क्या बिहार की शराबबंदी फ्लॉप हो गई है? शराबबंदी तोड़ने के मामलों को देखते हुए तो यही पता लगता है. यह आंकड़े खुद बिहार सरकार के ही हैं. सवाल यह है कि शराबबंदी तो लेकर इतने सख्त कानून बनने के बावजूद लाखों की संख्या में ऐसे मामले क्यों दर्ज हो रहे हैं? क्या लोगों को पुलिस का डर नहीं है, या पुलिस शराबबंदी को कड़ाई से लागू नहीं करा पा रही है.
आंकड़े अलग तस्वीर बता रहे हैं. बिहार में 2016 से शराबबंदी लागू है. इसे तोड़ने पर दर्ज मुकदमों की बढ़ती संख्या से अदालतें चिंतित हैं. सुप्रीम कोर्ट में दायर बिहार सरकार के हलफनामे के मुताबिक अप्रैल 2016 से अब तक 6.07 लाख मामले दर्ज किए गए. इनमें से 3.02 लाख मामले तो पिछले डेढ़ साल में दर्ज हुए हैं. सिर्फ 1.87 लाख मामलों में ही ट्रायल पूरा हो पाया है. यह आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे हैं कि शराबबंदी में कहीं न कहीं समस्या आ रही है.
शराबबंदी लागू होने के बाद से जहरीली शराब पीकर मरने के मामले भी लगातार बढ़े हैं. लाखों लोगों को जेल की हवा भी खानी पड़ी है. भ्रष्टाचार और अवैध शराब का कारोबार फैलने के आरोप भी हैं.
हालांकि शराबबंदी के समर्थक इसके फायदे भी गिनाते हैं. उनके मुताबिक बिहार में जब से शराबबंदी लागू की गई है, घरेलू हिंसा में कमी आई है. महिलाओं के खिलाफ अपराध दर गिरी है. शराब पीकर सार्वजनिक स्थानों पर होने वाले हुड़दंग में कमी आई है.
शराबबंदी के विरोधी कहते हैं कि इससे राज्य को कई तरह से नुकसान भी हुआ है. राजस्व के मामले में बिहार सरकार को हजारों करोड़ रुपये का नुकसान झेलना पड़ा है. मद्य निषेध विभाग पर खर्च लगातार बढ़ रहा है. अवैध शराब का धंधा बढ़ा है. संज्ञेय अपराध के मामले बढ़े हैं जिसके चलते अदालतों का काम बढ़ा है.
बिहार में शराबबंदी को लेकर सियासत भी चरम पर है.
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