यह अंदाज़ा था कि गीताश्री जब उपन्यास लिखेंगी तो कोई स्त्री-गाथा उसके केंद्र में होगी. 'हसीनाबाद' को पढ़ते हुए इस स्तर पर उनसे निराशा नहीं होती. उनके उपन्यास के केंद्र में गोलमी नाम की एक युवा नृत्यांगना है जो 'सपने देखती नहीं बुनती है'. गोलमी को नृत्य विरासत में मिला है - लेकिन अर्जित उसने बगावत से किया है. एक ठाकुर की वाग्दत्ता रही और किसी तरह उसके चंगुल से निकल भागी सुंदरी चाहती है कि बेटी बीए पास करके कोई नौकरी करे और इज़्ज़त की ज़िंदगी जिए, लेकिन गोलमी के लिए जीवन का मतलब नर्तन है, घुंघरू है और नृत्य महोत्सव में जाने का सपना है.
उपन्यास की शुरुआत बहुत दिलचस्प है. लगता है, गीताश्री स्त्री-पुरुष रिश्तों और प्रेम और महत्वाकांक्षा के बीच के द्वंद्व की एक कहानी कहने जा रही हैं. लेकिन जल्दी ही समझ में आ जाता है कि उनकी दिलचस्पी अपनी नायिका के संघर्ष में है. यह संघर्ष दरअसल एक पीढ़ी पहले ही शुरू हो चुका है. ठाकुरों की अय्याशी की वजह से बसी बस्ती हसीनाबाद में ठाकुर सजावल सिंह की रखैल सुंदरी अपने घुटते वर्तमान और डराते भविष्य से बच कर एक दिन भाग निकलती है- अपनी बेटी गोलमी को साथ लिए और अपने बेटे रमेश को पीछे छोड़कर. इस पलायन में उसका साथी और साझेदार होता है सगुन महतो, जो शादीशुदा है लेकिन सुंदरी के प्रति वचनबद्ध कि वह उसका और उसकी बेटी का खयाल रखेगा.
सगुन महतो अपना वचन निभाता है. गोलमी अपनी मां के लगातार एतराज़ के बावजूद अंततः नृत्य की ओर ही जाती है, अपनी मंडली बनाती है और एक दिन अपने गांव से निकल कर पटना पहुंच जाती है. यहां वह राजनीति के क़रीब आती है, केंद्र सरकार में मंत्री तक बन जाती है. लेकिन अंततः सब छोड़छाड़ कर वह अपने नृत्य की दुनिया में एक दिन लौट आती है.
इस स्थूल कथा के आसपास कई उपकथाएं भी हैं- सुंदरी की, सजावल सिंह की, रामबालक सिंह की, चुनावी राजनीति की, गोलमी के दो प्रेमियों के द्वंद्व की और गोलमी की एक सहेली रज्जो की. गीताश्री के पास सहज भाषा है जिसमें वे ये सारी कहानियां जोड़ती और कहती चलती हैं. गांव-समाज का माहौल रचने में उनको मुश्किल नहीं होती. यह उनके लेखन को पठनीय बनाती है. गोलमी की छटपटाहट, उसके द्वंद्व, उसका आगे बढ़ना, खिलना- सब अच्छा लगता है.
लेकिन फिर भी कुल उपन्यास से शिकायत के कई स्तर रह जाते हैं. उपन्यास का पूर्वार्द्ध जिस सहजता से बढ़ता है, उत्तरार्द्ध उसका संवहन नहीं करता. ख़ासकर रजनीतिक इलाक़े में जैसे गीताश्री बहुत सहमे-सहमे अंदाज़ में क़दम रखती हैं. आप नब्बे के बाद भी भारतीय राजनीति में अपना उपन्यास रोपें और राजनीतिक दलों-प्रवृत्तियों की चर्चा न करें- यह बात कुछ हैरान करती है. रामबालक सिंह किस राजनीतिक दल के हैं या उनके प्रतिद्वंद्वी रामखेलावन किस पार्टी के हैं- इसका बस अंदाज़ा लगाना पड़ता है. बस यह पहले से चली आ रही सरलीकृत धारणा भर पुष्ट होती है कि भारतीय राजनीति में कितनी गिरावट है, मूल्यहीनता है, खींचतान है, और अब भूराबाल जैसे नारे भी हैं. शायद लेखिका की कोशिश अपने उपन्यास को सीधे राजनीतिक दख़ल से बचाए रखने की है. लेकिन दिक्कत तब होती है जब उपन्यास में सीधे 11वीं-12वीं लोकसभा का उल्लेख चला आता है. इस तथ्यात्मकता के बाद लोगों को नाम याद आने लगते हैं. यह इतिहास इतना नया है कि गोलमी की कहानी की काल्पनिकता अचानक तथ्य में बदल जाती है. वैशाली से रघुवंश प्रताप सिंह उस दौर में चुनाव जीतते रहे. लेकिन 1998 में गोलमी जीतती है और संस्कृति मंत्री बना दी जाती है- यानी वाजपेयी सरकार में वह मंत्री थी. वह इस्तीफ़ा देने सात, रेसकोर्स रोड जाती है. यहां प्रधानमंत्री से उसकी बातचीत में प्रधानमंत्री बहुत हल्के दिखाई पड़ते हैं.
कुल मिलाकर लगता है कि इस राजनीति में पांव रखते ही गीताश्री तय नहीं कर पाईं कि सच और कल्पना को ऐसे किस तरह मिलाएं कि उसका द्वंद्व उपन्यास को बाधित न करे. इस उलझन का हल वे अंत तक नहीं खोज पाईं. अगर खोजतीं तो पातीं कि शायद गोलमी के लिए राजनीति का रास्ता इतना आसान नहीं है. बिहार की राजनीति- या कहें- भारतीय राजनीति में भी- स्त्रियों के प्रवेश की हक़ीक़त इतनी उजली नहीं रही है. बिहार में अस्सी के दशक की श्वेतनिशा त्रिवेदी से लेकर राजस्थान में इक्कीसवीं सदी की भंवरी देवी की दास्तान एक जैसी है- बीच में नैना साहनी से लेकर मधुमिता शुक्ला तक ऐसी ढेर सारी लड़कियां हैं जो बेमौत मारी गईं.
इस डरावनी गली में गोलमी को मरना ही होता- यह ज़रूरी नहीं था, लेकिन लेखिका ने जैसे हाथ पकड़ कर उसे सत्ता की सबसे ऊंची सीढ़ी प्रदान कर दी. इससे गोलमी का करिअर तो चमका लेकिन उपन्यास का सितारा कुछ कमजोर पड़ गया. काश कि गोलमी का यह संघर्ष कुछ ज़्यादा यथार्थवादी और ठोस होता.
दूसरी बात यह कि उपन्यास के काल क्रम में कुछ अस्पष्टता दिखती है. 1998 में गोलमी 35 साल की है- यानी वह 1963 में पैदा हुई है. जब वह बच्ची थी तब सुंदरी उसे लेकर निकल पड़ती है. लेकिन उपन्यास बताता है कि सुंदरी पर ठाकुर सजावल सिंह इस तरह मोहित थे कि उसे वे बाहर जाने नहीं देते थे- घर पर ही वीसीआर मंगा कर फिल्में दिखाया करते थे. जबकि वीसीआर अस्सी के दशक में भारत आया है. सुंदरी द्वारा सजावल सिंह के सामने गाए जिन दो फिल्मी गीतों का उल्लेख है- वे फिल्म खिलौना के हैं, जो 1970 में आई थी. यह फिर भी संभव है कि सुंदरी इसके बाद निकली हो, लेकिन यह खयाल बरबस आता है कि टाइमिंग को लेकर लेखिका बहुत सचेत नहीं है. यह बात तब भी दिखती है जब वह बताती है कि गोलमी की मंडली की रज्जो उसकी प्रस्तुतियों के वीसीडी तैयार रखती थी. वीसीडी भी भारत में बहुत बाद में प्रचलित हुए. शायद लेखिका वीडियो कैसेट की बत कर रही है.
यह अधैर्य सामयिकता को लेकर ही नहीं, संबंधों को लेकर भी दिखता है. बरसों बाद हसीनाबाद लौटी सुंदरी को वहां अपने बेटे रमेश का खयाल तक नहीं आता. उपन्यास में रमेश की कसक को ठीक से उभारने के बावजूद जैसे गीता इस आखिरी मोड़ पर उसे भूल जाती हैं या छो़ड़ देती हैं.
यह अधूरापन अगर न होता तो उपन्यास कहीं ज़्यादा गहरा होता.
हसीनाबाद: गीताश्री, वाणी प्रकाशन; 250 रुपये.
उपन्यास की शुरुआत बहुत दिलचस्प है. लगता है, गीताश्री स्त्री-पुरुष रिश्तों और प्रेम और महत्वाकांक्षा के बीच के द्वंद्व की एक कहानी कहने जा रही हैं. लेकिन जल्दी ही समझ में आ जाता है कि उनकी दिलचस्पी अपनी नायिका के संघर्ष में है. यह संघर्ष दरअसल एक पीढ़ी पहले ही शुरू हो चुका है. ठाकुरों की अय्याशी की वजह से बसी बस्ती हसीनाबाद में ठाकुर सजावल सिंह की रखैल सुंदरी अपने घुटते वर्तमान और डराते भविष्य से बच कर एक दिन भाग निकलती है- अपनी बेटी गोलमी को साथ लिए और अपने बेटे रमेश को पीछे छोड़कर. इस पलायन में उसका साथी और साझेदार होता है सगुन महतो, जो शादीशुदा है लेकिन सुंदरी के प्रति वचनबद्ध कि वह उसका और उसकी बेटी का खयाल रखेगा.
सगुन महतो अपना वचन निभाता है. गोलमी अपनी मां के लगातार एतराज़ के बावजूद अंततः नृत्य की ओर ही जाती है, अपनी मंडली बनाती है और एक दिन अपने गांव से निकल कर पटना पहुंच जाती है. यहां वह राजनीति के क़रीब आती है, केंद्र सरकार में मंत्री तक बन जाती है. लेकिन अंततः सब छोड़छाड़ कर वह अपने नृत्य की दुनिया में एक दिन लौट आती है.
इस स्थूल कथा के आसपास कई उपकथाएं भी हैं- सुंदरी की, सजावल सिंह की, रामबालक सिंह की, चुनावी राजनीति की, गोलमी के दो प्रेमियों के द्वंद्व की और गोलमी की एक सहेली रज्जो की. गीताश्री के पास सहज भाषा है जिसमें वे ये सारी कहानियां जोड़ती और कहती चलती हैं. गांव-समाज का माहौल रचने में उनको मुश्किल नहीं होती. यह उनके लेखन को पठनीय बनाती है. गोलमी की छटपटाहट, उसके द्वंद्व, उसका आगे बढ़ना, खिलना- सब अच्छा लगता है.
लेकिन फिर भी कुल उपन्यास से शिकायत के कई स्तर रह जाते हैं. उपन्यास का पूर्वार्द्ध जिस सहजता से बढ़ता है, उत्तरार्द्ध उसका संवहन नहीं करता. ख़ासकर रजनीतिक इलाक़े में जैसे गीताश्री बहुत सहमे-सहमे अंदाज़ में क़दम रखती हैं. आप नब्बे के बाद भी भारतीय राजनीति में अपना उपन्यास रोपें और राजनीतिक दलों-प्रवृत्तियों की चर्चा न करें- यह बात कुछ हैरान करती है. रामबालक सिंह किस राजनीतिक दल के हैं या उनके प्रतिद्वंद्वी रामखेलावन किस पार्टी के हैं- इसका बस अंदाज़ा लगाना पड़ता है. बस यह पहले से चली आ रही सरलीकृत धारणा भर पुष्ट होती है कि भारतीय राजनीति में कितनी गिरावट है, मूल्यहीनता है, खींचतान है, और अब भूराबाल जैसे नारे भी हैं. शायद लेखिका की कोशिश अपने उपन्यास को सीधे राजनीतिक दख़ल से बचाए रखने की है. लेकिन दिक्कत तब होती है जब उपन्यास में सीधे 11वीं-12वीं लोकसभा का उल्लेख चला आता है. इस तथ्यात्मकता के बाद लोगों को नाम याद आने लगते हैं. यह इतिहास इतना नया है कि गोलमी की कहानी की काल्पनिकता अचानक तथ्य में बदल जाती है. वैशाली से रघुवंश प्रताप सिंह उस दौर में चुनाव जीतते रहे. लेकिन 1998 में गोलमी जीतती है और संस्कृति मंत्री बना दी जाती है- यानी वाजपेयी सरकार में वह मंत्री थी. वह इस्तीफ़ा देने सात, रेसकोर्स रोड जाती है. यहां प्रधानमंत्री से उसकी बातचीत में प्रधानमंत्री बहुत हल्के दिखाई पड़ते हैं.
कुल मिलाकर लगता है कि इस राजनीति में पांव रखते ही गीताश्री तय नहीं कर पाईं कि सच और कल्पना को ऐसे किस तरह मिलाएं कि उसका द्वंद्व उपन्यास को बाधित न करे. इस उलझन का हल वे अंत तक नहीं खोज पाईं. अगर खोजतीं तो पातीं कि शायद गोलमी के लिए राजनीति का रास्ता इतना आसान नहीं है. बिहार की राजनीति- या कहें- भारतीय राजनीति में भी- स्त्रियों के प्रवेश की हक़ीक़त इतनी उजली नहीं रही है. बिहार में अस्सी के दशक की श्वेतनिशा त्रिवेदी से लेकर राजस्थान में इक्कीसवीं सदी की भंवरी देवी की दास्तान एक जैसी है- बीच में नैना साहनी से लेकर मधुमिता शुक्ला तक ऐसी ढेर सारी लड़कियां हैं जो बेमौत मारी गईं.
इस डरावनी गली में गोलमी को मरना ही होता- यह ज़रूरी नहीं था, लेकिन लेखिका ने जैसे हाथ पकड़ कर उसे सत्ता की सबसे ऊंची सीढ़ी प्रदान कर दी. इससे गोलमी का करिअर तो चमका लेकिन उपन्यास का सितारा कुछ कमजोर पड़ गया. काश कि गोलमी का यह संघर्ष कुछ ज़्यादा यथार्थवादी और ठोस होता.
दूसरी बात यह कि उपन्यास के काल क्रम में कुछ अस्पष्टता दिखती है. 1998 में गोलमी 35 साल की है- यानी वह 1963 में पैदा हुई है. जब वह बच्ची थी तब सुंदरी उसे लेकर निकल पड़ती है. लेकिन उपन्यास बताता है कि सुंदरी पर ठाकुर सजावल सिंह इस तरह मोहित थे कि उसे वे बाहर जाने नहीं देते थे- घर पर ही वीसीआर मंगा कर फिल्में दिखाया करते थे. जबकि वीसीआर अस्सी के दशक में भारत आया है. सुंदरी द्वारा सजावल सिंह के सामने गाए जिन दो फिल्मी गीतों का उल्लेख है- वे फिल्म खिलौना के हैं, जो 1970 में आई थी. यह फिर भी संभव है कि सुंदरी इसके बाद निकली हो, लेकिन यह खयाल बरबस आता है कि टाइमिंग को लेकर लेखिका बहुत सचेत नहीं है. यह बात तब भी दिखती है जब वह बताती है कि गोलमी की मंडली की रज्जो उसकी प्रस्तुतियों के वीसीडी तैयार रखती थी. वीसीडी भी भारत में बहुत बाद में प्रचलित हुए. शायद लेखिका वीडियो कैसेट की बत कर रही है.
यह अधैर्य सामयिकता को लेकर ही नहीं, संबंधों को लेकर भी दिखता है. बरसों बाद हसीनाबाद लौटी सुंदरी को वहां अपने बेटे रमेश का खयाल तक नहीं आता. उपन्यास में रमेश की कसक को ठीक से उभारने के बावजूद जैसे गीता इस आखिरी मोड़ पर उसे भूल जाती हैं या छो़ड़ देती हैं.
यह अधूरापन अगर न होता तो उपन्यास कहीं ज़्यादा गहरा होता.
हसीनाबाद: गीताश्री, वाणी प्रकाशन; 250 रुपये.
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