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Explainer: दुनिया में एक नहीं अब चार महाशक्ति; रूस, चीन, अमेरिका के बीच भारत कहां?

भारत को अपने खिलाफ बढ़ते खतरे को देखते हुए अमेरिका और यूरोप के साथ गठबंधन करना ही पड़ेगा. हालांकि, वो रूस को भी नहीं छोड़ेगा. वहीं अमेरिका और यूरोप को भी भारत की बहुत जरूरत है. चीन को रोकने के लिए अमेरिका और यूरोप को भारत की जरूरत पड़नी ही पड़नी है.

Explainer: दुनिया में एक नहीं अब चार महाशक्ति; रूस, चीन, अमेरिका के बीच भारत कहां?

अमेरिकी अर्थशास्त्री और कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जेफरी सैक्स ने रूस की न्यूज एजेंसी TASS के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि वाशिंगटन के वैश्विक प्रभुत्व का युग समाप्त हो गया है, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका अभी तक इसे स्वीकार नहीं कर पाया है. सैक्स ने कहा, "मुझे लगता है कि अमेरिका का वैश्विक प्रभुत्व समाप्त हो गया है. हम एक बहुध्रुवीय दुनिया में रह रहे हैं. रूस महान शक्ति है. संयुक्त राज्य अमेरिका महान शक्ति है. चीन महान शक्ति है. भारत महान शक्ति है." अर्थशास्त्री ने कहा, "सवाल यह है कि क्या हम अब ऐसे माहौल में शांति से रह सकते हैं, क्या अमेरिका इस तथ्य को स्वीकार करेगा कि वह अब और फैसले नहीं ले सकता." सैक्स ने कहा कि अब तक, अमेरिकी प्रशासन अभी भी इनकार के चरण में है और मानता है कि वे "अभी भी शो चलाते हैं." अमेरिकी अर्थशास्त्री ने जोर देकर कहा, "और यह संयुक्त राज्य अमेरिका में एक खतरनाक गलत धारणा है."

रूस चाहता है भारत-चीन को साथ लाना 

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सैक्स की ये बात काफी हद तक सही लगती है, और दुनिया के काफी देशों का मानना है कि अमेरिका अब बूढ़ा होता जा रहा है. उसे रूस के साथ-साथ अब चीन और भारत से भी चुनौती मिल रही है. यही कारण है कि रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने गुरुवार को कहा कि मॉस्को वास्तव में रूस-भारत-चीन (आरआईसी) प्रारूप के ढांचे के भीतर संचालन को फिर से शुरू करने में रुचि रखता है. लावरोव ने यूरेशिया में सुरक्षा और सहयोग की एक एकल और न्यायसंगत प्रणाली बनाने पर अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक और राजनीतिक सम्मेलन के पूर्ण सत्र में अपने उद्घाटन भाषण में कहा, "मैं ट्रोइका (रूस, भारत, चीन) के प्रारूप के भीतर काम को जल्द से जल्द फिर से शुरू करने में हमारी वास्तविक रुचि की पुष्टि करना चाहता हूं, जिसे कई साल पहले (रूसी अंतर्राष्ट्रीय मामलों की परिषद, आरआईएसी) येवगेनी प्रिमाकोव की पहल पर स्थापित किया गया था, और जिसने तब से लेकर अब तक न केवल विदेश नीति प्रमुखों के स्तर पर, बल्कि तीन देशों की अन्य आर्थिक, व्यापार और वित्तीय एजेंसियों के प्रमुखों के स्तर पर भी 20 से अधिक बार मंत्रिस्तरीय बैठकें आयोजित की हैं."

लावरोव ने किया बड़ा दावा

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लावरोव ने जोर देकर कहा, "आज तक, जैसा कि मैं समझता हूं, भारत और चीन के बीच सीमा पर स्थिति को कैसे आसान बनाया जाए, इस पर सहमति बन गई है और मुझे लगता है कि इस आरआईसी तिकड़ी को पुनर्जीवित करने का समय आ गया है." रूस के शीर्ष राजनयिक ने कहा कि नाटो भारत को चीन विरोधी साजिशों में फंसाने की खुलेआम कोशिश कर रहा है. लावरोव ने कहा, "मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हमारे भारतीय मित्र, और मैं यह बात उनके साथ गोपनीय बातचीत के आधार पर कह रहा हूं,"

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लावरोव का ये दावा भी सही लगता है कि अगर भारत, रूस और चीन एक साथ आ जाएं तो दुनिया की ज्यादातर परेशानियां समाप्त हो जाएं. दुनिया से अमेरिका और यूरोप का एकाधिकार समाप्त हो सकता है. मगर लावरोव शायद कागजी प्लानिंग पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं या फिर समस्या को देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं. दोनों ही स्थितियों में इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है. रूस को ये समझना पड़ेगा कि भारत की क्या चिंताएं हैं. भारत लंबे समय से पाकिस्तान के आतंकवाद से त्रस्त है. उस पाकिस्तान को चीन हर कदम पर सहयोग देता है. पीओके पर पाकिस्तान कई सालों से कब्जा जमाए हुए है, एक हिस्सा इसका उसने इसका चीन को भी दे रखा है. भारत जम्मू-कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानता है और इसे हर हाल पर वापस लेने के लिए संकल्पित है. उधर, चीन और भारत का भी सीमा विवाद है. चीन इतिहास के पुराने किस्सों को लाकर भारत के नये-नये क्षेत्रों पर दावा करता है. भारत को इसी कारण पाकिस्तान के साथ उलझाए रखना चाहता है, मगर इसके बावजूद भारत विश्व की महाशक्ति बनने की राह पर है. तो ऐसे में चीन-भारत कैसे साथ आएंगे?

चीन की विस्तारवादी सोच

चीन के माउथपीस ग्लोबल टाइम्स में चीन की सेना के लेफ्टिनेंट जनरल हे ली ने लिखा है कि चीन के मुख्य हित मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों में परिलक्षित होते हैं: पहला, सीपीसी और समाजवादी व्यवस्था के नेतृत्व में बदलाव नहीं किया जाना चाहिए. दूसरा, चीन की क्षेत्रीय अखंडता, संप्रभुता, सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए. तीसरा, राष्ट्रीय कायाकल्प की ऐतिहासिक प्रक्रिया को बाधित होने से रोकना. इनमें से, निकट भविष्य में दूसरे पहलू में ताइवान प्रश्न, दक्षिण और पूर्वी चीन सागर के मुद्दे से लेकर चीन-भारत सीमा विवाद तक के मामले शामिल हैं. ये सभी चीन के मूल हित हैं, लेकिन इनमें सबसे महत्वपूर्ण, सबसे मौलिक, सबसे महत्वपूर्ण ताइवान प्रश्न है - यानी राष्ट्रीय एकीकरण का मुद्दा.

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आगे उन्होंने लिखा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा के लिए, हमें राष्ट्रीय हित की अवधारणा को अपने दिलों में मजबूती से उकेरना चाहिए और इसे अपने सिर से ऊपर उठाना चाहिए. हमें दृढ़ता से राष्ट्रीय हितों की रक्षा करनी चाहिए और उन सभी कार्यों के खिलाफ बिना किसी समझौते के लड़ना चाहिए, जो उन हितों को नुकसान पहुंचाते हैं, उनका उल्लंघन करते हैं या उन्हें बेचते हैं - चाहे इसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े, भले ही इसके लिए खून और बलिदान की आवश्यकता हो.

अमेरिका और भारत क्यों दोस्त

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जाहिर है चीन विस्तारवाद के रास्ते से पीछे नहीं हटना चाहता और भारत से संबंधों को ठोस रूप से सुधारने के लिए कोई बड़ा कदम उठाने को तैयार नहीं है. लावरोव की ये बात सही है कि अगर भारत-चीन के संबंध ठीक हो जाएं तो पूरी दुनिया का व्यापार एशिया से ही चलेगा. एशिया ही सारे मुद्दों को सुलझाएगा और भारत, रूस और चीन एक नये विश्व समीकरण की स्थापना कर सकते हैं. मगर उसके लिए चीन को भारत की जमीनों पर अपने दावे और कब्जे को छोड़ना होगा. पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भारत में मिलाने के लिए भारत के साथ खड़ा करना होगा. जब तक वो ये नहीं करेगा अमेरिका का दुनिया पर आधिपत्य भले ही सांकेतिक ही सही, लेकिन बना रहेगा. अमेरिका अपने हिसाब से बिजनेस के रुल्स सेट करेगा और ताकत के दम पर नये समीकरण बनाएगा. भारत को अपने खिलाफ बढ़ते खतरे को देखते हुए अमेरिका और यूरोप के साथ गठबंधन करना ही पड़ेगा. हालांकि, वो रूस को भी नहीं छोड़ेगा. वहीं अमेरिका और यूरोप को भी भारत की बहुत जरूरत है. चीन को रोकने के लिए अमेरिका और यूरोप को भारत की जरूरत पड़नी ही पड़नी है.

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