नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो
नई दिल्ली:
बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब अमेरिकी कांग्रेस के आगे ये कहा कि योग के महत्व और अमेरिका समेत तमाम देशों में उसकी लोकप्रियता होने के बावजूद भारत ने उस पर किसी तरह के इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट यानी आईपीआर का दावा नहीं किया है तो अमेरिकी कांग्रेसमैन खिलखिलाये और खुश होकर ताली भी बजाई।
प्रधानमंत्री ने योग के महत्व और अमेरिकी समाज पर उसके असर को प्रभावशाली तरीके से बताया लेकिन क्या अमेरिकी सरकार और वहां की कंपनियां भारत में अपने उत्पादों के इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट (आईपीआर) को लेकर इतनी ही उदार हैं? अमेरिका लगातार कड़े आईपीआर कानूनों को लेकर भारत पर दबाव डालता रहा है। फिर भी भारत अपनी आईपीआर नीति से समझौता कर रहा है।
सच्चाई ये है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के दो साल पूरा होने से ठीक पहले एक नेशनल आईपीआर नीति का मसौदा जारी किया है। सरकार भले ही दावा करती हो कि ये नीति नये आविष्कारों को प्रोत्साहन देने के लिये है लेकिन इससे ये डर भी बढ़ रहा है कि विदेशी कंपनियां (खासतौर से अमेरिकी मल्टीनेशनल कंपनियां) भारतीय बाज़ार और समाज पर अपना प्रभुत्व बढ़ायेंगी। आपकी और हमारी जेब पर बोझ बढ़ेगा और विदेशी कंपनियां हमारे खेतों से लेकर स्कूल कालेजों तक अपना दबदबा बढ़ायेंगी। दवाइयां महंगी होंगी और किसानों के लिये बीज खरीदना काफी कठिन हो सकता है।
अपनी नई आईपीआर पॉलिसी मोदी सरकार ने इसी साल 12 मई को जारी की। इसे पढ़ने से पता चलता है कि सरकार देश में और कड़े आईपीआर कानून बनाना चाहती है। सरकार की ये नीति इंटलेक्चुल प्रॉपर्टी को बाज़ार में बिकने लायक पूंजी और आर्थिक हथियार बनाने की बात करती है। साथ ही ये नीति तमाम भारतीय और विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियों को आईपीआर कानून का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने और पेटेंट राज को बढ़ाने के लिये उत्साहित करती है।
सरकार कहती है कि इस नीति से नई-नई खोजों और आविष्कारों को बढ़ावा मिलेगा लेकिन डब्ल्यूटीओ पर रिसर्च कर रहे जानकार इससे सहमत नहीं हैं। भारतीय विदेश व्यापार केंद्र में सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज़ के प्रो. अभिजीत दास सरकार के इस मसौदे से खुश नहीं दिखते। उनका कहना है कि, “कहीं पर भी आज तक ये साबित नहीं हुआ है कि कड़े आईपीआर कानून अभिनव आविष्कारों और खोजों को बढ़ावा देते हैं।”
भारत में अलग अलग क्षेत्रों में आईपीआर से जुड़े कम से कम आधा दर्जन कानून हैं। फिर भी नई सरकार बनने के बाद सितंबर 2014 में ही केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमन ने बयान दिया कि सरकार 6 महीने के भीतर आईपीआर के मामले में नई नीति लायेगी। उसी महीने प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका की पहली यात्रा की जिसे काफी मीडिया कवरेज मिला। उस यात्रा के दौरान भारत ने अमेरिका के साथ रणनीतिक संबंधों का बार बार जिक्र किया। ओबामा के साथ प्रधानमंत्री मोदी की मीटिंग के बाद 30 सितंबर 2014 को जो साझा बयान जारी किया गया उनमें कहा गया कि भारत सरकार इस बात पर राजी हुई है कि आर्थिक विकास और नौकरियों को बढ़ावा देने के लिये ‘इनोवेशन’ (आविष्कारों) को बढ़ाने की ज़रूरत है। साझा बयान में ट्रेड पालिसी फोरम के एक हिस्से के तौर पर दोनों देशों का एक सालाना उच्चस्तरीय इंटेलैक्चुअल प्रॉपर्टी वर्किंग ग्रुप बनाने की बात कही गई।
वाणिज्य मंत्रालय के तहत आने वाले डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन ने अक्टूबर 2014 में एक बयान जारी किया जिसमें ये भी कहा गया कि भारत और अमेरिका के बीच आईपीआर के मामलों को 2010 से साझा समझ और सहयोग चल रहा है। ये भी कहा गया कि मोदी-ओबामा के बीच द्विपक्षीय वार्ता के बाद जारी साझा बयान के ज़रिये पहले से चली आ रही समझ और सहयोग को फिर से बताया जा रहा है।
जानकार कहते हैं कि अमेरिकी कंपनियां और उद्योगपति भारत में आईपीआर को लेकर ऐसी नीति चाहते हैं जो उनके अनुकूल हो। भारत को उसी दिशा में आगे बढ़ते देख सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी भी लिखी। इन कार्यकर्ताओं का कहना है कि हमारे आईपीआर कानून पहले से ही डब्लूटीओ के नियमों और ट्रिप्स समझौते के नियमों के तहत हैं तो फिर विदेशी कंपनियों को उनके हिसाब से कानून को तोड़ने-मरोड़ने की छूट क्यों दी जाये।
जानकारों को डर है कि अगर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमेरिका के दबाव में हमारी पॉलिसी से छेड़छाड़ हुई तो भारतीय जनता और किसानों के हित प्रभावित होंगे। अभी मौजूदा नई नीति को (जो इसी साल मई में जारी हुई है) सरकार क्रिएटिव इंडिया, इनोवेटिव इंडिया के नारे से जोड़ रही है लेकिन इस नीति के पीछे अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव दिखता है जो दवाओं से लेकर कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में पेटेंट राज को बढ़ाना चाहती हैं। सच ये है कि जब हमारे देश में कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, टेक्नोलॉज़ी और मनोरंजन के अलावा तमाम क्षेत्रों के लिये आईपीआर से जुड़े कानून पहले से हैं जो डब्लूटीओ जैसी अंतरराष्ट्रीय संधियों के मुताबिक हैं। ऐसे में इस नीति की ज़रूरत पर ही सवाल खड़ा किया जा रहा है।
हालांकि सरकार इस नीति में ये भी कह रही है कि नई आईपीआर के तहत वह कंपनियों के साथ-साथ जनहित का पूरा ख्याल रखेगी लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा और योग को लेकर दिये गये उनके बयान से ये साफ नहीं है कि भारत क्या अपने हितों को सुरक्षित करने के लिये चली आ रही नीति को और मज़बूत करेगा या फिर हमारी आईपीआर नीति में ये बदलाव सिर्फ अमेरिका और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुश करने के लिये किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री ने योग के महत्व और अमेरिकी समाज पर उसके असर को प्रभावशाली तरीके से बताया लेकिन क्या अमेरिकी सरकार और वहां की कंपनियां भारत में अपने उत्पादों के इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट (आईपीआर) को लेकर इतनी ही उदार हैं? अमेरिका लगातार कड़े आईपीआर कानूनों को लेकर भारत पर दबाव डालता रहा है। फिर भी भारत अपनी आईपीआर नीति से समझौता कर रहा है।
सच्चाई ये है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के दो साल पूरा होने से ठीक पहले एक नेशनल आईपीआर नीति का मसौदा जारी किया है। सरकार भले ही दावा करती हो कि ये नीति नये आविष्कारों को प्रोत्साहन देने के लिये है लेकिन इससे ये डर भी बढ़ रहा है कि विदेशी कंपनियां (खासतौर से अमेरिकी मल्टीनेशनल कंपनियां) भारतीय बाज़ार और समाज पर अपना प्रभुत्व बढ़ायेंगी। आपकी और हमारी जेब पर बोझ बढ़ेगा और विदेशी कंपनियां हमारे खेतों से लेकर स्कूल कालेजों तक अपना दबदबा बढ़ायेंगी। दवाइयां महंगी होंगी और किसानों के लिये बीज खरीदना काफी कठिन हो सकता है।
अपनी नई आईपीआर पॉलिसी मोदी सरकार ने इसी साल 12 मई को जारी की। इसे पढ़ने से पता चलता है कि सरकार देश में और कड़े आईपीआर कानून बनाना चाहती है। सरकार की ये नीति इंटलेक्चुल प्रॉपर्टी को बाज़ार में बिकने लायक पूंजी और आर्थिक हथियार बनाने की बात करती है। साथ ही ये नीति तमाम भारतीय और विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियों को आईपीआर कानून का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने और पेटेंट राज को बढ़ाने के लिये उत्साहित करती है।
सरकार कहती है कि इस नीति से नई-नई खोजों और आविष्कारों को बढ़ावा मिलेगा लेकिन डब्ल्यूटीओ पर रिसर्च कर रहे जानकार इससे सहमत नहीं हैं। भारतीय विदेश व्यापार केंद्र में सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज़ के प्रो. अभिजीत दास सरकार के इस मसौदे से खुश नहीं दिखते। उनका कहना है कि, “कहीं पर भी आज तक ये साबित नहीं हुआ है कि कड़े आईपीआर कानून अभिनव आविष्कारों और खोजों को बढ़ावा देते हैं।”
भारत में अलग अलग क्षेत्रों में आईपीआर से जुड़े कम से कम आधा दर्जन कानून हैं। फिर भी नई सरकार बनने के बाद सितंबर 2014 में ही केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमन ने बयान दिया कि सरकार 6 महीने के भीतर आईपीआर के मामले में नई नीति लायेगी। उसी महीने प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका की पहली यात्रा की जिसे काफी मीडिया कवरेज मिला। उस यात्रा के दौरान भारत ने अमेरिका के साथ रणनीतिक संबंधों का बार बार जिक्र किया। ओबामा के साथ प्रधानमंत्री मोदी की मीटिंग के बाद 30 सितंबर 2014 को जो साझा बयान जारी किया गया उनमें कहा गया कि भारत सरकार इस बात पर राजी हुई है कि आर्थिक विकास और नौकरियों को बढ़ावा देने के लिये ‘इनोवेशन’ (आविष्कारों) को बढ़ाने की ज़रूरत है। साझा बयान में ट्रेड पालिसी फोरम के एक हिस्से के तौर पर दोनों देशों का एक सालाना उच्चस्तरीय इंटेलैक्चुअल प्रॉपर्टी वर्किंग ग्रुप बनाने की बात कही गई।
वाणिज्य मंत्रालय के तहत आने वाले डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन ने अक्टूबर 2014 में एक बयान जारी किया जिसमें ये भी कहा गया कि भारत और अमेरिका के बीच आईपीआर के मामलों को 2010 से साझा समझ और सहयोग चल रहा है। ये भी कहा गया कि मोदी-ओबामा के बीच द्विपक्षीय वार्ता के बाद जारी साझा बयान के ज़रिये पहले से चली आ रही समझ और सहयोग को फिर से बताया जा रहा है।
जानकार कहते हैं कि अमेरिकी कंपनियां और उद्योगपति भारत में आईपीआर को लेकर ऐसी नीति चाहते हैं जो उनके अनुकूल हो। भारत को उसी दिशा में आगे बढ़ते देख सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी भी लिखी। इन कार्यकर्ताओं का कहना है कि हमारे आईपीआर कानून पहले से ही डब्लूटीओ के नियमों और ट्रिप्स समझौते के नियमों के तहत हैं तो फिर विदेशी कंपनियों को उनके हिसाब से कानून को तोड़ने-मरोड़ने की छूट क्यों दी जाये।
जानकारों को डर है कि अगर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमेरिका के दबाव में हमारी पॉलिसी से छेड़छाड़ हुई तो भारतीय जनता और किसानों के हित प्रभावित होंगे। अभी मौजूदा नई नीति को (जो इसी साल मई में जारी हुई है) सरकार क्रिएटिव इंडिया, इनोवेटिव इंडिया के नारे से जोड़ रही है लेकिन इस नीति के पीछे अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव दिखता है जो दवाओं से लेकर कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में पेटेंट राज को बढ़ाना चाहती हैं। सच ये है कि जब हमारे देश में कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, टेक्नोलॉज़ी और मनोरंजन के अलावा तमाम क्षेत्रों के लिये आईपीआर से जुड़े कानून पहले से हैं जो डब्लूटीओ जैसी अंतरराष्ट्रीय संधियों के मुताबिक हैं। ऐसे में इस नीति की ज़रूरत पर ही सवाल खड़ा किया जा रहा है।
हालांकि सरकार इस नीति में ये भी कह रही है कि नई आईपीआर के तहत वह कंपनियों के साथ-साथ जनहित का पूरा ख्याल रखेगी लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा और योग को लेकर दिये गये उनके बयान से ये साफ नहीं है कि भारत क्या अपने हितों को सुरक्षित करने के लिये चली आ रही नीति को और मज़बूत करेगा या फिर हमारी आईपीआर नीति में ये बदलाव सिर्फ अमेरिका और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुश करने के लिये किया जा रहा है।
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