कभी आप सोच सकते हैं कि जो रिक्शा आपके गली मोहल्ले में एक दो किलोमीटर के लिए चलता था या मेट्रो स्टेशन से आपको घर तक छोड़ता था वो अब हाईवे पर हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर रहा है. मेट्रो स्टेशन या गली मोहल्लों में चलने वाला रिक्शा इटावा के नजदीक राष्ट्रीय राजमार्ग पर सरपट दौड़ाता दिखा. शाम आठ बजने को थे..भारी ट्रक और दौड़ती कारों के बीच अपने मन से नहीं बल्कि मजबूरी में रिक्शा चलाकर अजीत की टोली भागलपुर जा रही थी.आज रिक्शे पर कोई शहर वाला नहीं बल्कि उनके खुद का परिवार बैठा था.
गुड़गांव के रिक्शा चालक अजीत ने कहा कि रजिस्ट्रेशन करवाया, पुलिस के पास गया, लेकिन वहां से भगा दिया गया. फिर क्या करते रिक्शे से ही चल दिए हैं. गुड़गांव से चले भागलपुर कब पहुंचेंगे कोई पता नहीं है.
इटावा से हम आगे बढ़े तो दिल्ली में रिक्शा चलाने वाले सलाम मिले.वे अकेले पटना जा रहे हैं. सलाम ने कहा कि वहां डेढ़ महीने से पड़े थे. खाने-पीने की दिक्कत थी, पुलिस अलग मारती थी. पटना जा रहे हैं.
आजादी के बाद शायद महानगरों से गांव की ओर का सबसे बड़ा पलायन है. रिक्शे वाले, पेंटर, राजमिस्त्री से लेकर महानगरों को चमकदार बनाने वाले इन श्रमिकों को आज कोरोना की बीमारी से ज्यादा सरकारों की बेरुखी का खतरा सता रहा है. गांव में भी इनकी जिंदगी आसान नहीं है लेकिन ट्रकों में सामान जैसे भरकर जाना मानव स्वभाव नहीं बल्कि एक बड़ी बेबसी का सबब जरूर दिख रही है.
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