नई दिल्ली:
नए ज़मीन अधिग्रहण बिल पर राजनीतिक खींचतान फिर तेज़ हो रही है। दरअसल सरकार ने संकेत दिया है कि वो अगले हफ्ते बिल को लोकसभा में पेश करना चाहती है।
सरकार के इस फैसले से इस विवादित बिल पर सियासत फिर तेज़ हो गयी है। खबर है कि एनडीए सरकार ज़मीन अधिग्रहण बिल को अगले हफ्ते लोकसभा में पेश कर इसे संयुक्त समिति को सौंपने को तैयार है। ज़ाहिर है, अब तक इस बिल पर राजनीतिक सहमति बनाने की कोशिश में सरकार को सफलता नहीं मिल पायी है और लोकसभा में अच्छे खासे बहुमत के बावजूद भूमि अधिग्रहण बिल पर सरकार फंसी हुई दिख रही है। वो दो बार अध्यादेश ला चुकी है, लेकिन बिल अटका पड़ा है और इसी के साथ सुधार का उसका एजेंडा भी।
उधर विपक्ष सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर रहा है। उसका कहना है, सरकार किसानों के हक़ छीन रही है। पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने एनडीटीवी से कहा, 'बिल के खिलाफ हमारा विरोध सैंद्धांतिक है। हम नए बिल में जो पांच अहम बदलाव किये गए हैं उसके खिलाफ हैं। हमारा विरोध विशेष तौर पर Consent Clause और सोशल इम्पैक्ट एसेसमेन्ट को कुछ चुने हुए प्रोजेक्ट्स पर लागू नहीं करने के प्रस्ताव को लेकर है।'
इस मसले पर विपक्ष लामबंद हो चुका है। कांग्रेस के साथ इस बिल के खिलाफ कई विपक्षी दल साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं।
सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने शुक्रवार को ये सवाल उठाया कि सरकार बिना राजनीतिक सहमति बनाए आगे बढ़ना चाहती है जो गलत है। येचूरी ने एनडीटीवी से कहा, 'जब से मोदी सरकार आयी है एक भी सर्वदलीय बैठक किसी मसले पर नहीं बुलाई गयी है। पहले सरकार हमसे महत्वपूर्ण मसलों पर बात तो करे।'
उधर त्रिणमूल कांग्रेस के नेता जेरेक ओ-ब्रायन ने खुले तौर पर कहा है कि किसी भी परिस्थिति में उनकी पार्टी नए ज़मीन अधिग्रहण बिल का समर्थन नहीं करेगी।
ये महत्वपूर्ण है कि इस विवादित बिल पर बीजेपी की सहयोगी शिवसेना भी सरकार का खुल कर समर्थन करने में हिचक रही है। पार्टी के सांसद अनिल देसाई ने एनडीटीवी से कहा, 'अभी देखना होगा कि किस तरह से ये बिल टेबल होगा, किस तरह से संशोधन रखे जाएंगे, इस पर अभी कुछ भी ज़्यादा नहीं कह सकते। अभी तो ये बिल टेबल भी नहीं हुआ है।'
सरकार की दुविधाएं दो हैं। एक तो वो राज्यसभा में अल्पमत में है। दूसरे वाकई वो ये पैगाम नहीं देना चाहती कि वो किसान विरोधी है। मुश्किल ये है कि इस मसले पर एनडीए सरकार खेत से संसद तक घिरी हुई है। इसके बावजूद अगर सरकार इस बिल को लोकसभा में पेश करती है तो ये एक राजनीतिक दांव होगा और ऐसा करने से पहले सरकार को इससे होने वाले नफा-नुकसान का सही अंदाज़ा लगाना होगा।
सरकार के इस फैसले से इस विवादित बिल पर सियासत फिर तेज़ हो गयी है। खबर है कि एनडीए सरकार ज़मीन अधिग्रहण बिल को अगले हफ्ते लोकसभा में पेश कर इसे संयुक्त समिति को सौंपने को तैयार है। ज़ाहिर है, अब तक इस बिल पर राजनीतिक सहमति बनाने की कोशिश में सरकार को सफलता नहीं मिल पायी है और लोकसभा में अच्छे खासे बहुमत के बावजूद भूमि अधिग्रहण बिल पर सरकार फंसी हुई दिख रही है। वो दो बार अध्यादेश ला चुकी है, लेकिन बिल अटका पड़ा है और इसी के साथ सुधार का उसका एजेंडा भी।
उधर विपक्ष सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर रहा है। उसका कहना है, सरकार किसानों के हक़ छीन रही है। पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने एनडीटीवी से कहा, 'बिल के खिलाफ हमारा विरोध सैंद्धांतिक है। हम नए बिल में जो पांच अहम बदलाव किये गए हैं उसके खिलाफ हैं। हमारा विरोध विशेष तौर पर Consent Clause और सोशल इम्पैक्ट एसेसमेन्ट को कुछ चुने हुए प्रोजेक्ट्स पर लागू नहीं करने के प्रस्ताव को लेकर है।'
इस मसले पर विपक्ष लामबंद हो चुका है। कांग्रेस के साथ इस बिल के खिलाफ कई विपक्षी दल साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं।
सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने शुक्रवार को ये सवाल उठाया कि सरकार बिना राजनीतिक सहमति बनाए आगे बढ़ना चाहती है जो गलत है। येचूरी ने एनडीटीवी से कहा, 'जब से मोदी सरकार आयी है एक भी सर्वदलीय बैठक किसी मसले पर नहीं बुलाई गयी है। पहले सरकार हमसे महत्वपूर्ण मसलों पर बात तो करे।'
उधर त्रिणमूल कांग्रेस के नेता जेरेक ओ-ब्रायन ने खुले तौर पर कहा है कि किसी भी परिस्थिति में उनकी पार्टी नए ज़मीन अधिग्रहण बिल का समर्थन नहीं करेगी।
ये महत्वपूर्ण है कि इस विवादित बिल पर बीजेपी की सहयोगी शिवसेना भी सरकार का खुल कर समर्थन करने में हिचक रही है। पार्टी के सांसद अनिल देसाई ने एनडीटीवी से कहा, 'अभी देखना होगा कि किस तरह से ये बिल टेबल होगा, किस तरह से संशोधन रखे जाएंगे, इस पर अभी कुछ भी ज़्यादा नहीं कह सकते। अभी तो ये बिल टेबल भी नहीं हुआ है।'
सरकार की दुविधाएं दो हैं। एक तो वो राज्यसभा में अल्पमत में है। दूसरे वाकई वो ये पैगाम नहीं देना चाहती कि वो किसान विरोधी है। मुश्किल ये है कि इस मसले पर एनडीए सरकार खेत से संसद तक घिरी हुई है। इसके बावजूद अगर सरकार इस बिल को लोकसभा में पेश करती है तो ये एक राजनीतिक दांव होगा और ऐसा करने से पहले सरकार को इससे होने वाले नफा-नुकसान का सही अंदाज़ा लगाना होगा।
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