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This Article is From Dec 21, 2023

"पति के लिए उसके जीवित रहते अपनी पत्नी को विधवा के रूप में देखने से अधिक कष्टदायक": दिल्ली हाईकोर्ट

पति ने पारिवारिक अदालत में तलाक की याचिका दायर की थी और दावा किया था कि वैवाहिक जीवन की शुरुआत से ही उसकी पत्नी उसके प्रति उदासीन थी और उसे अपने वैवाहिक दायित्वों के निर्वहन में कोई दिलचस्पी नहीं थी.

"पति के लिए उसके जीवित रहते अपनी पत्नी को विधवा के रूप में देखने से अधिक कष्टदायक": दिल्ली हाईकोर्ट
प्रतीकात्मक तस्वीर

नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी पति के लिए उसके जीवित रहते अपनी पत्नी को विधवा के रूप में देखने से अधिक कष्टदायक कुछ और नहीं हो सकता और इस प्रकार का व्यवहार ‘‘अत्यधिक क्रूरता'' के समान है. अदालत ने कहा कि यदि पति या पत्नी में से कोई भी अपने जीवनसाथी को वैवाहिक संबंध से वंचित करता है तो विवाह टिक नहीं सकता और ऐसा करना क्रूरता है.

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा की पीठ ने कहा, ‘‘किसी पति के लिए उसके जीवित रहते अपनी पत्नी को विधवा के रूप में देखने से अधिक कष्टदायक कुछ और नहीं हो सकता तथा वह भी खासकर ऐसी स्थिति में, जब वह गंभीर रूप से घायल हो और उसे अपने जीवनसाथी से देखभाल एवं करुणा के अलावा और किसी चीज की उम्मीद नहीं हो.

निस्संदेह, याचिकाकर्ता/पत्नी के ऐसे आचरण को प्रतिवादी/पति के प्रति अत्यधिक क्रूरता का कार्य ही कहा जा सकता है.'' उच्च न्यायालय ने महिला की याचिका को खारिज करते हुए यह फैसला दिया. महिला ने पति के पक्ष में तलाक की अनुमति देने के पारिवारिक अदालत के निर्णय को उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी. निचली अदालत ने भी कहा था कि महिला ने अपने पति के प्रति क्रूर व्यवहार किया.

उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों से यह साबित होता है कि पक्षकारों के बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं है और इतने लंबे अलगाव, झूठे आरोपों, पुलिस रिपोर्ट और आपराधिक मुकदमे को केवल मानसिक क्रूरता कहा जा सकता है.''

उसने कहा, ‘‘पक्षकारों के बीच वैवाहिक कलह इस हद तक बढ़ गई है कि दोनों पक्षों के बीच विश्वास, समझ, प्यार और स्नेह पूरी तरह खत्म हो गया है. मर चुका यह रिश्ता कटुता, न सुलझ सकने वाले मतभेदों और लंबी मुकदमेबाजी में फंस गया है तथा इस रिश्ते को बनाए रखने की जिद दोनों पक्षों के खिलाफ केवल और अधिक क्रूरता बढ़ाएगी.''

इसमें कहा गया है कि किसी भी वैवाहिक रिश्ते का आधार एकसाथ रहना और वैवाहिक संबंध होता है. इस जोड़े की शादी अप्रैल 2009 में हुई थी और अक्टूबर 2011 में उनकी एक बेटी का जन्म हुआ. महिला ने बच्ची को जन्म देने से कुछ दिन पहले अपनी ससुराल छोड़ दी थी.

पति ने पारिवारिक अदालत में तलाक की याचिका दायर की थी और दावा किया था कि वैवाहिक जीवन की शुरुआत से ही उसकी पत्नी उसके प्रति उदासीन थी और उसे अपने वैवाहिक दायित्वों के निर्वहन में कोई दिलचस्पी नहीं थी.

उन्होंने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी ने घर का काम करने से इनकार कर दिया जिसके बाद पति के पिता को भोजन पकाने जैसे नियमित कार्य करने के लिए मजबूर होना पड़ा. महिला ने पति द्वारा लगाए गए आरोपों को खारिज किया है.

पति ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी छोटी-छोटी बातों पर नाराज हो जाती थी और उसके परिवार से झगड़ा करती थी. उसने दावा किया कि एक बार उसने ‘करवाचौथ' का व्रत रखने से इसलिए इनकार कर दिया था क्योंकि पति ने उसका मोबाइल फोन रिचार्ज नहीं करवाया था. हिंदू विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र और सलामती के लिए व्रत रखती हैं.

पति ने कहा कि अप्रैल 2011 में जब उसे स्लिप डिस्क की समस्या हुई, तो उसकी पत्नी ने उसकी देखभाल करने के बजाय अपने माथे से सिंदूर हटा दिया, अपनी चूड़ियां तोड़ दीं और सफेद सूट पहन लिया और घोषणा की कि वह विधवा हो गई है.

उच्च न्यायालय ने इस घटना को ‘‘वैवाहिक रिश्ते को अस्वीकार करने का एक अंतिम कदम'' करार दिया, लेकिन पीठ ने स्पष्ट किया कि ‘करवाचौथ' पर उपवास रखना या न रखना व्यक्तिगत पसंद हो सकती है और अगर निष्पक्षता से विचार किया जाए तो इसे क्रूरता का कार्य नहीं कहा जा सकता है.

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(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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