प्रतीकात्मक तस्वीर
नई दिल्ली:
उत्तर प्रदेश में रिपोर्टिंग करते हुए मुझे अलग-अलग इलाकों से खबर मिल रही थी कि मार्च अप्रैल महीने में जो किसानों की फसल खराब हुई थी उसका मुआवज़ा किसानों को अभी तक नहीं मिला। इसकी पड़ताल करने के लिए मैं निकल पड़ा।
दिल्ली से करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर ही हापुड़ ज़िले के पीरनगर सूदना गांव में पहुंचा। वैसे तो गांव में ही नहीं रास्ते में जिससे भी पूछता चला, ज़्यादातर जगह से शिकायत मिली की मुआवज़ा किसानों को नहीं मिल पाया। महेंदर सिंह के घर पंहुचा तो बाहर से घर परिवार की गरीबी मेरे ज़ेहन में घर कर गई। घर पर छत भी पक्की नहीं थी, प्लास्टिक की शीट और घास डली हुई थी।
महेंदर सिंह 6 बीघे में खेती करते हैं। गेहूं ज्वार और भिंडी अपने ही खेत में लगा लिया करते थे। बीते मार्च अप्रैल में जो बेमौसम बरसात हुई उससे 95 फीसदी गेहूं की फसल बर्बाद हो गई। महेंदर सिंह ने बताया कि आमतौर पर 6 बीघे में 15 से 16 क्विंटल गेहूं पैदा हो जाता था लेकिन इस बार केवल डेढ़ क्विंटल ही हो पाया। महेंदर बताते हैं कि उनको अपनी खराब हुई फसल के लिए अब तक एक पैसे का भी मुआवज़ा नहीं मिल पाया है।
महेंदर की पत्नी शीला देवी घर में गोबर सुखाकर उसके उपले बनाने में लगी हैं क्योंकि यही इनके घर की रसोई गैस है। उपले जलाकर ही चूल्हा जलता है और खाना बनाता है। शीला देवी ने बताया कि वो दूसरे के खेत में मज़दूरी करती है, इसके बदले में कभी 100 तो कभी 50 रुपये मिल जाते हैं।
घर में कुछ मिर्च दिखी तो मैंने उनसे पूछा कि क्या ये मिर्चें कुछ ख़ास हैं? शीला देवी ने बताया कि जिन मिर्च के खेतों में वो मज़दूरी करती हैं उनमे कभी कभी मजदूरी के रूप में पैसे की जगह मिर्च ही मिल जाती है जिसकी चटनी बनाकर गुज़ारा करते हैं। शीला ने बताया कि मिर्च की चटनी के अलावा आलू का सहारा है। हां कभी जब पैसे होते हैं तो 5 या 10 रुपये की दाल मंगाकर खा लेते हैं।
महेंदर और शीला के तीन बच्चे हैं। दूसरे बेटे पुष्पेन्द्र ने बताया कि वो दो साल पहले जब आठवीं में था तब उसने परिवार की आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई छोड़ दी थी और ठीक ऐसा ही उसके बड़े भाई ने किया। हालांकि पुष्पेन्द्र का कहना है कि वो पढ़ना चाहता है। मैंने पुष्पेन्द्र से पूछा कि आप पढ़ते नहीं तो बड़े होकर क्या करोगे?
पुष्पेन्द्र ने बताया कि वो बड़े होकर बिजली का काम सीखना चाहता है। पुष्पेन्द्र की बात सुनकर मेरे मन में ख़याल आया कि आमतौर पर बच्चों को आजकल पूछो कि वो बड़ा होकर क्या बनेगा तो वो एक से एक जवाब देते हैं जैसे डॉक्टर, इंजीनियर, बड़ा बिज़नेसमैन वगैरह लेकिन इस बच्चे कि कितनी छोटी सी आशा है। सोचिये कैसे हालात होंगे।
घर में शौचालय में नहीं दिखा तो पूछ लिया। पता चला कि जब खाने के पैसे नहीं हैं तो शौचालय कहां से बनवाएं। महेंदर ने बताया कि उसके पास इतना पैसा भी नहीं कि इस सीजन की फसल बो पाये इसलिए उसके खेत खाली पड़े हैं। यही नहीं अगले सीजन के लिए भी पैसे नहीं यानी संकट का ये चक्र यूं ही चलता रहेगा अगर सरकार ने मुआवज़ा नहीं दिया।
वैसे अगर ऐसे किसान परिवार को मुआवज़ा सरकार ने अब तक नहीं दिया तो फिर किसको दिया और अगर ऐसे किसान को मुआवज़ा नहीं मिल पाया तो फिर किसी भी किसान को मुआवज़ा मिलता रहे, क्या फर्क पड़ता है। वैसे ये हाल केवल हापुड़ ज़िले के गांव का ही नहीं, मैं बुलंदशहर के भी बहुत से गांव में गया, वहां भी हाल यही था। अगर 5 महीने में भी एक राज्य के किसानों को मुआवज़ा नहीं मिल पाता तो नाउम्मीदी और निराशा का माहौल व्याप्त हो जाना बहुत ज़ाहिर है।
दिल्ली से करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर ही हापुड़ ज़िले के पीरनगर सूदना गांव में पहुंचा। वैसे तो गांव में ही नहीं रास्ते में जिससे भी पूछता चला, ज़्यादातर जगह से शिकायत मिली की मुआवज़ा किसानों को नहीं मिल पाया। महेंदर सिंह के घर पंहुचा तो बाहर से घर परिवार की गरीबी मेरे ज़ेहन में घर कर गई। घर पर छत भी पक्की नहीं थी, प्लास्टिक की शीट और घास डली हुई थी।
महेंदर सिंह 6 बीघे में खेती करते हैं। गेहूं ज्वार और भिंडी अपने ही खेत में लगा लिया करते थे। बीते मार्च अप्रैल में जो बेमौसम बरसात हुई उससे 95 फीसदी गेहूं की फसल बर्बाद हो गई। महेंदर सिंह ने बताया कि आमतौर पर 6 बीघे में 15 से 16 क्विंटल गेहूं पैदा हो जाता था लेकिन इस बार केवल डेढ़ क्विंटल ही हो पाया। महेंदर बताते हैं कि उनको अपनी खराब हुई फसल के लिए अब तक एक पैसे का भी मुआवज़ा नहीं मिल पाया है।
महेंदर की पत्नी शीला देवी घर में गोबर सुखाकर उसके उपले बनाने में लगी हैं क्योंकि यही इनके घर की रसोई गैस है। उपले जलाकर ही चूल्हा जलता है और खाना बनाता है। शीला देवी ने बताया कि वो दूसरे के खेत में मज़दूरी करती है, इसके बदले में कभी 100 तो कभी 50 रुपये मिल जाते हैं।
घर में कुछ मिर्च दिखी तो मैंने उनसे पूछा कि क्या ये मिर्चें कुछ ख़ास हैं? शीला देवी ने बताया कि जिन मिर्च के खेतों में वो मज़दूरी करती हैं उनमे कभी कभी मजदूरी के रूप में पैसे की जगह मिर्च ही मिल जाती है जिसकी चटनी बनाकर गुज़ारा करते हैं। शीला ने बताया कि मिर्च की चटनी के अलावा आलू का सहारा है। हां कभी जब पैसे होते हैं तो 5 या 10 रुपये की दाल मंगाकर खा लेते हैं।
महेंदर और शीला के तीन बच्चे हैं। दूसरे बेटे पुष्पेन्द्र ने बताया कि वो दो साल पहले जब आठवीं में था तब उसने परिवार की आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई छोड़ दी थी और ठीक ऐसा ही उसके बड़े भाई ने किया। हालांकि पुष्पेन्द्र का कहना है कि वो पढ़ना चाहता है। मैंने पुष्पेन्द्र से पूछा कि आप पढ़ते नहीं तो बड़े होकर क्या करोगे?
पुष्पेन्द्र ने बताया कि वो बड़े होकर बिजली का काम सीखना चाहता है। पुष्पेन्द्र की बात सुनकर मेरे मन में ख़याल आया कि आमतौर पर बच्चों को आजकल पूछो कि वो बड़ा होकर क्या बनेगा तो वो एक से एक जवाब देते हैं जैसे डॉक्टर, इंजीनियर, बड़ा बिज़नेसमैन वगैरह लेकिन इस बच्चे कि कितनी छोटी सी आशा है। सोचिये कैसे हालात होंगे।
घर में शौचालय में नहीं दिखा तो पूछ लिया। पता चला कि जब खाने के पैसे नहीं हैं तो शौचालय कहां से बनवाएं। महेंदर ने बताया कि उसके पास इतना पैसा भी नहीं कि इस सीजन की फसल बो पाये इसलिए उसके खेत खाली पड़े हैं। यही नहीं अगले सीजन के लिए भी पैसे नहीं यानी संकट का ये चक्र यूं ही चलता रहेगा अगर सरकार ने मुआवज़ा नहीं दिया।
वैसे अगर ऐसे किसान परिवार को मुआवज़ा सरकार ने अब तक नहीं दिया तो फिर किसको दिया और अगर ऐसे किसान को मुआवज़ा नहीं मिल पाया तो फिर किसी भी किसान को मुआवज़ा मिलता रहे, क्या फर्क पड़ता है। वैसे ये हाल केवल हापुड़ ज़िले के गांव का ही नहीं, मैं बुलंदशहर के भी बहुत से गांव में गया, वहां भी हाल यही था। अगर 5 महीने में भी एक राज्य के किसानों को मुआवज़ा नहीं मिल पाता तो नाउम्मीदी और निराशा का माहौल व्याप्त हो जाना बहुत ज़ाहिर है।
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