाल इस मुद्दे पर वार्ता टल गई है.
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