प्रतीकात्मक तस्वीर...
नई दिल्ली:
नरेंद्र मोदी सरकार ने दो साल पूरा होने से पहले एक बड़ी अहम नीति का सौदा जारी किया है, जिसकी तैयारी पिछले करीब दो साल से हो रही थी। सरकार के मुताबिक, ये नीति आविष्कारों को प्रोत्साहन देने के लिए है, लेकिन इससे ये डर भी बढ़ रहा है कि आपकी हमारी जेब पर बोझ बढ़ेगा और विदेशी कंपनियां हमारे खेतों से लेकर स्कूल-कालेजों तक अपना दबदबा बढ़ाएंगी।
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देश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स के सामने हमारी मुलाकात 35 साल के दिनेश से होती है, जो अपने पिता के लिए दिल की बीमारियों की दवा खरीद रहे हैं। वह कहते हैं कि हर रोज़ हज़ार-बारह सौ रुपये खर्च हो जाना मामूली बात है। दिनेश दवा के बढ़ते बिल से परेशान हैं, लेकिन ये परेशानी अकेले उनकी नहीं है। अपने भाई का इलाज कराने आए सलमान भी महंगी दवाओं से परेशान हैं।
दवाइयों की आसमान छूती कीमतें हर मरीज और उसके परिवार के लिए सिरदर्द है, क्योंकि आज मरीज को बीमार पड़ने पर 70 फीसद खर्च अपनी जेब से देना पड़ता है। ऐसे हाल में दवाओं की कीमतें कम करना सरकार की प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए, लेकिन केंद्र सरकार के 2 साल पूरा होने से ठीक पहले जारी जिस एक नीति का दस्तावेज़ जारी किया है, वह परेशान करने वाला है। उससे न केवल इस बात की आशंका है कि आने वाले दिनों में दवाएं महंगी होंगी, बल्कि जिंदगी की कई ज़रूरतें हासिल करना महंगा हो सकता है। मोदी सरकार की नई इंटलैक्चुअल प्रॉपर्टी राइट (आईपीआर) पॉलिसी का मसौदा इसी साल 12 मई को जारी किया गया, जिसे पढ़ने से पता चलता है कि सरकार देश में और कड़े आईपीआर कानून बनाना चाहती है।
सरकार की ये नीति इंटलेक्चुल प्रॉपर्टी को बाज़ार में बिकने लायक पूंजी और आर्थिक हथियार बनाने की बात करता है। साथ ही ये नीति तमाम भारतीय और विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियों को आईपीआर कानून का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने और पेटेंट राज को बढ़ाने के लिए उत्साहित करती है। सरकार कहती है कि इस नीति से नई-नई खोजों और आविष्कारों को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन डब्लूटीओ पर रिसर्च कर रहे जानकार इससे सहमत नहीं हैं।
दिल्ली स्थित भारतीय विदेश व्यापार संस्थान में सेंटर फॉर डब्लूटीओ स्टडीज़ के प्रमुख प्रोफेसर अभिजीत दास कहते हैं, 'आज तक कहीं भी ये साबित नहीं हुआ है कि कड़े आईपीआर कानून आविष्कार औऱ नई खोजों को बढ़ावा देते हैं। इसलिए ये कहना कि नई खोजों के लिए कड़े आईपीआर बनाए जा रहे हैं, मैं इससे सहमत नहीं हूं।'
नई नीति को सरकार क्रिएटिव इंडिया, इनोवेटिव इंडिया के नारे से जोड़ रही है, लेकिन इस नीति के पीछे अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव दिखता है जो दवाओं से लेकर कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में पेटेंट राज को बढ़ाना चाहती हैं। सच ये है कि जब हमारे देश में कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, टेक्नोलॉज़ी और मनोरंजन के अलावा तमाम क्षेत्रों के लिए आईपीआर से जुड़े कानून पहले से हैं जो डब्लूटीओ जैसी अंतरऱाष्ट्रीय संधियों के मुताबिक हैं... ऐसे में इस नीति की ज़रूरत पर ही सवाल खड़ा किया जा रहा है।
कानूनी शोधकर्ता और नीति विशेषज्ञ शालिनी भुटानी कहती हैं, 'अमेरिकी कंपनियों का दबाव हमेशा से रहा है। वह हमारे बाज़ार और अर्थव्यवस्था को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। हमारे पास अलग-अलग क्षेत्रों में आईपीआर से जुड़े कई कानून हैं जो विश्व व्यापार संगठन के पैमानों के अनुकल हैं, इसलिए हमें सिर्फ अमेरिका के दबाव में बदलाव नहीं करने चाहिए।'
हालांकि सरकार इस नीति में ये भी कह रही है कि नई आईपीआर के तहत वह कंपनियों के साथ-साथ जनहित का पूरा खयाल रखेगी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले ये सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या हमारी आईपीआर नीति में ये बदलाव सिर्फ क्रिएटिविटी के लिए है या फिर ये अमेरिका को खुश करने के लिए भी है।
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देश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स के सामने हमारी मुलाकात 35 साल के दिनेश से होती है, जो अपने पिता के लिए दिल की बीमारियों की दवा खरीद रहे हैं। वह कहते हैं कि हर रोज़ हज़ार-बारह सौ रुपये खर्च हो जाना मामूली बात है। दिनेश दवा के बढ़ते बिल से परेशान हैं, लेकिन ये परेशानी अकेले उनकी नहीं है। अपने भाई का इलाज कराने आए सलमान भी महंगी दवाओं से परेशान हैं।
दवाइयों की आसमान छूती कीमतें हर मरीज और उसके परिवार के लिए सिरदर्द है, क्योंकि आज मरीज को बीमार पड़ने पर 70 फीसद खर्च अपनी जेब से देना पड़ता है। ऐसे हाल में दवाओं की कीमतें कम करना सरकार की प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए, लेकिन केंद्र सरकार के 2 साल पूरा होने से ठीक पहले जारी जिस एक नीति का दस्तावेज़ जारी किया है, वह परेशान करने वाला है। उससे न केवल इस बात की आशंका है कि आने वाले दिनों में दवाएं महंगी होंगी, बल्कि जिंदगी की कई ज़रूरतें हासिल करना महंगा हो सकता है। मोदी सरकार की नई इंटलैक्चुअल प्रॉपर्टी राइट (आईपीआर) पॉलिसी का मसौदा इसी साल 12 मई को जारी किया गया, जिसे पढ़ने से पता चलता है कि सरकार देश में और कड़े आईपीआर कानून बनाना चाहती है।
सरकार की ये नीति इंटलेक्चुल प्रॉपर्टी को बाज़ार में बिकने लायक पूंजी और आर्थिक हथियार बनाने की बात करता है। साथ ही ये नीति तमाम भारतीय और विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियों को आईपीआर कानून का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने और पेटेंट राज को बढ़ाने के लिए उत्साहित करती है। सरकार कहती है कि इस नीति से नई-नई खोजों और आविष्कारों को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन डब्लूटीओ पर रिसर्च कर रहे जानकार इससे सहमत नहीं हैं।
दिल्ली स्थित भारतीय विदेश व्यापार संस्थान में सेंटर फॉर डब्लूटीओ स्टडीज़ के प्रमुख प्रोफेसर अभिजीत दास कहते हैं, 'आज तक कहीं भी ये साबित नहीं हुआ है कि कड़े आईपीआर कानून आविष्कार औऱ नई खोजों को बढ़ावा देते हैं। इसलिए ये कहना कि नई खोजों के लिए कड़े आईपीआर बनाए जा रहे हैं, मैं इससे सहमत नहीं हूं।'
नई नीति को सरकार क्रिएटिव इंडिया, इनोवेटिव इंडिया के नारे से जोड़ रही है, लेकिन इस नीति के पीछे अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव दिखता है जो दवाओं से लेकर कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में पेटेंट राज को बढ़ाना चाहती हैं। सच ये है कि जब हमारे देश में कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, टेक्नोलॉज़ी और मनोरंजन के अलावा तमाम क्षेत्रों के लिए आईपीआर से जुड़े कानून पहले से हैं जो डब्लूटीओ जैसी अंतरऱाष्ट्रीय संधियों के मुताबिक हैं... ऐसे में इस नीति की ज़रूरत पर ही सवाल खड़ा किया जा रहा है।
कानूनी शोधकर्ता और नीति विशेषज्ञ शालिनी भुटानी कहती हैं, 'अमेरिकी कंपनियों का दबाव हमेशा से रहा है। वह हमारे बाज़ार और अर्थव्यवस्था को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। हमारे पास अलग-अलग क्षेत्रों में आईपीआर से जुड़े कई कानून हैं जो विश्व व्यापार संगठन के पैमानों के अनुकल हैं, इसलिए हमें सिर्फ अमेरिका के दबाव में बदलाव नहीं करने चाहिए।'
हालांकि सरकार इस नीति में ये भी कह रही है कि नई आईपीआर के तहत वह कंपनियों के साथ-साथ जनहित का पूरा खयाल रखेगी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले ये सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या हमारी आईपीआर नीति में ये बदलाव सिर्फ क्रिएटिविटी के लिए है या फिर ये अमेरिका को खुश करने के लिए भी है।
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