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राजस्थान की तपती गर्मी में भी फल फूल रहे हैं सेब के बाग, टूट रहा 'ठंडे इलाके' का मिथक

बागवानी विशेषज्ञ कहते हैं कि सेब के पौधों के बड़े होने के बाद न्यूनतम सिंचाई की आवश्यकता होती है. बागवानी उप निदेशक मदन लाल जाट ने बताया कि जब सेब का पौधा पांच साल का हो जाता है, तब तक उसे हर दो सप्ताह में एक बार पानी की आवश्यकता होती है.

राजस्थान की तपती गर्मी में भी फल फूल रहे हैं सेब के बाग, टूट रहा 'ठंडे इलाके' का मिथक
जयपुर:

परंपरागत रूप से सेब के पेड़ जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों में पाये जाते हैं, जहां की जलवायु ठंडी होती है लेकिन इसके फल अब सबसे अप्रत्याशित जगह राजस्थान में भी आ रहे हैं. आम तौर पर अपने तपते थार और झुलसा देने वाली गर्मी के लिए जाने जाने वाला राजस्थान में अब अनेक जगह सेब के बाग दिखने लगे हैं. विशेष रूप से सीकर और झुंझुनू जिले में सेब के बाग हैं.

सीकर के बेरी गांव की किसान संतोष खेदड़ ने कभी नहीं सोचा था कि 2015 में गुजरात में राष्ट्रीय नवाचार फाउंडेशन से उन्हें मिला सेब का एक पौधा उनके खेतों की दशा व दिशा ही बदल देगा. आज उनके बाग से हर मौसम में 6,000 किलोग्राम से अधिक सेब की उपज हो रही है. यह 'सेब' के बागों के लिए प्रतिकूल मानी जानी वाली राज्य की परिस्थितियों के मद्देनजर बड़ी बात कही जा सकती है.

इस किसान परिवार ने परंपरागत रूप से अपने 1.25 एकड़ खेत में नींबू, अमरूद आदि के बाग लगा रखे हैं और यह परिवार रेगिस्तान की गर्मी में सेबों के बाग सफल होने को लेकर संशय में था. संतोष याद करती हैं, "पड़ोसियों ने हमारे विचार को खारिज कर दिया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि ऐसी विषम परिस्थितियों में सेब के बाग सफल नहीं होंगे."

राजस्थान राज्य के बाकी हिस्सों की तरह इन दोनों जिलों में भी भीषण गर्मी पड़ती है और तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाता है. हालांकि इसके बावजूद संतोष ने जोखिम उठाने का दृढ़ निश्चय किया और अपनी योजना पर आगे बढ़ीं.

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संतोष कहती हैं, "हमने पौधे को पानी दिया और आवश्यकतानुसार जैविक खाद का इस्तेमाल किया. एक साल बाद जोखिम का नतीजा मिला."

संतोष ने आत्मविश्वास से भरी मुस्कान के साथ कहा, "हम पौधों के सेब लगते देखकर हैरान रह गए. दूसरे साल लगभग 40 किलोग्राम सेब निकले."

नतीजों से उत्साहित होकर इस परिवार ने ग्राफ्टिंग तकनीक का इस्तेमाल करके अपने बगीचे में सेब के पौधों की संख्या 100 तक कर दी.

संतोष के बेटे राहुल ने कहा, "चूंकि हमारे पास राजस्थान ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन एजेंसी से ऑर्गेनिक खेती का सर्टिफिकेट है, इसलिए हम (अब) अपने सेब 150 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचते हैं."

वे इस सफलता का श्रेय सेब की किस्म एचआरएमएन-99 को देते हैं, जिसे विशेष रूप से उच्च तापमान को झेलने के लिए विकसित किया गया है.

कृषि विषय के छात्र राहुल ने बताया कि यह किस्म उन इलाकों में भी फल फूल सकती है, जहां गर्मियों में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक होता है. इस किस्म के पौधों को अतिरिक्त पानी की आवश्यकता नहीं होती.

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बागवानी विशेषज्ञ कहते हैं कि सेब के पौधों के बड़े होने के बाद न्यूनतम सिंचाई की आवश्यकता होती है. बागवानी उप निदेशक मदन लाल जाट ने बताया कि जब सेब का पौधा पांच साल का हो जाता है, तब तक उसे हर दो सप्ताह में एक बार पानी की आवश्यकता होती है. उन्होंने बताया कि फरवरी में फूल आना शुरू हो जाते हैं और जून तक सेब पककर तैयार हो जाते हैं.

कभी किसान संतोष के प्रयासों पर संदेह करने वाले लोग अब उनकी सफलता से सीखने को उत्सुक हैं. वह गर्व से मुस्कुराते हुए कहती हैं, "जो लोग मुझ पर हंसते थे, वे अब पौधे मांग रहे है." उनकी सफलता से प्रेरित होकर, कटराथल गांव के एक किसान ने भी 50 सेब के पेड़ लगाए हैं.

विशेषज्ञों का मानना है कि यह एक बड़े बदलाव की शुरुआत है. जाट ने बताया कि एक दशक पहले बाड़मेर में किसानों ने खजूर और अनार उगाना शुरू किया था. उन्होंने कहा कि अब चित्तौड़गढ़ और भीलवाड़ा में भी स्ट्रॉबेरी की खेती हो रही है. उन्होंने कहा कि अगले पांच साल में राज्य के और इलाकों में सेब की खेती शुरू हो सकती है.

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