नई दिल्ली:
वर्ष 1990 में इराक द्वारा कुवैत पर किए गए हमले के बाद रिकॉर्ड संख्या में भारतीयों को सुरक्षित निकाल लाने के किस्से पर बनी अक्षय कुमार की फिल्म 'एयरलिफ्ट' भले ही देशभर के थिएटरों में शानदार कारोबार कर रही है, और पसंद की जा रही है, लेकिन राजनयिक तबका फिल्म को लेकर काफी गुस्से में है।
युद्ध के दौरान कुवैत तथा इराक के दूतावासों में तैनात भारतीय अधिकारियों तथा विदेश मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि फिल्म में उन्हें 'खलनायक' जैसा दिखाया गया है।
राजा मेनन द्वारा लिखित और निर्देशित 'एयरलिफ्ट' में दिखाया गया है कि कुवैत में तैनात राजनयिक खतरे का पहला संकेत मिलते ही देश छोड़कर निकल गए थे।
अब चूंकि दूतावास बंद हो गया था, सो, शरणार्थी कैम्प (रिफ्यूजी कैम्प) चलाने, भोजन की व्यवस्था करने, स्थानीय इराकियों से बातचीत करने और आखिरकार सुरक्षित हिन्दुस्तान लौट जाने की ज़िम्मेदारी अक्षय कुमार सहित स्थानीय व्यापारियों पर आ पड़ी थी, और उन्होंने उड्डयन के इतिहास में दर्ज सबसे बड़ी नागरिक निकासी, जिसमें 1,70,000 भारतीयों को निकाला गया था, को अंजाम देकर दिखाया था।
पूरी फिल्म में एक ही सरकारी प्रतिनिधि संजीव कोहली को 'उपयोगी' भूमिका में दिखाया गया है, जो विदेश मंत्रालय में खाड़ी डेस्क पर तैनात नहीं है, और उसने भी भारतीयों के दबाव में आने के बाद ही मदद की कोशिश की।
इस फिल्म में भारतीय दूतावास और विदेश मंत्रालय की भूमिका को देखकर पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव से रहा नहीं गया, और उन्होंने माइक्रो-ब्लॉगिंग वेबसाइट ट्विटर पर फिल्म की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने लिखा, "1990-91 के खाड़ी युद्ध के दौरान विदेश मंत्रालय की भूमिका के बारे में जानकारी हासिल करने में फिल्म 'एयरलिफ्ट' पूरी तरह नाकाम रही है..."
इस फिल्म को लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। उधर, जब NDTV ने राजा मेनन से बात की, तो उन्होंने कहा कि भारतीय अधिकारियों की छवि अच्छी ही दिखाई गई है, क्योंकि उन्होंने इतने सारे लोगों को सुरक्षित निकलवाने में कामयाबी पाई।
राजा मेनन के अनुसार, "जैसा कि हमने फिल्म में देखा, भारतीय दूतावास के लोग काफी शिष्ट हैं, और उन्होंने ज़रूरत के वक्त मदद की... हमने असली हालात पर फिल्म बनाई है, जो आसान नहीं होते... उदाहरण के तौर पर, आप किसी भी व्यक्ति को जाने बिना उन्हें पासपोर्ट कैसे दे सकते हैं...?"
बहरहाल, 'सच्चाई' की इस खुराक से इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व वाले विदेश मंत्रालय की छवि बिगड़ने के आसार दिखाई देते हैं।
कुवैत के अल जारा अस्पताल में काम करने वाली नर्स ने राजा मेनन के पक्ष की पुष्टि की, और NDTV को बताया कि जिन्हें सबसे पहले निकाला गया, उनका चयन मनमर्ज़ी से किया गया, जिसकी वजह से 'पैसों के भुगतान' की अफवाहों को बल मिला।
एक अन्य महिला जुआनिता, जो अब मुंबई में स्पा चलाती हैं, ने बताया, "पहली कुछ उड़ानों में गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों तथा बीमार लोगों को निकाला जाना था, लेकिन इसके बावजूद वे लोग टिकटें बेच रहे थे, और हमें अमेरिकी डॉलर या किसी अन्य मुद्रा में भुगतान करने के लिए कहा गया... बाद में सभी लोगों को निकाला गया, लेकिन मेरा खयाल है ऐसा तब हुआ था, जब एयर इंडिया ने दखल दिया..."
खाड़ी इलाके के प्रभारी रहे पूर्व राजदूत केपी फाबियान ने वर्ष 2011 में दिए एक इंटरव्यू में पुष्टि की थी कि 14 दिन बाद इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व में एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल जब कुवैत आया था, तो उन्हें गुस्साए स्थानीय लोगों का सामना करना पड़ा था। राजदूत के अनुसार, उन्होंने गुजराल को इन लोगों से नहीं मिलने की सलाह दी थी, लेकिन गुजराल ने उनसे मुलाकात की थी, और उन्हें समझा लिया था।
युद्ध के दौरान कुवैत तथा इराक के दूतावासों में तैनात भारतीय अधिकारियों तथा विदेश मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि फिल्म में उन्हें 'खलनायक' जैसा दिखाया गया है।
राजा मेनन द्वारा लिखित और निर्देशित 'एयरलिफ्ट' में दिखाया गया है कि कुवैत में तैनात राजनयिक खतरे का पहला संकेत मिलते ही देश छोड़कर निकल गए थे।
अब चूंकि दूतावास बंद हो गया था, सो, शरणार्थी कैम्प (रिफ्यूजी कैम्प) चलाने, भोजन की व्यवस्था करने, स्थानीय इराकियों से बातचीत करने और आखिरकार सुरक्षित हिन्दुस्तान लौट जाने की ज़िम्मेदारी अक्षय कुमार सहित स्थानीय व्यापारियों पर आ पड़ी थी, और उन्होंने उड्डयन के इतिहास में दर्ज सबसे बड़ी नागरिक निकासी, जिसमें 1,70,000 भारतीयों को निकाला गया था, को अंजाम देकर दिखाया था।
पूरी फिल्म में एक ही सरकारी प्रतिनिधि संजीव कोहली को 'उपयोगी' भूमिका में दिखाया गया है, जो विदेश मंत्रालय में खाड़ी डेस्क पर तैनात नहीं है, और उसने भी भारतीयों के दबाव में आने के बाद ही मदद की कोशिश की।
इस फिल्म में भारतीय दूतावास और विदेश मंत्रालय की भूमिका को देखकर पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव से रहा नहीं गया, और उन्होंने माइक्रो-ब्लॉगिंग वेबसाइट ट्विटर पर फिल्म की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने लिखा, "1990-91 के खाड़ी युद्ध के दौरान विदेश मंत्रालय की भूमिका के बारे में जानकारी हासिल करने में फिल्म 'एयरलिफ्ट' पूरी तरह नाकाम रही है..."
"Airlift" the movie falls completely short in its research on role of @MEAIndia in 1990-91 Gulf War.
— Nirupama Rao (@NMenonRao) January 25, 2016
इस फिल्म को लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। उधर, जब NDTV ने राजा मेनन से बात की, तो उन्होंने कहा कि भारतीय अधिकारियों की छवि अच्छी ही दिखाई गई है, क्योंकि उन्होंने इतने सारे लोगों को सुरक्षित निकलवाने में कामयाबी पाई।
राजा मेनन के अनुसार, "जैसा कि हमने फिल्म में देखा, भारतीय दूतावास के लोग काफी शिष्ट हैं, और उन्होंने ज़रूरत के वक्त मदद की... हमने असली हालात पर फिल्म बनाई है, जो आसान नहीं होते... उदाहरण के तौर पर, आप किसी भी व्यक्ति को जाने बिना उन्हें पासपोर्ट कैसे दे सकते हैं...?"
बहरहाल, 'सच्चाई' की इस खुराक से इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व वाले विदेश मंत्रालय की छवि बिगड़ने के आसार दिखाई देते हैं।
कुवैत के अल जारा अस्पताल में काम करने वाली नर्स ने राजा मेनन के पक्ष की पुष्टि की, और NDTV को बताया कि जिन्हें सबसे पहले निकाला गया, उनका चयन मनमर्ज़ी से किया गया, जिसकी वजह से 'पैसों के भुगतान' की अफवाहों को बल मिला।
एक अन्य महिला जुआनिता, जो अब मुंबई में स्पा चलाती हैं, ने बताया, "पहली कुछ उड़ानों में गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों तथा बीमार लोगों को निकाला जाना था, लेकिन इसके बावजूद वे लोग टिकटें बेच रहे थे, और हमें अमेरिकी डॉलर या किसी अन्य मुद्रा में भुगतान करने के लिए कहा गया... बाद में सभी लोगों को निकाला गया, लेकिन मेरा खयाल है ऐसा तब हुआ था, जब एयर इंडिया ने दखल दिया..."
खाड़ी इलाके के प्रभारी रहे पूर्व राजदूत केपी फाबियान ने वर्ष 2011 में दिए एक इंटरव्यू में पुष्टि की थी कि 14 दिन बाद इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व में एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल जब कुवैत आया था, तो उन्हें गुस्साए स्थानीय लोगों का सामना करना पड़ा था। राजदूत के अनुसार, उन्होंने गुजराल को इन लोगों से नहीं मिलने की सलाह दी थी, लेकिन गुजराल ने उनसे मुलाकात की थी, और उन्हें समझा लिया था।
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