आस्था वर्मा और नंदिनी सरकार को तुलसी अखाड़े में रियाज़ की इजाज़त इसी साल नागपंचमी को मिली...
वाराणसी:
वाराणसी के तुलसी अखाड़े में अब लड़कियां भी दो-दो हाथ करती नज़र आएंगी. तकरीबन 450 साल पुराने इस अखाड़े ने कई नामचीन पहलवान दिए हैं, और अब तक यहां पुरुष पहलवान ही कुश्ती के दांव-पेंच सीखते थे, लेकिन महिला पहलवानों ने भी इस अखाड़े में रियाज़ करने की लड़ाई लड़ी और 450 साल पुरानी परम्परा को चित कर अखाड़े में प्रवेश का रास्ता साफ कर लिया. अब अनुमति मिलने के साथ ही महिला पहलवानों का रियाज़ भी तुलसी अखाड़े में शुरू हो गया है, और इस पहल से वे बेहद खुश हैं...
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अब तुलसी अखाड़े में अल-सुबह ज़ोर-आज़माइश करती पहलवान आस्था और नंदिनी नज़र आती हैं, जो दोनों ही कुश्ती में स्टेट लेवल की खिलाड़ी हैं. अब तक ये सिगरा स्टेडियम के मैट पर प्रैक्टिस कर अपने सफर को आगे बढ़ाने में जुटी थीं, पर अखाड़े की मिट्टी में रियाज़ के बिना इनके कई दांव खाली चले जा रहे थे, इसीलिए इन्होंने समाज और पुरुष पहलवानों से अपने हक की लड़ाई लड़ी. समाज में बराबरी को लेकर अपने तर्कों के दांव से इन्होंने सबको चित कर यहां जगह बना ली. पहलवान आस्था वर्मा कहती हैं, "मैट पर प्रैक्टिस करते थे हम लोग, क्योंकि सारा टेक्नीक मैट का ही है, लेकिन हम लोगों को ज़्यादा ताक़त के लिए अखाड़े की ज़रूरत है, सो, हमारे कोच ने महंत जी से बात की, और अखाड़े में पहली बार आने की इजाज़त नागपंचमी के दिन मिली, और हम तभी से आ रहे हैं..."
पहलवान नंदिनी सरकार भी इससे इत्तफ़ाक़ रखते हुए बताती हैं, "मैट पर पैर ठीक से मजबूत नहीं हो पाता है... मिट्टी पर अभ्यास करने से पैर भी अच्छे तरीके से बढ़ता है और पैरों में ताक़त भी आती है, इसलिए मैट के साथ-साथ अखाड़ा भी ज़रूरी है, क्योंकि अखाड़े में अभ्यास करने से ही पॉवर आता है..."

साफ है कि इन्हे अखाड़े की ज़रूरत इसलिए पड़ती है, क्योंकि भले ही अखाड़े की तकनीक पुरानी हो, लेकिन नई तकनीक भी इसी पुरानी तकनीक के दम पर ही आती है, और अखाड़े में मिट्टी पहलवानों के हाथ-पांवों को ज़्यादा मजबूत बनाती है. अखाड़े के प्रसिद्ध दांवों ढाक, धोबीपछाड़, कालजंग आदि की काट नई तकनीक में नहीं है, और ये दांव किसी भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर बड़ी जीत दिलाते हैं. वही दांव सीखने के लिए ये दोनों यहां आई हैं.
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इस अखाड़े का पुश्तों से संचालन कर रहे महंत विशम्भरनाथ मिश्र बताते हैं, "अब हमने बेटियों को बढ़ाने के लिए यह परम्परा शुरू की है... यह समय की आवश्यकता है, क्योंकि आज आप बराबरी की बात करते हैं... अगर आप सिर्फ पढ़ाई के लिहाज़ से बराबरी की बात करते हैं, तो करते रहिए, हमारा मानना तो यह है कि समाज की आवश्यकता है कि जिस तरह लड़कों को मजबूत बनाया जाता है, ज़रूरी है कि लड़कियों को भी मजबूत बनाया जाए... जो परम्पराएं जीवित होती हैं, उनमें यह क्षमता होनी चाहिए कि नई चीज़ों को इन्कॉरपोरेट करे, और जो इस्तेमाल की चीज़ नहीं रह गई है, उसे डिलीट भी कर डाले... परम्परा ऐसे ही चलती हैं, और ऐसी परम्पराएं, जिनसे समाज को कुछ नहीं मिले, वे ख़त्म हो जाएंगी..."
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अपने हौसलों से कुश्ती की दुनिया में बड़ी उड़ान भरने वाली इन महिला पहलवानों ने अखाड़े में प्रवेश की लड़ाई तो जीत ली है, और अब अखाड़े में पुरुष पहलवानों के सा-साथ इन्हें भी कुश्ती के गुर सिखाने की व्यवस्था की जा रही है, लेकिन इनकी असली लड़ाई इनकी अपनी माली हालत से है. नंदिनी के पिता हलवाई हैं, जबकि आस्था के पिता हैं ही नहीं, और उनकी मां फूलमालाएं बेचकर गुज़ारा कर रही हैं. ऐसे में पहलवानी के लिए जो खुराक चाहिए, वह नहीं मिल पा रही है, सो, अब ये दोनों इसकी गुहार भी सरकार से लगा रही हैं.
प्रधानमंत्री के अपने ही संसदीय क्षेत्र की ये बेटियां उनके 'बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ' के नारे की तरफ ध्यान आकर्षित कर अपने जैसी खिलाडियों के लिए मदद मांग रही हैं. देखने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री के कानों तक इन बच्चियों की आवाज़ कब तक पहुंचती है.
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अब तुलसी अखाड़े में अल-सुबह ज़ोर-आज़माइश करती पहलवान आस्था और नंदिनी नज़र आती हैं, जो दोनों ही कुश्ती में स्टेट लेवल की खिलाड़ी हैं. अब तक ये सिगरा स्टेडियम के मैट पर प्रैक्टिस कर अपने सफर को आगे बढ़ाने में जुटी थीं, पर अखाड़े की मिट्टी में रियाज़ के बिना इनके कई दांव खाली चले जा रहे थे, इसीलिए इन्होंने समाज और पुरुष पहलवानों से अपने हक की लड़ाई लड़ी. समाज में बराबरी को लेकर अपने तर्कों के दांव से इन्होंने सबको चित कर यहां जगह बना ली. पहलवान आस्था वर्मा कहती हैं, "मैट पर प्रैक्टिस करते थे हम लोग, क्योंकि सारा टेक्नीक मैट का ही है, लेकिन हम लोगों को ज़्यादा ताक़त के लिए अखाड़े की ज़रूरत है, सो, हमारे कोच ने महंत जी से बात की, और अखाड़े में पहली बार आने की इजाज़त नागपंचमी के दिन मिली, और हम तभी से आ रहे हैं..."
पहलवान नंदिनी सरकार भी इससे इत्तफ़ाक़ रखते हुए बताती हैं, "मैट पर पैर ठीक से मजबूत नहीं हो पाता है... मिट्टी पर अभ्यास करने से पैर भी अच्छे तरीके से बढ़ता है और पैरों में ताक़त भी आती है, इसलिए मैट के साथ-साथ अखाड़ा भी ज़रूरी है, क्योंकि अखाड़े में अभ्यास करने से ही पॉवर आता है..."

साफ है कि इन्हे अखाड़े की ज़रूरत इसलिए पड़ती है, क्योंकि भले ही अखाड़े की तकनीक पुरानी हो, लेकिन नई तकनीक भी इसी पुरानी तकनीक के दम पर ही आती है, और अखाड़े में मिट्टी पहलवानों के हाथ-पांवों को ज़्यादा मजबूत बनाती है. अखाड़े के प्रसिद्ध दांवों ढाक, धोबीपछाड़, कालजंग आदि की काट नई तकनीक में नहीं है, और ये दांव किसी भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर बड़ी जीत दिलाते हैं. वही दांव सीखने के लिए ये दोनों यहां आई हैं.
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अपने हौसलों से कुश्ती की दुनिया में बड़ी उड़ान भरने वाली इन महिला पहलवानों ने अखाड़े में प्रवेश की लड़ाई तो जीत ली है, और अब अखाड़े में पुरुष पहलवानों के सा-साथ इन्हें भी कुश्ती के गुर सिखाने की व्यवस्था की जा रही है, लेकिन इनकी असली लड़ाई इनकी अपनी माली हालत से है. नंदिनी के पिता हलवाई हैं, जबकि आस्था के पिता हैं ही नहीं, और उनकी मां फूलमालाएं बेचकर गुज़ारा कर रही हैं. ऐसे में पहलवानी के लिए जो खुराक चाहिए, वह नहीं मिल पा रही है, सो, अब ये दोनों इसकी गुहार भी सरकार से लगा रही हैं.
प्रधानमंत्री के अपने ही संसदीय क्षेत्र की ये बेटियां उनके 'बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ' के नारे की तरफ ध्यान आकर्षित कर अपने जैसी खिलाडियों के लिए मदद मांग रही हैं. देखने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री के कानों तक इन बच्चियों की आवाज़ कब तक पहुंचती है.
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