ऊना में दलितों की पिटाई का फाइल फोटो।
अहमदाबाद:
ऊना में चर्मकारों पर कथित गौरक्षकों के बर्बर हमले के बाद से ही पूरे गुजरात में दलितों ने विरोध में मृत पशु ढोने से इनकार कर दिया है. इससे हालात बिगड़ रहे हैं.
आत्म सम्मान के लिए छोड़ा पारंपरिक व्यवसाय
सुरेन्द्रनगर के लिंबडी शहर में रमेश मकवाणा रहते हैं. वे एमए एमएड की पढ़ाई कर चुके हैं. खासे पढ़े-लिखे होने के बावजूद नौकरी नहीं मिली तो आसपास के करीब 22 गांवों से मृत पशु उठाकर चमड़ा निकालने के पिता के पारम्परिक व्यवसाय में जुट गए. लेकिन यहां से 400 किलोमीटर दूर ऊना में इसी व्यवसाय से जुड़े युवकों की बेरहमी से हुई पिटाई के बाद विरोध में राज्य के अन्य दलितों की तरह उन्होंने भी यह व्यवसाय छोड़ दिया है, बिना इसकी परवाह किए कि परिवार का क्या होगा। आखिर आत्म सम्मान सबसे बड़ा है। वे कहते हैं कि ''आर्थिक तौर पर थोड़ी दिक्कत आएगी लेकिन जिंदगी में थोड़ा सुख-चैन होगा.''
न्याय के बिना काम का सवाल ही नहीं
लिंबडी के ही पांजरापोल में, जहां बीमार और आवारा पशुओं को रखा जाता है, एक बहस रोज चलती है. पांजरापोल के व्यवस्थापक और यहां से मृत पशु उठाने वाले धनजीभाई के बीच बिगड़ी व्यवस्था को लेकर बहस होती रहती है कि कब वहां की स्थिति सामान्य होगी. आखिर धनजीभाई ने करीब 10 लाख रुपए देकर यहां से मृत पशु उठाने का ठेका लिया था। वे भी दलित हैं, लेकिन दस लाख खर्च करने के बाद भी वे पिछले 10 दिन से पशु नहीं उठा रहे हैं. वे आगे भी यह काम करने की इच्छा नहीं रखते हैं. उनका कहना है कि ''जब तक ऊना में उनके समाज के बच्चों पर जो अत्याचार हुआ उसका न्याय नहीं होगा तब तक कोई काम करने का सवाल ही नहीं उठता.'' जब पूछा कि घर कैसे चलाएंगे तो कहा कि ''हमें अब यह काम करने की इच्छा नहीं है, क्यों पैसे देकर भी मार खाएं... गालियां सुनते रहें. अब और नहीं करेंगे चाहें मर ही जाएंगे। कुछ न होगा तो गांव चले जाएंगे, वहां जाकर मजदूरी कर लेंगे, कम से कम चैन की रोटी तो खाएंगे.''
पशुओं के मरने से फैल रही है दुर्गंध
20 जुलाई के बाद इस पांजरापोल में शुरुआत में चार दिन तक करीब 34 पशु मर गए लेकिन उनके शव न उठाए जाने की वजह से पूरे इलाके में दुर्गंध फैल गई थी। यहां के ट्रस्टी और कर्मचारियों को कुछ पशु हटाने पड़े तो वे बीमार ही पड़ गए. फिर कलेक्टर और नगरपालिका को कहा तो हर रात मृत पशु उठाने की व्यवस्था हो गई है. वे दलितों को काम दोबारा शुरू करवाने के लिए कुछ और सुविधाएं देने को भी तैयार हो गए हैं लेकिन जब तक दलित वापस काम पर नहीं आते लोगों को अपने बीमार पशुओं की देखभाल खुद ही करने को कह रहे हैं. कलेक्टर ने सभी से कहा है कि कम से कम अगले 15 दिन तक कोई अपने बीमार पशु पांजरापोल में न भेजें. राज्य में ऐसे करीब 300 पांजरापोल हैं जिनमें कुल 2 लाख से ज्यादा पशु हैं. बाहर के पशुओं के मुकाबले यहां पशु मरते भी ज्यादा हैं क्योंकि यहां ज्यादातर बीमार पशु ही भेजे जाते हैं.
समाज में समानता का सम्मान मिलने की आशा
फिलहाल दलित समुदाय इन मृत-देहों को उठाने को तैयार नहीं. ऐसे में इनकी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में दूसरे समुदायों को दलित जो सदियों से करते आए हैं वह काम करने को मजबूर होना पड़ रहा है तो मुसीबत लग रही है. राज्य सरकार ने नगर निगमों और कलेक्टरों को आदेश दिए हैं कि मृत पशु जल्द उठाए जाएं, लेकिन उनके यहां काम करने वाले दलित भी तैयार नहीं हैं तो हालात समझ आने लगे हैं. क्योंकि सरकार में काम करने वाले दलित भी इस काम में सहयोग को तैयार नहीं हैं. ऐसे में दलितों के अलावा समाज के लोगों को इसमें जोड़ा जा रहा है. ज्यादातर लोगों को यह नागवार गुजर रहा है. दलित इस उम्मीद में यह बायकाट किए बैठे हैं कि इसी बहाने समाज में उन्हें समानता का सम्मान शायद मिल जाए.
आत्म सम्मान के लिए छोड़ा पारंपरिक व्यवसाय
सुरेन्द्रनगर के लिंबडी शहर में रमेश मकवाणा रहते हैं. वे एमए एमएड की पढ़ाई कर चुके हैं. खासे पढ़े-लिखे होने के बावजूद नौकरी नहीं मिली तो आसपास के करीब 22 गांवों से मृत पशु उठाकर चमड़ा निकालने के पिता के पारम्परिक व्यवसाय में जुट गए. लेकिन यहां से 400 किलोमीटर दूर ऊना में इसी व्यवसाय से जुड़े युवकों की बेरहमी से हुई पिटाई के बाद विरोध में राज्य के अन्य दलितों की तरह उन्होंने भी यह व्यवसाय छोड़ दिया है, बिना इसकी परवाह किए कि परिवार का क्या होगा। आखिर आत्म सम्मान सबसे बड़ा है। वे कहते हैं कि ''आर्थिक तौर पर थोड़ी दिक्कत आएगी लेकिन जिंदगी में थोड़ा सुख-चैन होगा.''
न्याय के बिना काम का सवाल ही नहीं
लिंबडी के ही पांजरापोल में, जहां बीमार और आवारा पशुओं को रखा जाता है, एक बहस रोज चलती है. पांजरापोल के व्यवस्थापक और यहां से मृत पशु उठाने वाले धनजीभाई के बीच बिगड़ी व्यवस्था को लेकर बहस होती रहती है कि कब वहां की स्थिति सामान्य होगी. आखिर धनजीभाई ने करीब 10 लाख रुपए देकर यहां से मृत पशु उठाने का ठेका लिया था। वे भी दलित हैं, लेकिन दस लाख खर्च करने के बाद भी वे पिछले 10 दिन से पशु नहीं उठा रहे हैं. वे आगे भी यह काम करने की इच्छा नहीं रखते हैं. उनका कहना है कि ''जब तक ऊना में उनके समाज के बच्चों पर जो अत्याचार हुआ उसका न्याय नहीं होगा तब तक कोई काम करने का सवाल ही नहीं उठता.'' जब पूछा कि घर कैसे चलाएंगे तो कहा कि ''हमें अब यह काम करने की इच्छा नहीं है, क्यों पैसे देकर भी मार खाएं... गालियां सुनते रहें. अब और नहीं करेंगे चाहें मर ही जाएंगे। कुछ न होगा तो गांव चले जाएंगे, वहां जाकर मजदूरी कर लेंगे, कम से कम चैन की रोटी तो खाएंगे.''
पशुओं के मरने से फैल रही है दुर्गंध
20 जुलाई के बाद इस पांजरापोल में शुरुआत में चार दिन तक करीब 34 पशु मर गए लेकिन उनके शव न उठाए जाने की वजह से पूरे इलाके में दुर्गंध फैल गई थी। यहां के ट्रस्टी और कर्मचारियों को कुछ पशु हटाने पड़े तो वे बीमार ही पड़ गए. फिर कलेक्टर और नगरपालिका को कहा तो हर रात मृत पशु उठाने की व्यवस्था हो गई है. वे दलितों को काम दोबारा शुरू करवाने के लिए कुछ और सुविधाएं देने को भी तैयार हो गए हैं लेकिन जब तक दलित वापस काम पर नहीं आते लोगों को अपने बीमार पशुओं की देखभाल खुद ही करने को कह रहे हैं. कलेक्टर ने सभी से कहा है कि कम से कम अगले 15 दिन तक कोई अपने बीमार पशु पांजरापोल में न भेजें. राज्य में ऐसे करीब 300 पांजरापोल हैं जिनमें कुल 2 लाख से ज्यादा पशु हैं. बाहर के पशुओं के मुकाबले यहां पशु मरते भी ज्यादा हैं क्योंकि यहां ज्यादातर बीमार पशु ही भेजे जाते हैं.
समाज में समानता का सम्मान मिलने की आशा
फिलहाल दलित समुदाय इन मृत-देहों को उठाने को तैयार नहीं. ऐसे में इनकी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में दूसरे समुदायों को दलित जो सदियों से करते आए हैं वह काम करने को मजबूर होना पड़ रहा है तो मुसीबत लग रही है. राज्य सरकार ने नगर निगमों और कलेक्टरों को आदेश दिए हैं कि मृत पशु जल्द उठाए जाएं, लेकिन उनके यहां काम करने वाले दलित भी तैयार नहीं हैं तो हालात समझ आने लगे हैं. क्योंकि सरकार में काम करने वाले दलित भी इस काम में सहयोग को तैयार नहीं हैं. ऐसे में दलितों के अलावा समाज के लोगों को इसमें जोड़ा जा रहा है. ज्यादातर लोगों को यह नागवार गुजर रहा है. दलित इस उम्मीद में यह बायकाट किए बैठे हैं कि इसी बहाने समाज में उन्हें समानता का सम्मान शायद मिल जाए.
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