"जनहित के नाम पर निजी हित के मकसद से याचिका दाखिल करना न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग " : इलाहाबाद हाईकोर्ट

कोर्ट ने इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि पिछले 40 सालों में, वादियों का एक नया पंथ सामने आया है. जो लोग इस पंथ के हैं उनका सत्य के लिए कोई सम्मान नहीं है. वे बेशर्मी से झूठ का सहारा लेते हैं.

नई दिल्ली:

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका के मामले की सुनवाई में टिप्पणी करते हुए कहा है कि अब लोग व्यक्तिगत लाभ लेने के लिए जनहित याचिका दाखिल करके न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग कर रहे हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि न्याय की धारा को प्रदूषित करने का प्रयास करने वाला न्यायपालिका से 'अंतरिम' या 'अंतिम' किसी भी राहत का हकदार नहीं होता है. हाईकोर्ट ने कहा कि गरीबों, मजलूमों को न्याय दिलाने व मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए ही जनहित याचिका दायर की जा सकती है. निजी हित को लेकर जनहित याचिका न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग है. कोर्ट ने कहा कि तथ्य छिपाकर याचिका दाखिल करना झूठ बोलने के समान है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणी की. दरअसल अपने भतीजे के खिलाफ एसडीओ बिलासपुर, जिला रामपुर द्वारा जारी आदेश लागू कराने की मांग में ताऊ की तरफ से बदले की भावना से दाखिल जनहित याचिका 25 हजार रुपये हर्जाने के साथ खारिज कर दी और रामपुर जिलाधिकारी को हर्जाना वसूल कर एक महीने में रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया है. कोर्ट ने महानिबंधक से कहा है कि हर्जाना राशि प्रयागराज के खुल्दाबाद स्थित राजकीय बाल शिशु गृह के बैंक खाते में जमा कराएं, जिसका इस्तेमाल बच्चों के हित में किया जाए.

ये आदेश जस्टिस एम के गुप्ता तथा जस्टिस क्षितिज शैलेन्द्र की खंडपीठ ने इंदर सिंह मेहरा की जनहित याचिका पर दिया है. याचिकाकर्ता का कहना था कि उसने एसडीओ के 25 अक्टूबर 2021 के आदेश को पर्यावरण संरक्षण के लिए लागू कराने की मांग की थी. इसमें उसका कोई हित नहीं है, लेकिन सुनवाई के दौरान पता चला कि याचिका दायर करने वाला विपक्षी का ताऊ है और जमीन बंटवारे को लेकर विवाद चल रहा है. कोर्ट ने तमाम सुप्रीम कोर्ट की नजीरों के हवाले से कहा कि स्वच्छ हृदय से ही जनहित याचिका दायर की जानी चाहिए. सच छिपाकर याचिका दाखिल नहीं की जा सकती और याचिका हर्जाने के साथ खारिज कर दी.

हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण फैसले का हवाला देते हुए कहा कि कई शताब्दियों तक भारतीय समाज ने दो बुनियादी बातों को महत्व दिया, जिसमें जीवन के मूल्य अर्थात 'सत्य' (Truth) और 'अहिंसा' (Non-violence) शामिल है. महावीर, गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी ने लोगों को इन मूल्यों को अपने दैनिक जीवन में अपनाने के लिए निर्देशित किया था. सत्य न्याय-वितरण का एक अभिन्न अंग था, वो प्रणाली जो स्वतंत्रता-पूर्व युग में प्रचलित थी और लोग अदालतों में बिना परिणामों की परवाह किए सच बोलने में गर्व महसूस करते थे.

अदालत ने कहा कि आजादी के बाद के दौर में हमारे मूल्यों में भारी बदलाव आया है. अब अदालत की कार्यवाही में भौतिकवाद ने पुराने लोकाचार पर ग्रहण लगा दिया है और व्यक्तिगत लाभ की तलाश इतनी तीव्र हो गई कि मुकदमेबाजी में उलझे लोग झूठ, गलत बयानी और तथ्यों को दबाकर इसका आश्रय लेने से भी नहीं हिचकिचाते.
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कोर्ट ने इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि पिछले 40 सालों में, वादियों का एक नया पंथ सामने आया है. जो लोग इस पंथ के हैं उनका सत्य के लिए कोई सम्मान नहीं है. वे बेशर्मी से झूठ का सहारा लेते हैं और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनैतिक साधन का सहारा लेते हैं. वादियों के इस नए पंथ द्वारा उत्पन्न हो रही चुनौती से निपटने के लिए अदालतों ने समय-समय पर नए नियम विकसित किए हैं और यह अब यह अच्छी तरह से स्थापित हो गया है कि एक वादी, जो न्याय की धारा को प्रदूषित करने का प्रयास करता है या जो अपने दागी हाथों से न्याय के शुद्ध झरने को छूता है वो न्यायपालिका से अंतरिम या अंतिम किसी भी राहत का हकदार नहीं होता.