कोरोना काल में सबसे ज्यादा व्यापार-व्यवसाय प्रभावित हुआ. मध्यप्रदेश के खरगौन जिले के महेश्वर का महेश्वरी साड़ी उद्योग भी इससे अछूता नहीं रहा. यहां की प्रसिद्ध महेश्वरी साड़ियां देश सहित विश्व में अपनी पहचान रखती हैं, लेकिन अब कारोबारी-कर्मचारी सब मुश्किल में हैं. कोई दिहाड़ी मजदूरी कर रहा है तो कोई सब्जी बेच रहा है. कहते हैं कि होलकर वंश की अहिल्याबाई ने मांडू-गुजरात के कारीगरों को महेश्वर में बसाया. यहां बनी साड़ियां जीवंत, चटकीले रंग, धारीदार या चेकनुमा बॉर्डर. खासढंग की किनारी, सुंदर डिजाइन, की वजह से पूरी दुनिया में पहचानी जाती हैं. लेकिन कोरोना ने इन करघों को थामने वाले हाथों में कहीं सब्जी का ठेला पकड़ा दिया तो किसी के हाथों में बेलचा. बुनकर वसीम अंसारी पहले हफ्ते में 3000 तक का काम करते थे, अब बमुश्किल आधा कमाते हैं वो भी अपने हुनर को छोड़कर. वसीम कहते हैं, 'घर परिवार चलाने के लिये मजदूरी करना पड़ा, और चारा नहीं है. पहले 2500-3000 कमा लेता था, अब 1500-1600 एक हफ्ते में मिलता है, बारिश आ जाती है तो और दिक्कत होती है.'
बुनकरों के पास माल तैयार है, लेकिन मांग नहीं है, 80 फीसद कामकाज प्रभावित हुआ है. महेश्वर देवी अहिल्या की पवित्र नगरी पर्यटकों और विदेशी सैलानियों से भरी रहती थी. फिल्मों की शूटिंग का दौर भी चला करता था. कोरोना की वजह से यहां सैलानियों एवं विदेशी पर्यटकों का आना-जाना कम हो गया है. ऐसे में महेश्वरी साड़ियां बेचने वाली दुकानों में रौनक नहीं है. कपड़ों के कई शोरूम बंद हो गए, जो चल रहे हैं, वहां खरीदार नहीं है. हैंडलूम कारोबारी भी परेशान हैं.
कारोबारी वारिस अंसारी कहते हैं, 'मेरे यहां 25 से 30 बुनकर काम करते थे. लॉकडाउन के बाद से अब तक काम नहीं मिल पा रहा था. आज वह बंद हो गए हैं. मटेरियल का रेट बढ़ गया है. मेरे द्वारा हैंडलूम वर्क से बनाई हुई साड़ियां, सूट हथकरघा विभाग में एवं वस्त्रालय मंत्रालय द्वारा खरीदी जाती थी. ऑर्डर आना बंद हो गए हैं. पहले हम 100 परसेंट काम करते थे, आज 25 परसेंट काम रह गया है. दैनिक स्थिति बिगड़ चुकी है.'
महेश्वर में 3247 हैंडलूम थे जिसमें 9360 बुनकर और सहायक काम कर रहे थे. यहां 3 लघु हैंडलूम इकाइयां कार्यरत हैं. लेकिन कोरोना की वजह से 80 फीसद कामकाज प्रभावित हो गया. हथकरघा सहायक प्रबंधक श्याम रंजन सेन गुप्ता बताते हैं, 'बहुत सारे लूम बंद हो गये. लॉकडाउन खुल भी गया तो बाजार में उठाव धीरे आ रहा है. कुछ लोग छोड़कर दूसरा काम करने लगे हैं, गारा मिट्टी का काम कर रहा है, सब्जी बेचने लगा. विभाग से हमने कहा है इनके हेल्प के लिये कुछ किया जाये, कर भी रहा है.' महेश्वरी साड़ियों होती तो प्लेन हैं लेकिन बॉर्डर पर फूल, पत्ती, बूटी, हंस, मोर की सुन्दर डिजाईन होती है, पल्लू पर 2-3 रंगों की मोटी-पतली धारियां होती हैं. पहले ये प्राकृतिक रंगों से बनती थीं, अब कृत्रिम.
पहले इसे बनाने में सुनहरे रेशमी धागे लगते थे, अब तांबे जैसे कृत्रिम धागे. चीन से आयातित रेशम मिलने में दिक्कत थी, सो अब देसी रेशम से साड़ियां बन रही हैं. महेश्वर में साड़ी के अलावा, सलवार सूट, दुपट्टे, स्टाल, रनिंग क्लॉथ भी बनते हैं, जिसके लिए कॉटन का धागा कोयंबटूर, सिल्क का धागा बेंगलुरु, जरी सूरत और कलर डाई महाराष्ट्र से मंगाई जाती है.
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कहते हैं कभी अहिल्याबाई ने कुछ मेहमानों को तोहफा देने के लिये बुनकरों को सूरत, मालवा, हैदराबाद जैसे शहरों से बुलवाया, खुद साड़ी को डिजाइन करवाया जिसकी वजह से इसका नाम उनकी राजधानी महेश्वर के नाम पर पड़ा. महेश्वरी साड़ी थोड़ी महंगी होती है, एक अच्छी साड़ी 2000 रुपये से नीचे नहीं मिलती. लेकिन बनारसी और कांजीवरम के मुकाबले बहुत सस्ती. इसलिये जो पहले राजे रजवाड़ों का शौक था अब आम लोगों का भी बन गया.
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