बनारस से सटे चंदौली को 1997 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने बनारस से अलग करके जिला बनाया था. इसमें मुगलसराय, सकलडीहा, सैयदराजा और वाराणसी की अजगरा के साथ शिवपुर विधानसभा को शामिल किया गया. जिला बनने के 22 साल बाद भी चंदौली क्षेत्र बदहाली की हालत झेल रहा है. हालात यह है कि अभी तक इसका मुख्यालय तक पूरी तरह से नहीं बन पाया है. हालांकि पूर्वांचल की जो कुछ हाईप्रोफाईल सीट हैं उसमे चंदौली का भी नाम आता है. साल 2014 में यहां से भाजपा के महेन्द्र नाथ पांडेय ने बसपा के अनिल मौर्या को तकरीबन डेढ़ लाख वोट से पटकनी दी थी.
धान का कटोरा कहे जाने वाले चंदौली जिले का अधिकांश हिस्सा ग्रामीण है. लोगों की जीविका खेतीबाड़ी पर निर्भर है. लेकिन यहां सिंचाई के साधन नहीं थे, लिहाजा किसान परेशान थे और लोगों का पलायन तेजी से हुआ. इस इलाके में अकेले कमलापति त्रिपाठी को छोड़ दें तो किसी की राजनीतिक इच्छाशक्ति ने यहां काम नहीं किया. कमलापति त्रिपाठी ने यहां नहरों का जाल बिछाया जिसकी वजह से यह पूर्वांचल का धान का कटोरा कहलाया. लेकिन उनके बाद किसी ने इस इलाके की कृषि, शिक्षा, रोज़गार, पर्यटन, जिसमें ये पिछड़ा है, को बढ़ाने की ज़रुरत नहीं समझी. यही वजह है कि शुरू के दौर में, यानी आज़ादी के बाद 1952 से लेकर 1971 बीच में एक टर्म 1967 को छोड़ दें जिसमें सोशलिस्ट पार्टी जीत गई थी, नहीं तो लगातार चार बार कांग्रेस ही यहां से जीतती रही. लेकिन 1971 के बाद ये इलाका लगातार अपनी दशा और दिशा को सुधारने के लिए प्रत्याशी बदलता रहा लेकिन इसकी बदहाली में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ.
चूंकि किसी पार्टी ने यहां के विकास में कोई बड़ा योगदान नहीं दिया लिहाजा यहां के चुनाव पर हमेशा जातीय गणित ही हावी रही. चंदौली यादव बाहुल्य क्षेत्र है जिनकी संख्या तकरीबन दो लाख पचहत्तर हज़ार के आसपास है. उसके बाद दलित बिरादरी है जो कि करीब दो लाख साठ हज़ार के आसपास है. फिर पिछड़ी जाति में मौर्या हैं जिनकी संख्या एक लाख पचहत्तर हज़ार के आसपास है. ब्राह्मण, राजपूत, मुस्लिम, राजभर भी तकरीबन एक लाख से कुछ अधिक हैं.
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आज़ादी के बाद से अब तक अगर इस सीट पर ये देखते हैं कि यहां कौन-कौन सी पार्टी अपना परचम लहरा चुकी हैं तो उसमें सबसे ज़्यादा कांग्रेस है जो 6 दफे यहां से जीती है. लेकिन 1984 के बाद से कांग्रेस यहां पर जीत का स्वाद नहीं चख पाई है तो इसकी बड़ी वजह क्षेत्रीय पार्टियों का उदय और जातीय समीकरण ही रहा है. कांग्रेस के बाद चार बार बीजेपी यहां से अपनी जीत का परचम लहरा चुकी है. मौजूदा समय में भी यह सीट बीजेपी के पास है. दो बार यहां से सपा और जनता पार्टी जीती है तो एक दफे सोशलिस्ट पार्टी और बसपा ने जीत हासिल की है.
साल 2014 में चंदौली लोकसभा सीट पर हुए चुनाव के समय कुल मतदाताओं की संख्या पर ध्यान दें तो वह 15 लाख 93 हजार 133 थी. बीजेपी के महेंद्र नाथ पाण्डेय ने 4 लाख 14 हजार 135 वोट पाकर इस चुनाव में जीत हासिल की थी. दूसरी ओर बसपा के उम्मीदवार अनिल कुमार मौर्य ने 2 लाख 57 हजार 379 वोट पाए और वह इस चुनाव में दूसरे नंबर पर रहे. इसके साथ ही सपा के कैंडिडेट रामकिशुन ने 2 लाख 4 हजार 145 वोट प्राप्त किए और कांग्रेस के प्रत्याशी तरुण पटेल को 27 हाजर 194 वोट मिले. यानि सभी पार्टियों के मतों का प्रतिशत देखें तो बीजेपी सबसे अधिक 42.23 प्रतिशत वोट मिला था उसके बाद बहुजन समाज पार्टी को 26. 25 और सपा को 20. 82 प्रतिशत मत मिला था. जबकि कांग्रेस सिर्फ अपनी 2. 77 प्रतिशत मतों से दस्तक ही दे पाई थी.
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सन 1999 से 2009 तक के तीन चुनाव में सपा-बसपा आपस में इस सीट को एक-दूसरे से छीनते रहे हैं लेकिन 2014 की मोदी लहर में अपना दल और राजभर पार्टी से भाजपा के गठबंधन ने इस सीट को सपा से छीन लिया था और तकरीबन डेढ़ लाख से ज़्यादा मतों से बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र पांडेय यहां विजयी हुए. इस बार फिर बीजेपी ने अपने प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र नाथ पाण्डेय को ही मैदान में उतारा है पर इस बार समीकरण बदल गए हैं. सपा और बसपा के गठबंधन में ये सीट सपा के पास गई है दोनों के पिछले लोकसभा के चुनाव के मिले मतों के प्रतिशत को मिला दे तो ये तक़रीन 47 प्रतिशत होता है जो बीजेपी के 42 परसेंट से कहीं ज़्यादा है. मतों के इन प्रतिशत के अलावा बीजेपी के लिए ओम प्रकाश राजभर से समझौता न होना भी इस सीट पर उन्हें बड़ा नुकसान पहुंचा सकता है.
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साफ़ है कि 2019 में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष चंदौली सीट पर यहां के जातीय समीकरण के चक्रव्यूह में घिरते नज़र आ रहे हैं और फिलहाल अभी इसको तोड़कर निकलने का कोई साफ़ रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा है लेकिन राजनीति में कुछ भी संभव है रिजल्ट क्या आएगा ये देखने वाली बात होगी.
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