लोगों की सहायता करती हुईं ज्योता मंडल.
नई दिल्ली:
इंसान की किस्मत कभी भी उसे ज़मीन की खाक से आसमान की बुलंदियों तक पंहुचा सकती है. इसकी नज़ीर बनी ज्योता मंडल... इतिहास में सिर्फ अपना ही नहीं भारत का नाम भी सुनहरे अक्षरों में दर्ज कराया है ज्योता ने. मुश्किल और विपरीत परिस्थितियां होने के बावजूद ज्योता मंडल कलकत्ता के इस्लामपुर में नेशनल लोक अदालत में देश की पहली ट्रांसजेंडर (किन्नर) जज बन गई है. इस्लामपुर कोर्ट परिसर में चमचमाती कार में अपने सुरक्षाकर्मियों के साथ जब वे पहुंची तो उनको देख कर लोगों की आखें खुली की खुली रह गई. जज के पद पर रहते हुए भी वक्त मिलते ही वो जब किसी घर में शादी होती है, बच्चे का जन्म होता है आज भी बधाई देने वाले किन्नरों की टोली में में भी शामिल होती हैं. आईये जानते हैं ज्योता मंडल की कहानी उन्हीं की जुबानी...
मेरा नाम ज्योता मंडल है. कोलकाता में जन्म हुआ है मेरा. बचपन में लड़कों वाले लक्षण थे. तब नाम था जयंत मंडल. जब बड़ा होने लगा तो मेरे शरीर में महिलाओं वाले लक्षण आने लगे. मुझे महिलाओं की तरफ रहना अच्छा लगने लगा. इन बातों से घर के लोगों को परेशानी होने लगी. वो चाहते थे कि मैं लड़का हूँ और मुझे लड़के की तरह ही रहना चाहिए. मेरे मन में जो कश्मकश चल रहा था, उन्हें ये सब पता नहीं था. मुझे लगता था कि इस तरह कब तक यूँ चुप रहूंगी. पर परिवार को नाराज़ भी नहीं करना चाहती थी. नौकरी का बहाना कर घर छोड़ कर चली गई.
बांग्लादेश, भूटान, नेपाल की सीमा के करीब बंगाल का छोटा सा शहर है दिनाजपुर. यहाँ के लोग मुझे एक अज़नबी की तरह देखते थे- जैसे पता नहीं कौन है कहाँ से आई है वगैरह. वगैरह... दिनाजपुर में 2 लोगों के साथ मिलकर मैंने एक समाज सेवी संस्था बनाई. यहाँ अपनी संस्था के काम के सिलसिले में मुझे पास के शहर इस्लामपुर आना पड़ता था. एक बार मुझे लौटने में देर हो गई तो मैंने सोचा होटल में रुक जाऊंगी. होटल पहुंची तो मुझे देख कर उन्होंने रूम देने से मना कर दिया. सारे पेपर्स दिखाए पर वो रूम देने के लिए तैयार नहीं हुए. और ये कोई एक बार नहीं हुआ. जब होटल में खाने जाती तो वो सोचते मैं पैसे मांगने आई हूँ. पैसा देने के बावजूद वो खाना नहीं देते थे. हमारी संस्था के लोग भी छुप-छुप कर मिलते थे. पर दिल में ये बात हमेशा बैठी होती थी कि हमें भी ज़माने को दिखाना है. माँ-बाप का लगातार फ़ोन भी आता रहता. उन्हें तस्सली दिलाती की मुझे यहाँ नौकरी मिल गई है.
घर से बाहर निकलने के कोई 3 साल बाद मुझे एक प्रोजेक्ट मिला. नाम था पहचान था. पहचान का मक़सद था. हमारी तरह के इंसानों को अलग पहचान दिलाना. हम सब लोगों ने साथ मिलकर काम करना शुरू किया. हमारी मेहनत रंग लाने लगी थी. इस बीच राज्य सरकार से भी हमने सम्पर्क किया. अब रस्ते थोड़े आसान होने लगे थे. इस्लामपुर में ही किराये पर मकान भी मिल गया. मैं इस्लामपुर में ही किराये का मकान लेकर रहने लगी. 2014 में ट्रांसजेंडर (किन्नर) की पहचान के साथ मेरा कार्ड बना. राज्य में किसी ट्रांसजेंडर को मिलने वाला ये पहला पहचान पत्र था. फिर मैंने अपना नाम बदल लिया. हमलोग न सिर्फ अपनी कम्युनिटी के लिए काम करते हैं बल्कि दूसरे कमज़ोर तबके के लिए भी जहाँ तक हो पता है हम काम करते हैं. मानव तस्करी के खिलाफ हमने बहुत काम किया है.
हम किन्नरों ने मिलकर एक ओल्ड ऐज होम बनाया जहाँ हम बेसहारा बुजुर्गों को आशियाना देते हैं और उनकी सेवा कर हमलोग खुद को धन्य समझते हैं. हम लोग बचे हुए खाने को इकट्ठा कर जरूरतमंद लोगों तक खाना भी पहुंचते हैं. हमारे काम को देखते हुए जिला मजिस्ट्रेट ने हमारी सहायता करनी शुरू कर दी. उन्होंने मुझे डिस्ट्रिक लीगल जज से मिलवाया और मुझे नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी में काम करने का मौका मिला. इन अदालतों में 3 जजों का बेंच होता है. इसमें एक जुडिशियल सर्विस के जज, एक वकील और एक सोशल वर्कर होते हैं. मुझे सोशल वर्कर की केटेगरी में इस बेंच में जगह मिली है.
अब मुझे लोग हैसियत वाली समझते हैं और आम तौर पर किन्नरों को होने वाली परेशानी अब नहीं झेलनी पड़ती. मैं किन्नर हूँ, मेरी ये संस्कृति है, हमें इसे बरक़रार रखना चाहिए. हिज़रा मेरा पेशा है इसलिए आज भी वक़्त मिलने पर मैं ये काम करती हूं. लोगों को पता नहीं था कि ज्योता कौन है. उस वक़्त मुझे साथ देने के लिए एक इंसान नहीं था. पर संघर्ष ने बहुत साथ दिए और आज इस मुक़ाम पर पहुँचाया. पर जीवन के वो पल आज भी दिल के एक कोने में अपनी अहमियत याद दिलाता रहता है. आज जज कि जिस कुर्सी पर बैठती हूँ वहां से महज़ 10 किलोमीटर दूर वो होटल आज भी है जिसने मुझे रूम देने से इनकार कर दिया था. आज जब सुरक्षा कर्मियों के साथ कार में निकलती हूँ तो लोग सलूट करते हैं पर मैं तब भी वो दिन नहीं भूलती जब वहीँ कहीं सड़क के किनारे मुझे भीख मांगना पड़ा था क्योंकि कोई काम देने को तैयार नहीं था. जज की कुर्सी पर बैठकर हमेशा कमज़ोर तबके के लोगों की आवाज़ बनने की कोशिश करती हूँ. पर आज भी पुराने पेशे को उतना ही प्यारा और सम्मान देती हूँ. जब किसी घर में शादी होती है, बच्चे का जन्म होता है आज भी बधाई देने वाले किन्नरों की टोली में मैं भी होती हूँ. ये सिलसिला जिंदगीभर यूँ ही चलता रहेगा.
(लोगों के बीच उनकी समस्या सुनतीं ज्योता)
मेरा नाम ज्योता मंडल है. कोलकाता में जन्म हुआ है मेरा. बचपन में लड़कों वाले लक्षण थे. तब नाम था जयंत मंडल. जब बड़ा होने लगा तो मेरे शरीर में महिलाओं वाले लक्षण आने लगे. मुझे महिलाओं की तरफ रहना अच्छा लगने लगा. इन बातों से घर के लोगों को परेशानी होने लगी. वो चाहते थे कि मैं लड़का हूँ और मुझे लड़के की तरह ही रहना चाहिए. मेरे मन में जो कश्मकश चल रहा था, उन्हें ये सब पता नहीं था. मुझे लगता था कि इस तरह कब तक यूँ चुप रहूंगी. पर परिवार को नाराज़ भी नहीं करना चाहती थी. नौकरी का बहाना कर घर छोड़ कर चली गई.
(ज्योता मंडल)
बांग्लादेश, भूटान, नेपाल की सीमा के करीब बंगाल का छोटा सा शहर है दिनाजपुर. यहाँ के लोग मुझे एक अज़नबी की तरह देखते थे- जैसे पता नहीं कौन है कहाँ से आई है वगैरह. वगैरह... दिनाजपुर में 2 लोगों के साथ मिलकर मैंने एक समाज सेवी संस्था बनाई. यहाँ अपनी संस्था के काम के सिलसिले में मुझे पास के शहर इस्लामपुर आना पड़ता था. एक बार मुझे लौटने में देर हो गई तो मैंने सोचा होटल में रुक जाऊंगी. होटल पहुंची तो मुझे देख कर उन्होंने रूम देने से मना कर दिया. सारे पेपर्स दिखाए पर वो रूम देने के लिए तैयार नहीं हुए. और ये कोई एक बार नहीं हुआ. जब होटल में खाने जाती तो वो सोचते मैं पैसे मांगने आई हूँ. पैसा देने के बावजूद वो खाना नहीं देते थे. हमारी संस्था के लोग भी छुप-छुप कर मिलते थे. पर दिल में ये बात हमेशा बैठी होती थी कि हमें भी ज़माने को दिखाना है. माँ-बाप का लगातार फ़ोन भी आता रहता. उन्हें तस्सली दिलाती की मुझे यहाँ नौकरी मिल गई है.
(लोगों के बीच समाजसेवा का संदेश देतीं ज्योता)
घर से बाहर निकलने के कोई 3 साल बाद मुझे एक प्रोजेक्ट मिला. नाम था पहचान था. पहचान का मक़सद था. हमारी तरह के इंसानों को अलग पहचान दिलाना. हम सब लोगों ने साथ मिलकर काम करना शुरू किया. हमारी मेहनत रंग लाने लगी थी. इस बीच राज्य सरकार से भी हमने सम्पर्क किया. अब रस्ते थोड़े आसान होने लगे थे. इस्लामपुर में ही किराये पर मकान भी मिल गया. मैं इस्लामपुर में ही किराये का मकान लेकर रहने लगी. 2014 में ट्रांसजेंडर (किन्नर) की पहचान के साथ मेरा कार्ड बना. राज्य में किसी ट्रांसजेंडर को मिलने वाला ये पहला पहचान पत्र था. फिर मैंने अपना नाम बदल लिया. हमलोग न सिर्फ अपनी कम्युनिटी के लिए काम करते हैं बल्कि दूसरे कमज़ोर तबके के लिए भी जहाँ तक हो पता है हम काम करते हैं. मानव तस्करी के खिलाफ हमने बहुत काम किया है.
(लोगों से सम्मान स्वीकार करतीं ज्योता)
हम किन्नरों ने मिलकर एक ओल्ड ऐज होम बनाया जहाँ हम बेसहारा बुजुर्गों को आशियाना देते हैं और उनकी सेवा कर हमलोग खुद को धन्य समझते हैं. हम लोग बचे हुए खाने को इकट्ठा कर जरूरतमंद लोगों तक खाना भी पहुंचते हैं. हमारे काम को देखते हुए जिला मजिस्ट्रेट ने हमारी सहायता करनी शुरू कर दी. उन्होंने मुझे डिस्ट्रिक लीगल जज से मिलवाया और मुझे नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी में काम करने का मौका मिला. इन अदालतों में 3 जजों का बेंच होता है. इसमें एक जुडिशियल सर्विस के जज, एक वकील और एक सोशल वर्कर होते हैं. मुझे सोशल वर्कर की केटेगरी में इस बेंच में जगह मिली है.
(अपनी नीली बत्ती लगी कार में कुछ इस प्रकार चलती हैं ज्योता)
अब मुझे लोग हैसियत वाली समझते हैं और आम तौर पर किन्नरों को होने वाली परेशानी अब नहीं झेलनी पड़ती. मैं किन्नर हूँ, मेरी ये संस्कृति है, हमें इसे बरक़रार रखना चाहिए. हिज़रा मेरा पेशा है इसलिए आज भी वक़्त मिलने पर मैं ये काम करती हूं. लोगों को पता नहीं था कि ज्योता कौन है. उस वक़्त मुझे साथ देने के लिए एक इंसान नहीं था. पर संघर्ष ने बहुत साथ दिए और आज इस मुक़ाम पर पहुँचाया. पर जीवन के वो पल आज भी दिल के एक कोने में अपनी अहमियत याद दिलाता रहता है. आज जज कि जिस कुर्सी पर बैठती हूँ वहां से महज़ 10 किलोमीटर दूर वो होटल आज भी है जिसने मुझे रूम देने से इनकार कर दिया था. आज जब सुरक्षा कर्मियों के साथ कार में निकलती हूँ तो लोग सलूट करते हैं पर मैं तब भी वो दिन नहीं भूलती जब वहीँ कहीं सड़क के किनारे मुझे भीख मांगना पड़ा था क्योंकि कोई काम देने को तैयार नहीं था. जज की कुर्सी पर बैठकर हमेशा कमज़ोर तबके के लोगों की आवाज़ बनने की कोशिश करती हूँ. पर आज भी पुराने पेशे को उतना ही प्यारा और सम्मान देती हूँ. जब किसी घर में शादी होती है, बच्चे का जन्म होता है आज भी बधाई देने वाले किन्नरों की टोली में मैं भी होती हूँ. ये सिलसिला जिंदगीभर यूँ ही चलता रहेगा.
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