भारत की आबादी का एक चौथाई हिस्सा प्रदूषण (Pollution) को झेलने के लिए मजबूर हैं. वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स-AQLI) यानी जीवन जीने के लिए जिस गुणवत्ता की हवा चाहिए, उस मामले में भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मानकों पर खरा नहीं उतरता है. यही वजह है कि भारत में जीवन प्रत्याशा (Life expectancy) पांच साल कम हो गई है. यानी एक व्यक्ति औसत भारतीय वायु प्रदूषण की वजह से अपने जीवन का पांच साल कम जीने को मजबूर है. अभी दुनियाभर के देशों में कोरोना वैक्सीन बनाने की होड़ मची हुई है. लेकिन एक और दुश्मन है जो हर दिन अरबों लोगों के जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है, वह है वायु प्रदूषण. शिकागो यूनिवर्सिटी की ओर से जारी नए एक्यूएलआई रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक हवा में तैर रहे पार्टीकुलेट मैटर कोविड से पहले इंसानों के स्वास्थ्य को कमजोर कर रहा था. और अगर आनेवाले समय में स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर नहीं की गई, तो कोविड के बाद भी यह मानव जीवन प्रत्याशा को और बुरी तरह प्रभावित करेगा.
रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो दशकों में भारत में पार्टीकुलेट मैटर (कण प्रदूषण) में 42 प्रतिशत की तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. आज भारत में 84 प्रतिशत लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जो भारत के स्वयं के वायु गुणवत्ता मानकों से अधिक प्रदूषित हैं. वहीं पूरी आबादी डबल्यूएचओ की ओर से तय मानक से अधिक के स्तर के वायु गुणवत्ता वाले माहौल में जीने को विवश हैं. नतीजतन, औसत भारतीय अपना जीवन पांच साल कम जीते हुए देखे जा सकते हैं. डबल्यूएचओ के मानक के मुताबिक पांच साल आयु कम हो रहे हैं, वहीं राष्ट्रीय मानक के मुताबिक दो साल कम हो रहे हैं.
इस बीच, भारत की जनसंख्या का एक चौथाई हिस्सा जिस प्रदूषण स्तर में जी रहा है, दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं देखा गया है. डबल्यूएचओ के मानकों पर खरा न उतरने की वजह से उत्तर प्रदेश के 230 मिलियन लोगों का जीवन आठ साल कम हो गया है. वहीं दिल्ली के निवासी भी अपने जीवन में 9 साल अधिक देख सकते थे.
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रिपोर्ट में यह भी दिखाया गया है कि प्रदूषण के स्तर को डबल्यूएचओ के मानक के अनुसार रख कर बिहार औऱ पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी आम जन के जीवन को सात साल तक बढ़ाया जा सकता है. वहीं हरियाणा के लोगों का जीवन आठ साल तक बढ़ाया जा सकता है.
कोविड के साथ प्रदूषण कम करने पर भी देना होगा खासा ध्यानः ग्रीनस्टोन
मिल्टन फ्रीडमैन प्रोफेसर और एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक, अर्थशास्त्र के प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं,”कोरोना वायरस का खतरा काफी है. इसपर गंभीरता से ध्यान देने आवश्यकता है. लेकिन कुछ जगहों पर, इतनी ही गंभीरता से वायु प्रदूषण पर ध्यान देने की जरूरत है. ताकि करोड़ों-अरबों लोगों को अधिक समय तक स्वस्थ जीवन जीने का हक मिले.” माइकल ग्रीनस्टोन ने ही शिकागो यूनिवर्सिटी में ऊर्जा नीति संस्थान (ईपीआईसी) में अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर एक्यूएलआई की स्थापना भी की है.
वह आगे कहते हैं, वास्तविकता यह है कि फिलहाल जो उपाय और संसाधन भारत के पास है, उसमें वायु प्रदूषण के स्तर में खासा सुधार के लिए मजबूत पब्लिक पॉलिसी कारगर उपाय है. एक्यूएलआई रिपोर्ट के माध्यम से आम लोगों और नीति निर्धारकों को बताया जा रहा है कि कैसे वायु प्रदूषण उन्हें प्रभावित कर रहा है. साथ ही, प्रदूषण को कम करने के लिए इस रिपोर्ट का कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है.
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साल 2019 में केंद्र सरकार ने प्रदूषण से लड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनकैप) की घोषणा की. इसके माध्यम से साल 2024 तक 20-30 प्रतिशत तक प्रदूषण कम करने का लक्ष्य रखा है. हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है. लेकिन एक्यूएलाई के अनुसार इस लक्ष्य को हासिल करने के साथ स्वास्थ्य व्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार की आवश्यकता है.
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अगर देशभर में 25 प्रतिशत तक प्रदूषण को कम किया जाता है, तो एनकैप के लक्ष्य को हासिल करने से पहले ही राष्ट्रीय वन प्रत्याशा में 1.6 साल और दिल्ली के लोगों के जीवन प्रत्याशा में 3.1 साल की बढ़ोत्तरी हो सकती है.
शिकागो यूनिवर्सिटी के साथ गुजरात में चल रहा है शोध
भारत में राज्य सरकारें वायु गुणवत्ता में सुधार लाने की दिशा में पहले से ही प्रयासरत हैं. पार्टिकुलेट मैटर (कण प्रदूषण) के लिए दुनिया का पहला एमिशन ट्रेडिंग सिस्टम (ईटीएस) शिकागो यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर गुजरात में चल रहा है. जहां शिकागो यूनिवर्सिटी और गुजरात प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के साथ अन्य लोग मिलकर काम कर रहे हैं. सूरत में चल रहे इस पायलट प्रोजेक्ट के तहत औद्योगिक संयंत्रों से निकलने वाले कण प्रदूषण को कम करने पर शोध चल रहा है. वह भी कम से कम लागत में.
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ग्रीनस्टोन एक बार फिर कहते हैं, "इतिहास उदाहरणों से भरा है कि कैसे मजबूत नीतियां प्रदूषण को कम कर सकती हैं, लोगों के जीवन को लंबा कर सकती हैं." उनके मुताबिक, “भारत और दक्षिण एशिया के नेताओं के लिए अगली सफलता की कहानी बुनने का एक बहुत ही शानदार अवसर है. क्योंकि वे आर्थिक विकास और पर्यावरण गुणवत्ता के दोहरे लक्ष्यों को संतुलित करने के लिए काम करते हैं. सूरत ईटीएस की सफलता बताती है कि बाजार-आधारित लचीला दृष्टिकोण से दोनों लक्ष्यों को एक साथ हासिल किया जा सकता है."
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