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3 सैनिक, 109 घंटे... और घुटनों पर हैदराबाद का फन्नेखां निजाम, जानें ऑपरेशन पोलो की कहानी

हैदराबाद के आखिरी निजाम को घुटनों पर लाने में हवलदार बचित्तर सिंह, हवलदार अमर सिंह और नायक नरबहादुर थापा ने अहम भूमिका निभाई थी. ऑपरेशन पोले के दौरान इनके अदम्‍य साहस के लिए इन्‍हें अशोक चक्र पुरस्‍कार से नवाजा गया था.

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हैदराबाद के भारत में विलय की कहानी
नई दिल्‍ली:

'लाइट मशीन गन से गोलियां बरस रही थीं, आगे बढ़ना मुश्किल नजर आ रहा था. तभी बचित्तर सिंह दौड़े, लेकिन एलएमजी तक पहुंचने से पहले ही एक गोली उनकी जांघ को पार कर गई. लेकिन बचित्‍तर सिंह ने हिम्‍मत नहीं हारी और हाथों के बल आगे बढ़े और एलएमजी पोस्ट पर दो ग्रेनेड फेंके, जिससे रास्‍ता साफ हो गया.' हवलदार बचित्तर सिंह, हवलदार अमर सिंह और नायक नरबहादुर थापा, 109 घंटे के 'युद्ध' के कुछ वे नायक थे, जिसके कारण 17 सितंबर, 1948 को निज़ाम की सत्‍ता खत्‍म हुई और हैदराबाद पर भारतीय सुरक्षाबलों का कब्ज़ा हो पाया. अभी तक भारतीय सेना और हैदराबाद लड़ाकों के बीच हुए संघर्ष को लेकर दोनों ओर से नेतृत्‍व करने वाले जनरलों के नाम ही लोगों के जेहन में हैं. दरअसल, इसकी एक वजह यह भी है कि असल में यह एक 'युद्ध' नहीं था. इसलिए इन तीनों सैनिकों को वे पुरस्‍कार दिये गए, जो शांतिकाल के दौरान दिये जाते हैं. लेकिन असल में ये युद्ध से किसी भी मानये में कम नहीं था. द हिंदू के अभिलेखीय रिकॉर्ड, वीरता उद्धरण और राष्ट्रीय अभिलेखागार के रिकॉर्ड बताते हैं कि 'ऑपरेशन पोलो' नामक सैन्य ऑपरेशन को कैसे अंजाम दिया गया था.  

हवलदार बचित्तर सिंह, हवलदार अमर सिंह और नायक नरबहादुर थापा को वे पुरस्कार दिए गए, जो शांतिकाल के दौरान दिए जाते हैं- अशोक चक्र ग्रेड 1, ग्रेड 2 और ग्रेड 3. अशोक चक्र पुरस्कार भारत का सर्वोच्च शांतिकालीन वीरता सम्मान है. यह पुरस्कार उन सैनिकों और असैनिकों को दिया जाता है जिन्होंने असाधारण वीरता, शूरता या बलिदान का प्रदर्शन किया हो.

पश्चिमी मोर्चे पर नलदुर्ग गन पोस्‍ट पर टूट पड़े हवलदार बचित्तर सिंह

हैदराबाद के पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सुरक्षाबलों को रोकने के लिए नलदुर्ग में निजाम की सेना तैनात थी. नलदुर्ग वर्तमान में महाराष्ट्र का हिस्‍सा है. नलदुर्ग में एक गन पोस्‍ट थी, जो भारतीय सुरक्षाबलों को आगे बढ़ने से रोक रही थी. ऐसे में 2 सिख रेजिमेंट के हवलदार बचित्तर सिंह बिना अपनी जान की परवाह किये हाथों में ग्रेनेड लेकर गन पोस्‍ट की ओर दौड़े, लेकिन जब वह 30 मीटर दूर थे, तब एलएमजी (लाइट मशीन गन) से गोली चली जो उनकी जांघ पर लग गई. घायलों के बावजूद, वह हाथों के बल आगे बढ़ते हुए एलएमजी पोस्ट पर दो ग्रेनेड फेंके, जिससे पोस्‍ट पर भारतीय सुरक्षाबलों का कब्‍जा हो गया. हवलदार बचित्तर सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने किसी को भी अपने घावों पर पट्टी बांधने से मना कर दिया और जंग जारी रही. भारतीय सेना की बख्तरबंद टुकड़ियों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए कुछ और प्रयास किए, लेकिन हैदराबाद के सैनिक असफल रहे. इस वीरता के लिए बचित्‍तर सिंह को अशोक चक्र से नवाजा गया. 

दक्षिणी मोर्चा, तुंगभद्रा नदी के पास खुखरी से बंदूकधारी को किया ढेर

पश्चिमी मोर्चे पर जब हवलदार बचित्तर सिंह अपनी वीरता का परिचय दे रहे थे, उसी समय दक्षिणी मोर्चे पर नायक नरबहादुर थापा ने अपनी खुखरी से बंदूकधारी दुश्‍मन को ढेर कर दिया. नायक नरबहादुर थापा की पलटन को तुंगभद्रा नदी के बाएं किनारे पर हैदराबाद के सिपाहियों ने स्नाइपर और ऑटोमैटिक राइफलों से घेर लिया गया था. भारतीय सुरक्षाबल आगे नहीं बढ़ पा रहे थे. ऐसे में नायक नरबहादुर थापा के सेक्शन (10 सैनिकों) ने कवरिंग फायर दिया और लगातार गोलियां चलाते रहे. ऐसे में दुश्मनों को निशाना साधने के लिए बंदूक के घोंसले से ऊपर सिर उठाने की हिम्‍मत ही नहीं हुई. इस बीच नरबहादुर थापा ने लगभग 100 मीटर की दूरी तक दौड़ लगाई और अपनी खुखरी से बंदूक चालक दल को चुप करा दिया. ऐसे में नायक नरबहादुर थापा की पलटन महत्‍वपूर्ण पुल से आगे बढ़ पाई साथ ही उसे सुरक्षित भी रखने में सफल रही. नायक नरबहादुर थापा के अशोक चक्र वीरता प्रशस्ति पत्र में ये लिखा है.

महत्‍वपूर्ण बढ़त के बाद अगले दिन, पीआईबी ने राष्ट्र को जानकारी दी, 'कुरनूल और तुंगभद्रा रेलवे स्टेशनों पर ब्रिजहेड्स को सम्मिलित कर लिया गया है. हमारे सैनिकों द्वारा वहां गश्त की जा रही है. हमारे सुरक्षाबलों पर हैदराबाद सेना के बलों द्वारा दो बार जवाबी हमला किया गया, लेकिन दोनों हमलों को विफल कर दिया गया और क्षेत्र को खाली करा लिया गया.'


पश्चिमी मोर्चा, 'सुसाइड मिशन' पर चल पड़े थे अमर सिंह

कृष्णा, गोदावरी और उनकी सहायक नदियों पर बने पुल भारतीय सुरक्षाबलों के आगे बढ़ने के लिए सबसे महत्‍वपूर्ण रास्‍ते थे. इन्‍हें लांघते हुए लगभग 109 घंटों में भारतीय सुरक्षाबलों ने निजाम की सत्‍ता को ध्‍वस्‍त कर दिया. हालांकि, इस दौरान कई अड़चनें भी आईं. हैदराबाद के सैनिकों को पता था कि अगर नदियों पर बने पुलों को ध्‍वस्‍त कर दिया जाए, तो भारतीय सुरक्षाबलों को कुछ समय के लिए रोका जा सकता है. ऐसे में उन्‍होंने पश्चिमी मोर्चे के रास्‍ते में आने वाले पुलों को गिराने की योजना बनाई थी. इसके लिए एक ब्रिटिश भाड़े के लेफ्टिनेंट टी.टी. मूर को पश्चिमी मोर्चे पर नलदुर्ग डायनामाइट से भरी एक जीप के साथ भेजा गया था. उन्हें बताया गया था कि भारतीय सेना 15 सितंबर को आगे बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं था. भारतीय सुरक्षाबल 13 तारीख को ही आगे बढ़ गए थे. भारतीय सुरक्षाबल 13 तारीख के बजाय 15 तारीख को आगे बढ़ते, तो उन्हें सभी महत्वपूर्ण पुल उड़े हुए मिलते. लेफ्टिनेंट टी.टी. मूर को भारतीय सैनिकों ने डायनामाइट के साथ पकड़ लिया था.'

इस मोर्चे की सबसे नाटकीय घटना पंजाब रेजिमेंट के हवलदार अमर सिंह की थी. बल्लारशाह के पास पेंगांगा नदी पर 300 मीटर लंबा पुल था, जिन पर हैदराबाद के सैनिकों का कब्‍जा था. इस मोर्चे पर तैनात टुकड़ी के जवानों से पूछा गया कि कौन-कौन पुल पर कब्‍जा करने के लिए 'सुसाइड मिशन' पर जाएगा? अमर सिंह भी इसके लिए तैयार हो गए. वह उन 18 सैनिकों में से थे, जो रेलवे इंजन द्वारा धकेले गए रेत से भरे माल के वैगन, जिसे फ्लैट या प्लेटफॉर्म के रूप में तैयार किया गया, उस पर लेट गए थे. इस प्‍लेटफॉर्म को बहुत तेज़ गति से आगे बढ़ाया गया और जैसे ही यह आखिरी स्पैन पर पहुंचा, ब्रेक लगा दिए गए. इसके बाद अमर सिंह कूदे और पुल पर तैनात संतरी को गोली मार दी. फिर उन्होंने एलएमजी पोस्ट पर हमला किया और अकेले ही उसे खामोश कर दिया, जो उनके साथी सैनिकों पर गोलीबारी कर रही थी. इसके लिए अमर सिंह को अशोक चक्र द्वितीय श्रेणी से नवाजा गया, जिसे अब कीर्ति चक्र के नाम से जाना जाता है.

कौन थे हैदराबाद के आखिरी निजाम

मीर उस्मान अली खान हैदराबाद के आखिरी निज़ाम थे. उनका निधन 24 फ़रवरी, 1967 को हुआ था. मीर उस्मान अली खान ने 1911 से 1948 तक हैदराबाद पर शासन किया. उन्हें भारत के सबसे अमीर लोगों में से एक माना जाता था. उनकी शासनकाल के दौरान हैदराबाद राज्य एक स्वतंत्र राज्य था, जिसने अपनी मुद्रा और सेना रखी हुई थी. वे हैदराबाद के कुतुबशाही वंश के वारिस थे. हैदराबाद के भारत में विलय के बाद निज़ाम शासन खत्म हो गया. हालांकि, 1947 में भारत की आजादी के बाद, हैदराबाद राज्य ने भारत में विलय करने से इनकार कर दिया था. इसके बाद भारत सरकार को कार्रवाई करनी पड़ी और अंततः हैदराबाद राज्य का भारत में विलय हो गया. 

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