‘नाम क्या बताया तुमने अपना?'
‘लंगी.'
‘लंगी? ये कौन सा नाम है?”
‘अरे, वह लंगड़ी बोलना कठिन होता है न तो लंगी ही बोलते हैं लोग मुझे.'
जिस लेखिका के किरदार कलेजा कंपा देने वाली इस निर्ममता के साथ अपना परिचय देते हैं, वह व्हीलचेयर पर है- इस बात को छुपाने या कहने में संकोच करने का कोई मतलब नहीं है. जी हां, कंचन सिंह चौहान व्हीलचेयर की मदद से चलने वाली कथाकार हैं. यह किसी लेखक का बहुत विडंबनापूर्ण परिचय लग सकता है. लेकिन इस एहसास के बावजूद और बहुत गहरी दुविधा के बीच यह टिप्पणी इन पंक्तियों से शुरू की जा रही है तो इसका एक मक़सद इस बात की ओर इशारा करना भी है कि जो व्हीलचेयर पर होते हैं या किसी और ढंग से विकलांग होते हैं, वे दया या रियायत के पात्र नहीं होते. उनकी एक अलग अस्मिता होती है जिसे पहचाना और सम्मान दिया जाना चाहिए. एक समाज के रूप में हम अपने विकलांग साथियों पर दया तो करते हैं (हालांकि कई बार यह भी नहीं करते), लेकिन अपनी निर्मित व्यवस्था में उनके लिए सहज स्थान नहीं बनाते.
अपने पहले कहानी संग्रह ‘तुम्हारी लंगी' में लेखिका अपने इस यथार्थ से बहुत सहजता से आंख मिलाती है. संग्रह की पहली ही कहानी में उनकी नायिका कहती है- ‘महिला दुहरी विकलांग है'- और अचानक हमारे सामने यह समझने का अवसर छोड़ देती है कि विकलांगता को हम किसी नियति या प्रकृति प्रदत्त चीज़ की तरह नहीं, एक सामाजिक निर्मिति की तरह देखना सीखें. निस्संदेह इस विकलांगता की अपनी टीसें हैं- कभी जीवन में उपयुक्त साथी न मिलने का दुख, कभी किसी के लिए उपयुक्त साथी न हो पाने का अंदेशा. मगर ‘जाने किसकी ख़ुशी तलाशी है' जैसी कहानी हमारे पास न हो तो उस जीवन की उस दुविधा को समझना आसान न हो जो विकलांगता की सामाजिक स्थिति से पैदा होती है.
लेकिन अगर एक सामाजिक अभिशाप यह विकलांगता है तो दूसरे और भी सामाजिक अभिशाप हैं- ग़रीब होना, लड़की होना, ग़रीब घर की लड़की होना. इस संग्रह की कहानियां ऐसे ही अभिशप्त चरित्रों की कहानियां भी हैं जो अपनी नियति से मुठभेड़ करती हैं- कभी बहुत हल्के से तो कभी बहुत उग्रता से. ‘ईज़' नाम की कहानी पढ़ कर बहुत सारे पारंपरिक लोगों को झटका भी लग सकता है. ऐसा लग सकता है जैसे यह कहानी वेश्यावृत्ति के समर्थन में है. लेकिन ध्यान से देखें तो पाते हैं कि दरअसल यह कहानी परिवारों के भीतर- विवाह के भीतर- होने वाले बलात्कारों और अत्याचारों को तार-तार करने वाली कहानी है. मजबूरी में वेश्यावृत्ति में धकेल दी गई या कॉल गर्ल बनने चली आई लड़कियों की कहानियां और भी हैं लेकिन इस कहानी में नई बात नायिका का (अगर आपका परंपराभीरू मन इसे नायिका मानने का विवेक दिखा सके) अकुंठ बरताव है- जैसे उसके भीतर अपने किए को लेकर न कोई मायूसी है और न अपराध बोध.
‘बदज़ात' एक दूसरे सिरे पर खड़ी कहानी है जिसमें घर की असहाय बेटियां ऐसे अनुपयुक्त लोगों से ब्याह दी जाती हैं जिनके संग-साथ के बाद उनके पास बस पशुवत ज़िंदगी आती है- चाहे वह मूक समर्पण की हो या यंत्रणा की. लेखिका ने यह कहानी बहुत सुंदर ढंग से लिखी है। इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते खयाल आता है कि इन सारी कहानियों की नायिकाएं स्त्रियां हैं और वे अपने ढंग से अपनी नियति तय करने पर तुली हैं- भले बहुत लंबे अंतराल के बाद या फिर बिल्कुल शुरू से. ‘बदज़ात' की मां अपने मानसिक तौर पर अपाहिज बेटे से एक मजबूर और योग्य लड़की का विवाह होती देखती है और अचानक उसे अपना विवाह याद आ जाता है. अपने साथ पहली रात हुए पशुवत व्यवहार की स्मृति उसके भीतर इतनी तीक्ष्ण है कि अंततः वह प्रतिरोध कर बैठती है.
कहीं मां बेटियों के साथ खड़ी है तो कहीं बेटे-बेटी मां के साथ. ‘मुक्ति' कहानी में यह बेटे-बेटी हैं जिनके दम पर मां ने अपने पति की मृत्यु के बाद एक जबरन थोपे हुए आपराधिक विवाह से मुक्ति पाई है. कुछ कहानियों में रिश्ता मां-बेटी भी नहीं है, लेकिन संघर्ष और मुक्ति से बना नाता वही है. ‘वर्तुल धारा' में अपनी ससुराल छोड़ कर मायके में बैठी नायिका एक संयोग से शहर में रहती है, नर्सिंग का कोर्स करती है और साथ-साथ सरोगेट मां का भी काम करती है. उसने पैसे भी कमाए हैं, रिश्ते भी और अब वह एक छोड़ी जा रही बच्ची की मां बनने को तैयार है. यह कई परतों से बनी बहुत अच्छी कहानी है जिसमें बड़ी संभावनाएं हैं.
‘मर्ग और जीस्त की कशमकश में' बेशक इस लिहाज से अलग तरह की कहानी है कि उसकी नायिका अंततः मौत में अपनी मुक्ति का मार्ग चुनती दिखाई पड़ती है, लेकिन यह कहानी फिर से स्त्री होने के अपराध में झेली जाने वाली सज़ाओं की ही याद दिलाती है जिसमें न्याय चाहने की कामना भी अपराध में बदल जाती है.
‘सिम्मल के फूल' तेज़ाबी हमले की चपेट में आई एक लड़की की कहानी है. यह संग्रह की शायद इकलौती कहानी है जिसमें एक तरह का अख़बारीपन मिलता है- यानी ऐसी स्थितियों की कल्पना जिन्हें हम रोज़ अख़बार में देख-पढ़ लेते हैं- अमीर लड़के का प्रेम, उससे इनकार पर तेज़ाबी हमला, इंसाफ़ और इलाज के दोहरे मोर्चे पर पिसता परिवार, लेकिन फिर भी लड़की के हिस्से मिली जीत. लेकिन लेखिका जहां कहानी का अंत करती है, वह बिल्कुल चौंकाने वाला है- बल्कि यह बहुत बारीक और सधा हुआ अंत है जो एक अनावश्यक तौर पर खिंचती कहानी में जान डाल देता है. ‘मोरा पिया मोसे बोलत नाहीं' प्यारे ढंग से लिखी गई एक सामान्य सी कहानी है जिसमें नायिका अपने दोस्तों से अलग-अलग समय छल की शिकार होती है. इसमें पठनीयता का सुख है.
संग्रह की आख़िरी कहानी ‘तुम्हारी लंगी' काफी संवेदनशील कहानी है- कई लिहाज से जटिल कहानी. यहां फिर नायिका विकलांग है. नाम पूछने पर वह बताती है- लंगी यानी लंगड़ी. अपनी विकलांगता को लेकर बहुत सहज ढंग से जी रही इस लड़की के हिस्से संस्कृत की पढ़ाई है और कुब्जा की कहानी की स्मृति जिसे कृष्ण ने सुंदर बना दिया था. अपनी बुनावट में कई बार कृत्रिमता का आभास देने के बावजूद कहानी को कृत्रिम मानने की इच्छा नहीं होती- यह भी इसकी कामयाबी है. इस लड़की के जीवन में एक लड़का आता है- इस आधुनिक कुब्जा का कृष्ण- जो उसे बदल डालता है. इस बदलाव के साथ अपने पढ़ने की ज़िद लिए यह लड़की एक फेलोशिप के सहारे अमेरिका तक पहुंचती है, लेकिन अंततः विवाह का प्रस्ताव ठुकरा देती है. यहां भी उसका अपना एक तर्क है, जो अगर लेखिका का भी हो तो हर्ज की बात नहीं. वैसे इस लंबी कहानी के बीच यह हूक पैदा करने वाला बहुत विश्वसनीय चित्रण मिलता है कि एक विकलांग स्त्री या पुरुष को किसी आम व्यवस्था में कैसी दिक्कतें आ सकती हैं- बस में बैठने, बस से उतरने, स्कूल या कॉलेज जाने या पब्लिक बाथरूम का इस्तेमाल करने तक में.
यह संग्रह बताता है कि लेखिका के पास कई सारी कहानियां भी हैं और उनको कहने का कौशल भी. बेशक, कहानियों के बहुत सारे किरदार लेखिका के अपने गढ़े हुए मालूम पड़ते हैं- उसकी चुनी हुई स्थितियों में उसकी भाषा बोलते- और कोई सख़्त आलोचकीय दृष्टि इसे इन कहानियों की सीमा बता सकती है, लेकिन वह सीमा है नहीं. बल्कि एकाधिक जगह लेखिका बहुत सफलता से इसका अतिक्रमण भी करती दिखाई पड़ती है. उसके पास सरल-सहज भाषा है जिसमें जीवन की खुशियां और तकलीफ़ें, उसके सुख-दुख और अंतर्द्वंद्व लगभग सटीक ढंग से अभिव्यक्त हो जाते हैं. यह बात कुछ हैरान करती है कि अपने सीमित अनुभव संसार के भीतर लेखिका ने जीवन में अलग-अलग विडंबनाओं की कितनी सारी कहानियां पहचानी और लिख डाली हैं.
बेशक, कुछ कहानियों में शिल्प के स्तर पर हल्का ढीलापन दिखाई पड़ता है, कुछ तार कसने की इच्छा होती है. यह भी कहा जा सकता है कि ये बहुत विराट फलक और उदात्त आशयों वाली कहानियां नहीं हैं (वैसे भी ऐसी कहानियां हिंदी में कितनी हैं). लेकिन ये पठनीय कहानियां हैं जो हमारी जड़ और अपाहिज हो रही सोच और लगभग सोई हुई संवेदना को झटका देते हुए हमें कुछ संवेदनशील बना सकती हैं. लेखिका को उनके इस पहले संग्रह के लिए बधाई.
तुम्हारी लंगी : कंचन सिंह चौहान; राजपाल प्रकाशन; 160 पृष्ठ; 225 रुपये
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