प्रतीकात्मक फोटो
नई दिल्ली:
कानून की आंखों में 37 साल तक धूल झोंकने के बाद हत्या का एक दोषी अंतत: कानून के शिकंजे में आ गया है. सीबीआई ने उसके खिलाफ आरोपपत्र दायर किया है. यह दोषी 1979 में ‘संदिग्ध’ हालात में उत्तर प्रदेश में कथित रूप से अपनी रिहाई कराने में सफल हो गया था.
यह हैरतंगेज मामला कृष्ण देव तिवारी का है जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी लेकिन बाद में रहस्यमय परिस्थितियों में वह बस्ती जेल से रिहा हो गया था.
तिवारी ने दावा किया था कि वह 1996 तक अपनी सजा पूरी कर चुका था लेकिन 2015 में उच्चतम न्यायालय के आदेश पर मामले की जांच करने वाली सीबीआई ने पाया कि उसने अपनी सजा पूरी नहीं की थी और उसका कथन विरोधाभासी है. सीबीआई सूत्रों ने 29 जुलाई को लखनऊ में आरोपपत्र दाखिल किया है जिसमें कहा गया है कि बस्ती से उसकी रिहाई ‘संदिग्ध’ पाई गई है.
सीबीआई की रिपोर्ट के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने तिवारी और उसके भाइयों नंद किशोर तथा रमानंद को इस मामले में सुनवाई के लिए सोमवार तक अदालत के समक्ष समर्पण करने को कहा है.
तिवारी और उसके दोनों भाइयों को निचली अदालत ने हत्या के आरोपों में दोषी ठहराया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. आरोपियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस आदेश को चुनौती दी थी.
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
यह हैरतंगेज मामला कृष्ण देव तिवारी का है जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी लेकिन बाद में रहस्यमय परिस्थितियों में वह बस्ती जेल से रिहा हो गया था.
तिवारी ने दावा किया था कि वह 1996 तक अपनी सजा पूरी कर चुका था लेकिन 2015 में उच्चतम न्यायालय के आदेश पर मामले की जांच करने वाली सीबीआई ने पाया कि उसने अपनी सजा पूरी नहीं की थी और उसका कथन विरोधाभासी है. सीबीआई सूत्रों ने 29 जुलाई को लखनऊ में आरोपपत्र दाखिल किया है जिसमें कहा गया है कि बस्ती से उसकी रिहाई ‘संदिग्ध’ पाई गई है.
सीबीआई की रिपोर्ट के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने तिवारी और उसके भाइयों नंद किशोर तथा रमानंद को इस मामले में सुनवाई के लिए सोमवार तक अदालत के समक्ष समर्पण करने को कहा है.
तिवारी और उसके दोनों भाइयों को निचली अदालत ने हत्या के आरोपों में दोषी ठहराया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. आरोपियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस आदेश को चुनौती दी थी.
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