- गिग वर्कर्स ने क्रिसमस के बाद अब न्यू इयर ईव यानी 31 दिसंबर को हड़ताल पर जाने का ऐलान किया है
- एक सर्वे की मानें तो 64% राइडर्स रोज 600 से कम कमाते हैं. खर्चा काटने के बाद महीने में 10 हजार भी नहीं बचते
- प्रमुख मांगों में 10 मिनट डिलीवरी मॉडल खत्म करना, न्यूनतम इनकम, बीमा और उत्पीड़न से सुरक्षा आदि शामिल है
मिनटों में डिलीवरी... चाहे तपती धूप हो या कड़कड़ाती ठंड, आंधी-बारिश हो या फिर घना कोहरा... हर मुश्किल को पार करके आपके घर तक सामान पहुंचाने वाले डिलीवरी वर्कर्स आज की मेट्रो जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुके हैं. लेकिन जो राइडर आपकी खाने-पीने और ग्रॉसरी जैसी जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ ही मिनटों में दरवाजे पर दस्तक देता है, उसकी अपनी लाइफ एक अंतहीन संघर्ष बन चुकी है.
गिग वर्कर्स कहे जाने वाले इन डिलीवरी एजेंटों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली संस्था इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स ने इनकी बदहाली की तरफ ध्यान खींचने के लिए न्यू इयर ईव यानी 31 दिसंबर को हड़ताल का ऐलान किया है. उनकी स्ट्राइक का असर क्रिसमस पर भी दिखा था, जब स्विगी, जोमैटो, जेप्टो और ब्लिंकिट जैसी कंपनियों की सर्विस में बाधा आई थी.

जिंदगी आसान बनाते डिलीवरी बॉय
भारत में कुल कितने डिलीवरी बॉय हैं, इसकी सही संख्या का वैसे तो कोई आधिकारिक डेटा नहीं है. हालांकि नीति आयोग की 2022 की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि 2020-21 में करीब 77 लाख लोग गिग वर्क से जुड़े थे. 2024 तक यह संख्या बढ़कर 80 लाख से 1.8 करोड़ के बीच होने का अनुमान था. इसमें फूड व सामान की डिलीवरी करने वाले और ऐप बेस्ड कार-बाइक टैक्सी सर्विस देने वाले भी शामिल हैं.

कमरतोड़ मेहनत, चुनौतियां हजार
ये डिलीवरी वर्कर्स देश की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा बन चुके हैं, लेकिन इन्हें अभी भी कर्मचारी के बजाय केवल 'पार्टनर' मानकर कानूनी सुरक्षा से दूर रखा गया है. कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें नाममात्र की इनकम, काम का बेतहाशा दबाव, असुरक्षित नौकरी, शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं और हिंसा जैसी समस्याएं झेलनी पड़ती हैं.

आंकड़ों में डिलीवरी वर्कर्स का दर्द
गैर लाभकारी संस्था PAIGAM (पैगाम) ने 2022-23 में 5 हजार डिलीवरी और टैक्सी वर्कर्स पर एक सर्वे किया था. पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी और इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स के साथ मिलकर ये सर्वे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरू और लखनऊ जैसे बड़े शहरों में किया गया. वर्कर्स ऑन व्हील्स नाम से इस सर्वे से चौंकाने वाली जानकारियां सामने आईं-
- काम के लंबे घंटे: लगभग 55% राइडर्स दिन में 10 से 12 घंटे काम करते हैं जबकि 20% राइडर्स 14 घंटे तक अपने काम को देते हैं.
- नाममात्र की कमाई: 64% राइडर्स की रोजाना की कमाई महज 200 से 600 रुपये के बीच है. 34 फीसदी से ज्यादा का कहना था कि वाहन की किस्त (EMI), पेट्रोल और मेंटिनेंस का खर्चा निकालने के बाद वो महीने में 10 हजार रुपये भी नहीं कमा पाते.
- छुट्टी का नामोनिशान नहीं: करीब आधे राइडर्स महीने में एक भी छुट्टी नहीं लेते. रोजाना 100 से 150 किलोमीटर बाइक चलाने के बावजूद 49.8% राइडर्स के पास परिवार को देने के लिए दिन में 1-2 घंटे भी नहीं बचते.
'10 मिनट डिलीवरी' मॉडल पर बवाल
जेप्टो, ब्लिंकिट, इंस्टामार्ट और फ्लिपकार्ट मिनिट्स जैसी कंपनियां 10 मिनट में ग्राहकों के घर तक सामान पहुंचाने का वादा इन्हीं की बदौलत पूरा करती हैं. इसके बावजूद अधिकतर कंपनियां इन्हें कोई भी हेल्थ या एक्सीडेंट इंश्योरेंस प्रदान नहीं करतीं. अगर कोई बीमारी हो जाए या एक्सीडेंट हो जाए तो इनका भगवान ही मालिक होता है.
गिग वर्कर्स की हड़ताल की सबसे बड़ी वजहों में से एक क्विक कॉमर्स कंपनियों का 10 मिनट में डिलीवरी देने वाला मॉडल है. रिपोर्ट के मुताबिक, 86% राइडर्स इस मॉडल को अनसेफ मानते हैं और कहते हैं कि उन्हें अपनी जान जोखिम में डालकर कंपनी की शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं. सड़क पर हादसों का डर हमेशा बना रहता है.

गिग वर्कर्स की क्या हैं प्रमुख मांगें?
डिलीवरी पार्टनर्स की यूनियनों की प्रमुख मांगों में 10 मिनट डिलीवरी मॉडल को वापस लेना, न्यूनतम इनकम की गारंटी सुनिश्चित करना,
हेल्थ व दुर्घटना बीमा देना और काम के दौरान होने वाली हिंसा व उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करना शामिल है.
नए साल का जश्न फीका कर सकती है स्ट्राइक
इसी तरह की मांगों को लेकर डिलीवरी पार्टनर्स ने क्रिसमस के दिन हड़ताल की थी. गुरुग्राम जैसे कई शहरों में इसकी वजह से क्विक कॉमर्स कंपनियों की सेवाएं बुरी तरह प्रभावित हुईं. अब उन्होंने 31 दिसंबर को स्ट्राइक का ऐलान किया है. अगर कंपनियों और सरकार ने इन पर ध्यान नहीं दिया तो कई लोगों के लिए नए साल का जश्न फीका पड़ सकता है.
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