नई दिल्ली:
‘तिनका-तिनका डासना’ सिर्फ एक किताब नहीं, भारत की दूसरी सबसे चर्चित जेल डासना की ज़िंदगी की लाइव रिपोर्टिंग है. यह इस मायने में अनूठी कही जानी चाहिए कि हम अक्सर ही जेलों के बारे में कहासुनी या कानाफूसी तक सीमित रहते हैं. एक समाज के रूप में हम कैदियों को लेकर कितने चिंतित रहते हैं, इस बारे में इससे ही समझा जा सकता है कि यह न तो समाज और न ही मीडिया में कभी बहस या चर्चा का विषय रहा है. गाहे-बगाहे ही हम जेल के जीवन, उसके सरोकार के बारे में संवाद करते हैं.
शायद हम भूल गए है कि जेलों में जो हजारों लोग सजा भुगत रहे हैं, या सजा के इंतजार में हैं, वह भी तो हमारे अपने ही हैं. उनकी पीड़ा और मुश्किलें क्या अकेले उनकी हैं? वहां उन्हें मिलने वाली यातना, सुविधारहित जीवन क्या मानवाधिकारों के उल्लंघन का विषय नहीं होना चाहिए. ‘तिनका-तिनका डासना’ इस सरोकारी सवाल से संवाद के साथ ही आगे बढ़ती है. न केवल आगे बढ़ती है, बल्कि एक नई लीक पर भी चलती है.
'तिनका-तिनका डासना' की लेखिका मीडियाकर्मी और जेल सुधार विशेषज्ञ वर्तिका नंदा हैं. उनकी यह ताजा किताब नौ हिस्सों में है. इसकी संरचना कुछ ऐसी है कि इसमें तथ्यात्मक विवरणों से भरपूर रिर्पोताज हैं, तो कविता भी और सच भी. इसके एक हिस्से में आप उन पांच ज़िंदगियों के बारे में पढ़ेंगे जो आजीवन कारावास पर हैं. यह किताब का सबसे खास हिस्सा है. जेल में आने के बाद उनका जीवन कैसे बदला और उन्होंने खुद को इस माहौल में ढालने की कोशिश कैसे की, यह हिस्सा दुखों की छाया और प्रायश्चित की वेदना से भरपूर है.
एक पत्रकार के बहुआयामी अनुभवों के साथ उसमें कथाकार का शामिल हो जाना, इस किताब की सबसे अहम खूबियों में से एक है. जहां विवरण की जरूरत है, वहां वर्तिका अपनी सुपरिचित भूमिका यानी पत्रकार के रूप में हैं और जहां पीड़ा और कष्टों को व्यक्त करना है, वहां वह कथाकार के रूप में कुशलता से विषय में दाखिल हो जाती हैं. इसलिए कड़ी ‘तिनका-तिनका डासना’ सलाखों के बीच उम्मीद के चिराग को रोशनी बख्शने का काम पूरी संजीदगी से करती है. जेल में आने के बाद कैदियों की ज़िदगी कैसे बदलती है, कैसे सब अपनी ‘नई’ परिभाषा रचने की कोशिश करते हैं, किताब इसी कथानक के आसपास बुनी गई है. इसके साथ ही कैसे कैदियों को समाज की मुख्यधारा के साथ फिर से जोड़ा जा सकता है, इस पर भी बात की गई है.
‘तिनका-तिनका डासना’ में उन दो चर्चित बंदियों द्वारा लिखी कविताएं भी हैं जो देशभर के अखबारों में किसी जमाने में सुर्खियों पर रहे. राजेश और नूपुर तलवार. जेल में आने के बाद उनकी बदली जिंदगी का यह पहला दस्तावेज है. इसके अलावा सुरेंद्र कोली भी इस किताब का एक हिस्सा है और खुद को बदलने की कहानी कहता दिखता है. किताब के एक हिस्से में उस गीत की कहानी है, जो अब जेल का ‘थीम’ सांग है और जिसे वर्तिका ने ही लिखा और कैदियों ने गाया है. इस गाने की सीडी कुछ समय पहले ही जारी की गई थी.
तिनका तिनका फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित 192 पन्नों की इस किताब का उद्देश्य मानवाधिकार को लेकर नए आयाम स्थापित करना है और जेलों को लेकर एक आमधारणा में बदलाव लाना भी. इस लिहाज से यह किताब समाज, जेल और प्रशासन के बीच एक पुल बनाने का प्रयास है. हम उम्मीद कर सकते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की अध्यक्ष वर्तिका नंदा की यह किताब पत्रकारिता में रुचि रखने वाले शोधार्थियों के साथ ही सामाजिक विज्ञान और मानवाधिकार से जुड़े विषयों पर काम करने वालों के लिए भी एक दस्तावेज की कमी को पूरा करने का काम करेगी.
शायद हम भूल गए है कि जेलों में जो हजारों लोग सजा भुगत रहे हैं, या सजा के इंतजार में हैं, वह भी तो हमारे अपने ही हैं. उनकी पीड़ा और मुश्किलें क्या अकेले उनकी हैं? वहां उन्हें मिलने वाली यातना, सुविधारहित जीवन क्या मानवाधिकारों के उल्लंघन का विषय नहीं होना चाहिए. ‘तिनका-तिनका डासना’ इस सरोकारी सवाल से संवाद के साथ ही आगे बढ़ती है. न केवल आगे बढ़ती है, बल्कि एक नई लीक पर भी चलती है.
'तिनका-तिनका डासना' की लेखिका मीडियाकर्मी और जेल सुधार विशेषज्ञ वर्तिका नंदा हैं. उनकी यह ताजा किताब नौ हिस्सों में है. इसकी संरचना कुछ ऐसी है कि इसमें तथ्यात्मक विवरणों से भरपूर रिर्पोताज हैं, तो कविता भी और सच भी. इसके एक हिस्से में आप उन पांच ज़िंदगियों के बारे में पढ़ेंगे जो आजीवन कारावास पर हैं. यह किताब का सबसे खास हिस्सा है. जेल में आने के बाद उनका जीवन कैसे बदला और उन्होंने खुद को इस माहौल में ढालने की कोशिश कैसे की, यह हिस्सा दुखों की छाया और प्रायश्चित की वेदना से भरपूर है.
एक पत्रकार के बहुआयामी अनुभवों के साथ उसमें कथाकार का शामिल हो जाना, इस किताब की सबसे अहम खूबियों में से एक है. जहां विवरण की जरूरत है, वहां वर्तिका अपनी सुपरिचित भूमिका यानी पत्रकार के रूप में हैं और जहां पीड़ा और कष्टों को व्यक्त करना है, वहां वह कथाकार के रूप में कुशलता से विषय में दाखिल हो जाती हैं. इसलिए कड़ी ‘तिनका-तिनका डासना’ सलाखों के बीच उम्मीद के चिराग को रोशनी बख्शने का काम पूरी संजीदगी से करती है. जेल में आने के बाद कैदियों की ज़िदगी कैसे बदलती है, कैसे सब अपनी ‘नई’ परिभाषा रचने की कोशिश करते हैं, किताब इसी कथानक के आसपास बुनी गई है. इसके साथ ही कैसे कैदियों को समाज की मुख्यधारा के साथ फिर से जोड़ा जा सकता है, इस पर भी बात की गई है.
‘तिनका-तिनका डासना’ में उन दो चर्चित बंदियों द्वारा लिखी कविताएं भी हैं जो देशभर के अखबारों में किसी जमाने में सुर्खियों पर रहे. राजेश और नूपुर तलवार. जेल में आने के बाद उनकी बदली जिंदगी का यह पहला दस्तावेज है. इसके अलावा सुरेंद्र कोली भी इस किताब का एक हिस्सा है और खुद को बदलने की कहानी कहता दिखता है. किताब के एक हिस्से में उस गीत की कहानी है, जो अब जेल का ‘थीम’ सांग है और जिसे वर्तिका ने ही लिखा और कैदियों ने गाया है. इस गाने की सीडी कुछ समय पहले ही जारी की गई थी.
तिनका तिनका फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित 192 पन्नों की इस किताब का उद्देश्य मानवाधिकार को लेकर नए आयाम स्थापित करना है और जेलों को लेकर एक आमधारणा में बदलाव लाना भी. इस लिहाज से यह किताब समाज, जेल और प्रशासन के बीच एक पुल बनाने का प्रयास है. हम उम्मीद कर सकते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की अध्यक्ष वर्तिका नंदा की यह किताब पत्रकारिता में रुचि रखने वाले शोधार्थियों के साथ ही सामाजिक विज्ञान और मानवाधिकार से जुड़े विषयों पर काम करने वालों के लिए भी एक दस्तावेज की कमी को पूरा करने का काम करेगी.
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