
- गोरखा रेजिमेंट अपनी बहादुरी और साहस की वजह से बेहद खतरनाक मानी जाती है
- 1814 से 1816 तक ब्रिटिश-गोरखा युद्ध में गोरखा सैनिकों ने अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी और संधि पर मजबूर किया
- नालापानी के युद्ध में गोरखा सैनिकों ने अंग्रेजों की हजारों की सेना को कड़ी टक्कर दी और पीछे धलेक दिया
Gorkha Regiment: भारतीय सेना में कई रेजिमेंट्स हैं और उनकी अपनी कहानियां हैं, इनमें से कुछ रेजिमेंट्स को काफी खूंखार माना जाता है. गोरखा रेजिमेंट भी उनमें शामिल है, जो अपनी बहादुरी और साहस के लिए जानी जाती है. हाल ही में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐतिहासिक गोरखा युद्ध स्मारक के सौंदर्यीकरण को लेकर हुए एक इवेंट में गोरखा सैनिकों का जिक्र किया. जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे गोरखा जवानों के आगे ब्रिटिश आर्मी को भी घुटने टेकने पड़े. आज हम आपको इसी गोरखा रेजिमेंट की पूरी कहानी बताने जा रहे हैं.
योगी आदित्यनाथ ने ब्रिटिश-गोरखा युद्ध का किया जिक्र
गोरखा सैनिकों की वीरता को याद करते हुए सीएम योगी ने कहा, ‘जब हम भारत की सेना के शौर्य की चर्चा करते हैं, तो गोरखा सैनिकों का नाम सबसे ऊपर आता है. ‘जय महाकाली, आयो गोरखाली' के उद्घोष के साथ जब ये दुश्मन पर टूट पड़ते हैं, तो दुश्मन पीछे हटने को मजबूर हो जाता है. 1816 के ब्रिटिश-गोरखा युद्ध में ब्रिटिश सेना को संधि करने के लिए मजबूर होना पड़ा था. बाद में, गोरखा सैनिकों ने ब्रिटिश आर्मी में भी अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया. स्वतंत्र भारत में भी गोरखा रेजीमेंट ने विभिन्न मोर्चों पर दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर किया.'
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मौत से नहीं घबराता है गोरखा
गोरखा सैनिकों को लेकर फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की एक बात हमेशा दोहराई जाती है. जिसमें उन्होंने कहा था कि 'कोई अगर कहता है कि मौत से उसे डर नहीं लगता तो या वो शख्स झूठ बोल रहा है या फिर वो गोरखा है'. गोरखा सैनिकों की यही बात उन्हें बाकी लोगों से अलग बनाती है, यही वजह है कि दुनियाभर में उनकी बहादुरी के चर्चे होते हैं और हर देश उनके जैसे जवान अपनी सेना में चाहते हैं.
गोरखाओं से भिड़ गए अंग्रेज
अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा करने के बाद पड़ोसी देशों की तरफ भी अपना साम्राज्य बढ़ाने की तरफ कदम उठाया. भारत के पड़ोसी देश नेपाल को कमजोर समझकर अंग्रेजों ने 1814 में अपने 3500 सैनिक युद्ध के लिए तैयार कर दिए. इन सैनिकों ने गोरखाओं के खरंगा नाम के किले पर हमला बोल दिया. इसे नालापानी का युद्ध भी कहा जाता है और ये पहला एंग्लो-नेपाली युद्ध था.
गोला-बारूद पर भारी पड़ी थी खुखरी
नालापानी के पहाड़ पर जब अंग्रेजों ने गोरखाओं पर हमला किया तो वो हैरान रह गए. यहां महज 600 गोरखा थे, जिन्होंने अंग्रेजों का सामना अपनी खुखरी और पत्थरों से किया. वहीं अंग्रेज सेना के पास हथगोले और गोला-बारूद का भंडार था. इसके बावजूद गोरखा लगातार अंग्रेजों पर भारी पड़ते गए. इस दौरान गोरखा बच्चों में भी मौत का खौफ नहीं था और वो अंग्रेजों के खिलाफ पूरी फुर्ती से लड़ रहे थे. इसका नतीजा ये हुआ कि 800 ब्रिटिश सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया, जिसमें एक जनरल भी शामिल था.
अंग्रेजों ने आखिरकार नालापानी में जाने वाले पानी की आपूर्ति को रोक दिया, जिससे किले में मौजूद गोरखा जवानों को परेशानी होने लगी और आखिरकार नेपाली सेना के कमांडर बलभद्र कुंवर ने अपने सैनिको के साथ नालापानी छोड़ दिया. उनके यहां से जाने के बाद अंग्रेजों ने उनका स्मारक बनाया और उनकी वीरता को सम्मान दिया.
आखिरकार करना पड़ा समझौता
1814 से लेकर 1816 तक चले गोरखा-ब्रटिश युद्ध के बाद आखिरकार ब्रिटिश सेना को संधि करने के लिए मजबूर होना पड़ा और नेपाली राजा ने सुगौली संधि पर हस्ताक्षर किए. इसके तहत नेपाल के कुछ हिस्से ब्रिटिश भारत में शामिल किए गए. अंग्रेजों ने गोरखाओं की बहादुरी का लोहा माना और गोरखा रेजिमेंट (तब नसीरी रेजिमेंट) की शुरुआत की. बलभद्र कुंवर को इस रेजिमेंट का मुखिया बनाया गया था, जिन्होंने बाद में अंग्रेजों की तरफ से युद्ध लड़ा और 1824 में शहीद हो गए.
ब्रिटिश आर्मी की बने ताकत
गोरखा रेजिमेंट के जवानों ने अंग्रेजों के लिए भी कई युद्ध लड़े और वो उनकी एक बड़ी ताकत बन गए. आजादी के दौरान गोरखा रेजिमेंट का भी बंटवारा हुआ और 10 में से 6 रेजिमेंट ने भारतीय सेना में शामिल होने का फैसला किया, वहीं चार रेजिमेंट ब्रिटिश सेना में रहीं. इसके लिए गोरखा सोल्जर पैक्ट-1947 साइन हुआ. आज भी गोरखा सैनिक ब्रिटिश सेना का हिस्सा हैं, वहीं भारतीय सेना में इसे सबसे खूंखार रेजिमेंट के तौर पर जाना जाता है.
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