
लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) को महज पांच सीटें मिली हैं. पिछले चुनाव में भी सपा को पांच सीटें मिली थीं. पिछले चुनाव में सपा अकेले चुनाव लड़ी थी. इस बार उसका दो दलों -बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राष्ट्रीय लोकदल (रालोद)- के साथ गठबंधन था. इस गठबंधन को अपराजेय माना जा रहा था. लेकिन ढाक के वही तीन पात. गठबंधन में बसपा को भले ही लाभ हुआ. उसने 10 सीटें जीत लीं, लेकिन बाकी दो दल जहां के तहां रह गए. मुलायम परिवार के तीन सदस्य चुनाव हार गए. रालोद अपने हिस्से की तीनों सीटें हार गया. इस चुनाव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव क्रमश: आजमगढ़ और मैनपुरी से चुनाव जीतने में कामयाब रहे. मगर उनके परिवार के तीन अन्य सदस्यों को हार का सामना करना पड़ा. अखिलेश की पत्नी डिम्पल यादव को कन्नौज सीट पर भाजपा प्रत्याशी सुब्रत पाठक के हाथों 12,353 मतों से परास्त होना पड़ा. इसके अलावा फिरोजाबाद सीट से अखिलेश के चचेरे भाई अक्षय यादव और बदायूं सीट से एक अन्य चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव को अपनी-अपनी सीट गंवानी पड़ी. मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव की जीत का अंतर 2014 के मुकाबले केवल एक-चौथाई रह गया.
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मुलायम सिंह यादव ने चुनाव से पहले ही मायावती के साथ गठबंधन के अखिलेश के फैसले पर नाराजगी जाहिर की थी. उन्होंने मायावती को 38 सीटें देने पर कहा था कि आधी सीटें तो पहले ही हार गए. लेकिन अखिलेश ने खुले तौर पर कहा था कि यदि उन्हें दो कदम पीछे भी हटना पड़ेगा तो भी वह गठबंधन करेंगे, क्योंकि गोरखुपर, फूलपुर और कैराना सीटों के लिए हुए उपचुनाव में उन्होंने गठबंधन का मीठा स्वाद चख लिया था.
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हालांकि इसका एक पहलू यह भी है कि यदि गठबंधन न हुआ होता तो इस बार सपा को शायद पांच सीटें भी नहीं मिल पातीं. ज्यादा संभव था कि मुलायम और अखिलेश भी चुनाव हार जाते. इस लिहाज से अखिलेश के निर्णय को सही माना जा सकता है. लेकिन यहां तो सवाल इस बात का है कि बसपा इस चुनाव में शून्य से 10 सीटों पर पहुंच गई, मगर सपा को गठबंधन का वह लाभ क्यों नहीं मिला, जो बसपा को मिला. इस सवाल के दो जवाब हैं. एक तो सपा का पारिवारिक कलह इसका एक कारण है.
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इनपुट : आईएनएस
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