झारखंड विधानसभा चुनाव को लेकर तैयारियों जोरों पर हैं. तमाम राजनीतिक दल जनता तक अपने वादों और अपनी बातों को पहुंचाने के लिए जमकर प्रचार अभियान चला रहे हैं. NDTV भी इन दिनों झारखंड विधानसभा चुनाव के दौरान अलग-अलग हिस्सों में जाकर उन कहानियों को ढूंढ़ने में जुटा है, जिनके जीवन पर इस चुनाव का बड़ा असर पड़ सकता है. इसी क्रम में NDTV ने मथुरा रविदास और मुन्ना यादव जैसे कोयला मजदूरों की कहानी भी सुनी और उनके दर्द को समझने की कोशिश की. आइये आपको बताते हैं कि आखिर उन्होंने NDTV से क्या कुछ साझा किया...
“मेरा नाम मथुरा रविदास है, और मैं बोकारो के असुरबंध में रहता हूं. हर 3-4 दिन में, मैं गूंजरडीह जाता हूं, अपनी साइकिल पर कोयला लादकर. यह 6 मन होता है, लगभग 240 किलोग्राम। मैं इस कोयले को 600-650 रुपये में खरीदता हूँ और 900 रुपये में बेचता हूं. मुनाफा बहुत नहीं है, लेकिन इससे मेरा गुजारा हो जाता है. मेरे छह बच्चे हैं; वे गाँव के स्कूल में पढ़ते हैं, और मैं ही एकमात्र कमाने वाला हूं. यहां और कोई रोजगार नहीं है.
कई बार चढ़ाई इतनी कठिन होती है, और भार इतना कि मैं लड़खड़ा जाता हूँ और चोट लगती है, गांव लौटने में 6-7 घंटे लगते हैं ... मेरे दिल में मेरे बच्चों के लिए एक बेहतर जीवन की ख्वाहिश रहती है. चुनावों में एमएलए रोजगार का वादा करते हैं, लेकिन जीतने के बाद वो गायब हो जाते हैं। फिर भी, चुनाव में हम बटन दबा देते हैं, क्योंकि यही हमारे पास है - शायद एक गलत आशा, लेकिन आशा फिर भी.
राहुल गांधी नाम को मैं नहीं जानता, जो हाल ही में आए और हमारे जैसे कोयले से लदी साइकिल को धकेलने की कोशिश की अच्छा लगा कि किसी ने ध्यान दिया, लेकिन हम अभी भी असली बदलाव का इंतजार कर रहे हैं. हर दिन हम अपनी जान जोखिम में डालते हैं, इस उम्मीद में कि किसी दिन इस भार को उठाने का दर्द कम हो जाएगा.
मेरा नाम मुन्ना यादव है. मैं 50 साल का हूं, और रात 2 बजे गिरिडीह से निकला हूँ, छोटकी खरगडीहा में कोयला बेचने के लिए. मैंने अपनी साइकिल पर 15 टोकरियाँ कोयले की लादी हैं, लगभग 300 किलोग्राम. यह लगभग 8 घंटे की पैदल यात्रा होती है. एक टोकरी कोयला 120 रुपये में खरीदता हूँ और 220 रुपये में बेचता हूं. हमारे परिवार में 8 लोग हैं, और खर्चा निकालकर, मुझे हर यात्रा से 500-600 रुपये मिलते हैं.
यह काम मैं 20 साल से कर रहा हूं, अब उम्र होने लगी है तो यह और कठिन हो गया है. रात के अंधेरे में उठता हूं, भारी बोझ के साथ लड़खड़ाता हूं. कई बार गिर भी जाता हूं, हर चुनाव में सोचता हूं कि शायद इस बार एमएलए कुछ ऐसा करेगा जिससे मुझे यह काम छोड़ने का मौका मिल जाए. लेकिन चुनाव के बाद, उनके वादे हवा में उड़ जाते हैं, और हम उसी कठिन रास्ते पर चलते रहते हैं.
मेरे गांव में लगभग 100-150 लोग यही काम करते हैं. बीमार होने पर हम बेंगाबाद के सदर अस्पताल जाते हैं क्योंकि हमारे पास आस-पास कोई अस्पताल नहीं है. मैं एक ऐसे जीवन का सपना देखता हूं जहां मुझे यह भार नहीं उठाना पड़े और मेरे बच्चों के लिए बेहतर विकल्प हों. जो भी सरकार बनाए, मेरी यही उम्मीद है कि वे हमें सुने और हमें असली काम दें. तब तक, हम एक-दूसरे के साथ इस बोझ को ढोते रहेंगे.
झारखंड के गिरिडीह जिले के हजारों ग्रामीणों के लिए जीविका का संघर्ष हर दिन एक कठिन परीक्षा की तरह है. हर दिन ये ग्रामीण सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड की खाली, छोड़ी हुए खदानों में जाते हैं, जहां वे अपनी जान जोखिम में डालकर कोयला निकालते हैं. इस कोयले को साइकिलों पर लादकर ये लोग 7-8 घंटे की कठिन यात्रा पर निकलते हैं. इसके बदले इन्हें हर बार 600-700 रुपये ही मिलते हैं, जो उनके जीवन यापन के लिए किसी तरह चल जाता है लेकिन उनके हालात को बदलने के लिए नहीं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हाल ही में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान इनकी समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया, जब उन्होंने एक भारी कोयले से लदी साइकिल को धकेला.
हालांकि, उनके इस कदम और झारखंड सरकार में कांग्रेस की भूमिका के बावजूद, इन ‘साइकिल कोयला मजदूरों' का जीवन आज भी उतना ही कठिन और अनिश्चित है. इनके साथ ही एक समानांतर अर्थव्यवस्था भी चल रही है, जिसमें बाइक सवार 100 रुपये लेकर साइकिलों को चढ़ाई पर धकेलने में मदद करते हैं.
झारखंड में देश के कुल खनिज भंडार का लगभग 40% और कोयले का 27.3% हिस्सा है, जो इसे देश का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक राज्य बनाता है. कोयला-निर्भर समुदायों की चुनौतियों को समझने और समाधान सुझाने के लिए राज्य ने नवंबर 2022 में जस्ट ट्रांजिशन टास्क फोर्स की स्थापना की थी. लेकिन इन प्रयासों के बावजूद, कोयला बेल्ट के ये मजदूर अभी भी अदृश्य हैं - अधिकांशतः संगठित या असंगठित क्षेत्रों में गिने नहीं जाते. मथुरा रविदास और मुन्ना यादव की कहानी झारखंड के कोयला मजदूरों की खामोश संघर्ष को बताते हैं, बताते हैं कि चुनावी सफर और चकाचौंध में इनके जीवन में घुप सा अंधेरा है, जैसे कोई है ही नहीं .
मथुरा, मुन्ना, और उन जैसे हजारों लोग कठिन रास्तों पर चलते हैं, केवल कोयला ही नहीं, बल्कि पीढ़ियों की उपेक्षा का भार उठाते हुए. उन्हें संगठित या असंगठित श्रमिकों के रूप में नहीं गिना जाता; वे अदृश्य हैं. उनके लिए, जीविका केवल दैनिक मजदूरी का सवाल नहीं है; यह परिवार और आशा के प्रति एक आजीवन प्रतिबद्धता है. उनकी आवाजें कोयले के पहाड़ों में, कोयले की खदान में, सुरंग में अनसुनी गूंजती हैं, लेकिन शायद सुनने वाला कोई नहीं .ये कोयला मजदूर एक अनौपचारिक श्रम शक्ति का हिस्सा हैं जो कोयला बीनते और बेचते हैं ताकि वे जीवित रह सकें.
झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के कोयला-समृद्ध इलाकों में ऐसे श्रमिकों की संख्या का कोई स्पष्ट अनुमान नहीं है. इनकी आवाजें अनसुनी गूंजती हैं, लेकिन खो जाती हैं, इन कोयला मजदूरों के लिए, जीविका श्रम और बलिदान का एक न खत्म होने वाला चक्र है. उनकी कहानियां हमें हमारी ऊर्जा जरूरतों के पीछे की मानवीय कीमत याद दिलाती हैं. ये सिर्फ कोयला ढोने वाले नहीं हैं; ये वे पुरुष और महिलाएं हैं जो अपने जीवित रहने का बोझ ढोते हैं , भारत के खनिज संपदा के केंद्र में एक अदृश्य श्रम शक्ति शायद किसी को इनकी याद नहीं, तभी तो ये किसी चुनावी वायदे का हिस्सा नहीं हैं, किसी घोषणापत्र में इन्हें जगह नहीं मिली.
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