नमस्कार मैं रवीश कुमार। वैसे तो चटखारे सा मज़ा नटवर सिंह की मोटी सी किताब की उन पंक्तियों में है जिसमें वे दस साल बाद सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री न बनने का प्रसंग बयां कर रहे हैं। राजनीति के हाशिये पर धकेले जा चुके नटवर सिंह की मीडिया वापसी इस किताब से हो गई है।
राजनेता इतिहास भी बनाता है और इतिहासकार भी बन जाता है। वहीं फुटनोट्स होता है और वहीं पूरा का पूरा चैप्टर। मीडिया के इस नटवरकाल में नैतिकता के शिखर पर हैं नटवर सिंह और पायदान पर हैं उनके किरदार। सत्ता संबंध बदलते ही लेखक और किरदारों के संबंध भी बदल जाते हैं। इस किताब के चक्कर में सोनिया गांधी ने भी कह दिया कि वे भी किताब लिखेंगी। उन्हें अब ऐसी बातों से फर्क नहीं पड़ता, मगर उस किताब में जवाब देंगी।
मनमोहन सिंह ने संजय बारू की किताब के बाद ऐसा कुछ नहीं कहा था वर्ना मार्केट में एक किताब और आ जाती। वैसे आज उन्होंने कहा है कि दो लोगों के बीच की बात को अपने फायदे के लिए बाहर नहीं लाना चाहिए। दिग्विजय सिंह ने कहा है कि नटवर सिंह के बेटे बीजेपी के विधायक हैं इसलिए उन्होंने ये किताब लिखी है। नटवर सिंह ने लिखा है कि किस तरह सोनिया गांधी निरंकुश और अलोकतांत्रिक रही हैं जबकि किसी को रिसर्च करना चाहिए कि नटवर सिंह ने लोकतांत्रिक मूल्यों की कितनी लड़ाई लड़ी है।
जब टीवी का पर्दा नटवरी प्रसंगों से गुलज़ार होगा हम बात करेंगे विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यू टी ओ में भारत के रुख को लेकर। भारत ने डबल्यू टी ओ के व्यापार सरलीकरण समझौते पर दस्तखत करने से मना कर दिया है।
वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि हम तभी साइन करेंगे जब भारत को अनाज खरीदने भंडारण करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की छूट मिलेगी वर्ना भारत व्यापार सरलीकरण समझौते पर साइन नहीं करेगा।
आज दिल्ली में डॉक्टर प्रॉनय रॉय ने अमरीका के विदेश मंत्री जॉन कैरी और वाणिज्य मंत्री पेन्नी प्रिट्ज़कर से बार बार पूछा कि भारत को अनाज जमा करने की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि हम मॉनसून का भरोसा नहीं कर सकते। कीमतों में इतना उतार चढ़ाव होता है कि भारत को स्टॉक करना पड़ता है। लिहाज़ा अमरीका क्यों नहीं भारत को अनाज भंडारण करने देता है। तो वाणिज्य मंत्री पैनी तरह तरह से जवाब टालती रहीं।
पहले कहा कि हम भारत में दोतरफा बातचीत के लिए हैं जबकि डबल्यू टी ओ बहुपक्षीय मामला है। हम भारत की बात समझते हैं, लेकिन दिसंबर में बाली में भारत ने चार साल का वक्त मांगा था और सभी सदस्य राजी हुए थे, लेकिन भारत बदल गया है। पेनी ज़ोर देती रहीं कि यह डील भारत के लिए फायदेमंद है। लेकिन डॉक्टर रॉय पूछते रहे कि अमरीका साफ स्टैंड क्यों नहीं लेता है। तब विदेश मंत्री जान कैरी को बोलना पड़ा कि दिसबंर में बाली में यही तो करार हुआ था कि अगले चार सालों तक भारत फूड सिक्योरिटी से कोई छेड़छाड़ नहीं होगी। हम फूड सिक्योरिटी को बाहर नहीं कर रहे हैं।
कैरी ने कहा कि इस वक्त भारत को यह मौका नहीं गंवाना चाहिए। उसके पास चार साल का वक्त तो है ही। कुल मिलाकर अमरीका ने इस मामले में भारत के पक्ष से दूरी ही बनाए रखा।
जबकि भारत पहुंचने पर पेन्नी प्रिट्ज़कर ने पीटीआई से साफ साफ कहा कि भारत के साइन नहीं करने पर नतीजे अच्छे नहीं होंगे। अमरीका निराश हुआ है। जो सरकार इस वादे पर चुनाव जीत कर आई हो कि वो किसानों को लागत का पचास फीसदी फायदा सुनिश्चित करेगी क्या वो ऐसा कदम उठा सकती है। एक तबका चाहता है कि भारत को दस्तखत कर देना चाहिए और दूसरा चाहता है कि नहीं करना चाहिए।
इंडियन एक्सप्रेस अखबार में सुरजीत एस भल्ला ने साइन के पक्ष में मोर्चा खोल दिया है तो देवेंद्र शर्मा ने दैनिक जागरण में लेख लिखकर। प्रकाश के रे ने प्रभात खबर में लिखकर देवेंद्र शर्मा की लाइन ली है।
सुरजीत भल्ला कहते हैं कि इस समझौते के कारण कई मुल्कों के बीच व्यापार करना आसान होगा और उपभोक्ताओं को कम कीमतों पर चीज़ें मिलेंगी। मोदी सरकार कांग्रेस सरकार की नीतियों पर चलकर इसका विरोध कर रही है।
व्यापार सरलीकरण समझौते का भारत के फूड सिक्योरिटी एक्ट से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार किसान को सब्सिडी नहीं देगी मगर गरीब जनता को सब्सिडी पर अनाज दे सकेगी। इस नीति से कुछ किसानों को लाभ हुआ मगर गरीब उपभोक्ताओं को नहीं।
देवेंद्र शर्मा का कहना है कि भारत को साइन नहीं करना चाहिए न करेगा। भारत अपने स्तर पर खेती के बाज़ार का उदारीकरण कर ही रहा है। सब्सिडी से पीछे हटने की जगह सरकारी खरीद को कम करने का निर्णय लिया है।
राज्यों से कहा है कि वे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोनस नहीं दें।
जैसे मध्यप्रदेश सरकार गेहूं पर 150 रुपये प्रति कुंतल बोनस न दे। फिर सरकार जब खुद उदारीकरण कर रही है तो डब्ल्यू टी ओ में उदारीकरण की नीति का विरोध कैसे कर सकती है।
व्यापार सरलीकरण समझौता इसलिए हो रहा है ताकि जब आप अपना माल किसी दूसरे देश में लेकर जाएं तो बहुत ज्यादा लालफीताशाही का सामना न करना पड़े। ज़रा याद कीजिए कि कैसे चुनाव के समय नरेंद्र मोदी इस बात पर जोर देते थे कि बिजनेस की लागत कम होनी चाहिए। मिनिमम गवर्मेंट मैक्सिम गवर्नेंस।
डब्ल्यू टी ओ की साइट पर जायेंगे तो आपको तीन बक्सों का ज़िक्र मिलेगा। भारत चाहता है कि खाद्यान्न सब्सिडी और भंडारन को ग्रीन बक्से में रखा जाए ताकि उसे नए समझौते के बाद भी अनुमति जारी रहे। लाल बक्से में सब्सिडी का प्रावधान है जिस पर साफ साफ रोक है। पीले रंग के बक्से में वैसी सब्सिडी है जिसे धीरे-धीरे कम करनी होगी। इसी में समर्थन मूल्य और किसानों को नकद देने का प्रावधान है।
भारत में किसानों को बिजली खाद कर्ज़ मुआवज़ा बीमा की शक्ल में कई प्रकार की सब्सिडी मिलती है। भारत इसके खिलाफ स्टैंड नहीं ले सकता। अगर सुरजीत एस भल्ला की बात मानकर ले लिया तो क्या परिणाम होंगे, इस पर भी बात होनी चाहिए। प्राइम टाइम में सवाल तो यही है जहां साइन करना है कीजिये, लेकिन इतना बता दीजिए कि क्या चुनाव में किसानों से कहा था कि आते ही सब्सिडी खत्म कर देंगे। विकसित देश जब अपने किसानों को सब्सिडी देते हैं तो हम क्यों न दें। प्राइम टाइम
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