अजित सिंह की पार्टी का पश्चिमी यूपी के 12 जिलों में अच्छा असर माना जाता है।
लखनऊ:
उत्तर प्रदेश के राजनेता अजित सिंह अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए फिर अपने लिए सहयोगी तलाश रहे हैं। राज्य में वे लगभग हर पार्टी के साथ सहयोगी की भूमिका में रह चुके हैं। हालांकि 'चंचल साझेदार' की छवि के कारण इस बार अभी तक उनकी यह 'तलाश' पूरी नहीं हो पाई है।
जानकारी के मुताबिक समाजवादी पार्टी और बीजेपी जैसे बड़े 'खिलाड़ियों' ने अजित सिंह से कहा है कि उन्हें (अजित को) अपनी पार्टी का उनके साथ विलय करना होगा ताकि चुनाव के बाद 'निष्ठा डगमगाने' जैसी स्थिति से बचा जा सके। दरअसल अजित के ट्रैक रिकॉर्ड ने उन्हें ऐसा रुख अपनाने को विवश किया है।
अजित सिंह केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में मंत्री रह चुके हैं। इसी तरह, यूपी में उनकी पार्टी, दो प्रबल विरोधी पार्टियों समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी की सहयोगी रह चुकी है। रविवार को अजित सिंह की सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ बातचीत रालोद की मौजूदा सीटों की संख्या के कारण अंजाम तक नहीं पहुंच पाई । 403 सदस्यीय यूपी विधानसभा में इस समय अजित सिंह की पार्टी के महज 9 विधायक हैं जबकि संसद में उनका एक भी सांसद नहीं है।
राष्ट्रीय लोकदल के नेताओं ने कहा कि जाटों की बहुलता वाले यूपी के 12 जिलों की 60 विधानसभा सीटों में उनकी पार्टी निर्णायक भूमिका में है। करीब एक दशक पहले अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की छवि के कारण अजित सिंह की पार्टी का यूपी के जाटों पर अच्छा खासा असर था। लेकिन 'चौधरी साहब' के निधन और 2014 के आम चुनाव में इस पार्टी के कमजोर प्रदर्शन के कारण स्थिति पहले जैसी नहीं रह गई है। लोकसभा चुनाव में रालोद यूपी में एक भी सीट नहीं जीत पाया था।
इसके बावजूद क्षेत्र में अजित सिंह का असर पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता। ऐसा माना जा रहा है कि यूपी विधानसभा चुनाव में नजदीकी मुकाबले की स्थिति में (जिसकी पूरी संभावना है) किसी भी पार्टी को अजित का समर्थन निर्णायक भूमिका निभा सकता है। समाजवादी पार्टी के एक नेता ने कहा, 'एसपी के समर्थन से रालोद सीटें जीत सकती है। लेकिन यदि अजित सिंह कुछ सीटें जीत भी जाते हैं तो इस बात की गारंटी नहीं है कि वे सपा के साथ ही खड़े रहेंगे। यदि बीएसपी या बीजेपी सरकार बनाने के करीब होती हैं तो अजित अपनी निष्ठा बदल सकते हैं।'
जानकारी के मुताबिक समाजवादी पार्टी और बीजेपी जैसे बड़े 'खिलाड़ियों' ने अजित सिंह से कहा है कि उन्हें (अजित को) अपनी पार्टी का उनके साथ विलय करना होगा ताकि चुनाव के बाद 'निष्ठा डगमगाने' जैसी स्थिति से बचा जा सके। दरअसल अजित के ट्रैक रिकॉर्ड ने उन्हें ऐसा रुख अपनाने को विवश किया है।
अजित सिंह केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में मंत्री रह चुके हैं। इसी तरह, यूपी में उनकी पार्टी, दो प्रबल विरोधी पार्टियों समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी की सहयोगी रह चुकी है। रविवार को अजित सिंह की सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ बातचीत रालोद की मौजूदा सीटों की संख्या के कारण अंजाम तक नहीं पहुंच पाई । 403 सदस्यीय यूपी विधानसभा में इस समय अजित सिंह की पार्टी के महज 9 विधायक हैं जबकि संसद में उनका एक भी सांसद नहीं है।
राष्ट्रीय लोकदल के नेताओं ने कहा कि जाटों की बहुलता वाले यूपी के 12 जिलों की 60 विधानसभा सीटों में उनकी पार्टी निर्णायक भूमिका में है। करीब एक दशक पहले अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की छवि के कारण अजित सिंह की पार्टी का यूपी के जाटों पर अच्छा खासा असर था। लेकिन 'चौधरी साहब' के निधन और 2014 के आम चुनाव में इस पार्टी के कमजोर प्रदर्शन के कारण स्थिति पहले जैसी नहीं रह गई है। लोकसभा चुनाव में रालोद यूपी में एक भी सीट नहीं जीत पाया था।
इसके बावजूद क्षेत्र में अजित सिंह का असर पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता। ऐसा माना जा रहा है कि यूपी विधानसभा चुनाव में नजदीकी मुकाबले की स्थिति में (जिसकी पूरी संभावना है) किसी भी पार्टी को अजित का समर्थन निर्णायक भूमिका निभा सकता है। समाजवादी पार्टी के एक नेता ने कहा, 'एसपी के समर्थन से रालोद सीटें जीत सकती है। लेकिन यदि अजित सिंह कुछ सीटें जीत भी जाते हैं तो इस बात की गारंटी नहीं है कि वे सपा के साथ ही खड़े रहेंगे। यदि बीएसपी या बीजेपी सरकार बनाने के करीब होती हैं तो अजित अपनी निष्ठा बदल सकते हैं।'