त्रिपुरा में वाम दलों एवं कांग्रेस का पहला गठबंधन और जनजातीय सीटों पर एक प्रमुख ताकत के रूप में टिपरा मोथा का उभरना भी पूर्वोत्तर के इस राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता से बेदखल करने के लिए पर्याप्त साबित नहीं हुआ. सत्तारूढ़ पार्टी के लिए विकास के मुद्दे, वैचारिक जीवंतता और स्थानीय कारक एक और जीत दिलाने में सफल रहे.
पूर्वोत्तर के जिन तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, उनमें त्रिपुरा के नतीजों पर लोगों की सबसे ज्यादा नजर थी. इसकी वजह यह थी कि इसमें तीन राष्ट्रीय दलों- भाजपा, कांग्रेस और वाम दलों के लिए काफी कुछ दांव पर लगा हुआ था. कुछ विधानसभा चुनावों में हार के झटकों के बावजूद इन नतीजों ने भगवा पार्टी की जीत की लय को बरकरार रखने के महत्व को रेखांकित किया है.
त्रिपुरा चुनाव में भूमिका निभाने वाले एक भाजपा नेता ने कहा, ‘‘अगर 2018 की जीत हमारे वैचारिक और विकास के एजेंडे पर भरोसे का परिणाम थी, तो यह (आज की) जीत इसकी लोकप्रिय स्वीकार्यता को दर्शाती है.'' उन्होंने कहा कि पार्टी को 2018 में 25 साल तक वाम ‘कुशासन' के खिलाफ लोगों के गुस्से का फायदा मिला था और अब उसे केंद्र और राज्य सरकार के काम के लिए सकारात्मक जनादेश मिला है. पार्टी सूत्रों ने कहा कि कई अन्य राज्यों के चुनावों की तरह भाजपा अपने व्यापक वैचारिक और विकास के मुद्दों के साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रिय अपील को अपने अभियान का मुख्य विषय बनाने में सफल रही. संगठनात्मक रूप से कमजोर विपक्ष होने का भी इसे फायदा मिला.
जीत की लय भाजपा के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कर्नाटक में मई में विधानसभा चुनाव होने हैं. इसके बाद इस साल के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में भी विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं. सोलह राज्यों में सत्ता में काबिज भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने नगालैंड में भी आसान जीत दर्ज की, जहां नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) उसका वरिष्ठ साझेदार है.
लेकिन मेघालय में बड़े खिलाड़ी के रूप में उभरने की भाजपा की महत्वाकांक्षा विफल हो गई, क्योंकि इस बार भी वह दो सीटों पर सिमट गई. पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के दो ही उम्मीदवार जीते थे. भाजपा नेतृत्व ने मुख्यमंत्री कोनराड संगमा के नेतृत्व वाली सरकार पर देश की ‘सबसे भ्रष्ट' राज्य सरकार होने का आरोप लगाया था, लेकिन दोनों पार्टियां अब फिर से एक साथ काम करने के लिए सहमत हो सकती हैं. भाजपा संगमा के नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा थी, लेकिन चुनाव से पहले वह अलग हो गई थी.
हालांकि, त्रिपुरा के परिणाम भाजपा के लिए सबसे ज्यादा मायने रखते हैं, क्योंकि इसकी जीत ने इस पूर्ववर्ती वाम गढ़ में पार्टी की लोकप्रिय स्वीकृति को रेखांकित किया है, जिसे उसने 2018 में पहली बार जीता था. भाजपा के वोट प्रतिशत के साथ-साथ सीटों की संख्या में नुकसान हुआ है, लेकिन उसके लिए अच्छी बात ये रही कि वाम-कांग्रेस गठबंधन भी उसका मुकाबला करने में विफल रहा.
भाजपा ने 60-सदस्यीय विधानसभा में 32 सीटें जीती हैं, जबकि 2018 में उसने 36 सीटों पर जीत दर्ज की थी. विपक्षी गठबंधन को 14 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. माकपा ने 2018 में 16 सीटें जीती थीं, जब उसने अपने दम पर चुनाव लड़ा था. पिछली बार कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी. हालांकि, भाजपा के लिए चिंता का विषय प्रद्युत देबबर्मा के नेतृत्व वाले टिपरा मोथा का उदय और आईपीएफटी का कमजोर होना है. भाजपा की सहयोगी आईपीएफटी इस बार एकमात्र सीट जीत सकी है.
भाजपा को अपने ही सबसे प्रमुख जनजातीय चेहरे और उपमुख्यमंत्री जिष्णु देव वर्मा को टिपरा मोथा के प्रतिद्वंद्वी सुबोध देब बर्मा के हाथों हार की शर्मिंदगी का भी सामना करना पड़ा है. पार्टी सूत्रों ने कहा कि उनका नेतृत्व पूर्ववर्ती शाही परिवार के वंशज प्रद्युत देबबर्मा के साथ गठबंधन की संभावना तलाश सकता है, अगर वह ‘वृहद टिपरालैंड' के अलग राज्य की अपनी मांग छोड़ देते हैं.
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