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This Article is From Jul 23, 2019

राजधानी दिल्ली के अंदर हजारों बंदर बने मुसीबत, सरकार कराएगी गिनती और फिर नसबंदी

शहर में बड़ी तादाद में बंदरों की मौजूदगी से परेशानी, बीते 11 सालों में दिल्ली सरकार ने बंदरों के खान-पान पर करीब 14 करोड़ रुपये खर्च किए

राजधानी दिल्ली के अंदर हजारों बंदर बने मुसीबत, सरकार कराएगी गिनती और फिर नसबंदी
दिल्ली में बड़ी तादाद में बंदर हैं जो कि राजधानी वासियों के लिए परेशानी का कारण बने हुए हैं.
नई दिल्ली:

दिल्ली सरकार जल्द ही राजधानी में बंदरों की गिनती कराएगी. दिल्ली सरकार पता लगाएगी कि राजधानी में कुल कितने बंदर हैं, कहां-कहां बंदर हैं, कितने लोगों को वे घायल कर रहे हैं और किस तरह की शिकायतें उनके बारे में मिल रही हैं आदि. इस सब डाटा को इकट्ठा करने के बाद दिल्ली सरकार बंदरों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए नसबंदी का कोई कारगर तरीका अपनाने की सोच रही है.

दिल्ली हाई कोर्ट ने बंदरों की समस्या से निपटने के लिए एक एनफोर्समेंट कमेटी बनाई थी. इसके चेयरमैन चीफ वाइल्डलाइफ वार्डन, वन विभाग दिल्ली सरकार प्रभात त्यागी हैं. इस कमेटी में दिल्ली की सभी निगम के अधिकारी और एनजीओ शामिल हैं. इस कमेटी ने यह फैसला किया है कि देहरादून के वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की मदद से जल्द ही बंदरों की गिनती के लिए टेंडर जारी किए जाएंगे.

गिनती के बाद क्या करेगी सरकार?
इरादा है कि जो भी डाटा आए उसका विश्लेषण करके दिल्ली में बंदरों की संख्या को सीमित करने के लिए किस तरह से उनकी नसबंदी की जाए इसके लिए रणनीति बनाई जाएगी. रणनीति के तहत शुरुआत में पायलट प्रोजेक्ट पर काम किया जाएगा और फिर पहले के डाटा से बाद के डाटा की तुलना करके देखा जाएगा कि काम सही दिशा में चल रहा है या नहीं. बंदरों की एक तरह से नसबंदी करने के लिए दिल्ली सरकार जिस तकनीक को सकारात्मक रूप में देख रही है उसे RISUG कहते हैं.

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सरकारी सूत्र बताते हैं कि इस तकनीक से बंदर को केवल 5 से 7 मिनट पकड़कर इंजेक्शन लगाकर उसका बंध्याकरण किया जा सकता है. दिल्ली सरकार के मुताबिक यह तकनीक एम्स के डॉक्टरों ने तैयार की है. लेकिन इसको ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया की अनुमति नहीं मिली है. अनुमति मिलने के बाद सरकार इस पर आगे बढ़ेगी लेकिन उससे पहले गिनती करवाना ज़रूरी है.

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आखिर ऐसी नौबत क्यों आई
दिल्ली में बंदरों की समस्या कितनी बड़ी हो चुकी है यह समझने के लिए हमें कुछ साल पीछे जाना पड़ेगा.

साल 2003 - दिल्ली सरकार ने यूपी सरकार से डील करके ढाई सौ बंदर पीलीभीत भेजे. लेकिन दिल्ली के बंदर पीलीभीत के जंगल से गांव, कस्बों और शहरों में भाग गए. यूपी सरकार ने और बंदर लेने से मना कर दिया.

साल 2004 - दिल्ली सरकार ने मध्यप्रदेश सरकार से बात करके ढाई सौ बंदर शिवपुरी भेजे. वहां से बंदरों की शिकायत आई कि दिल्ली के बंदरों ने जंगल बर्बाद कर दिए. मध्यप्रदेश ने दिल्ली से और बंदर लेने से मना कर दिया.

इसके बाद दिल्ली सरकार ने कई राज्य सरकारों से संपर्क किया कि हमारे बंदर ले लो. लेकिन सभी राज्य सरकारों ने हाथ जोड़ लिए कि दिल्ली के बंदर नहीं चाहिए.

साल 2007- दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मामले में दखल दिया जिसके बाद दिल्ली के अंदर नगर निगम बंदर पकड़कर दक्षिणी दिल्ली की असोला भाटी वाइल्ड लाइफ सेंचुरी में छोड़कर आने लगा. यानी दिल्ली के अंदर बंदर पकड़ने की जिम्मेदारी नगर निगमों की हो गई और वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के अंदर बंदर के पालन पोषण की जिम्मेदारी दिल्ली सरकार की.

इसके बाद सालों तक यही सिलसिला चलता रहा. बीते 11 सालों में सरकार ने बंदरों के खान पान पर करीब 14 करोड़ रुपये खर्च किए हैं जबकि इस दौरान यहां 23,000 बंदर छोड़े जा चुके हैं. लेकिन इस दौरान यहां कितने नए बंदरों ने जन्म लिया इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है. न ही बाकी शहर में कहां कितने बंदर और हैं, इसका भी कोई आंकड़ा नहीं.  मादा बंदर साल में दो बार बच्चे को जन्म दे सकती है. और एक बंदर की औसत उम्र 12-14 साल होती है. जो बंदर खुले घूम रहे हैं उनकी तो बात ही अलग है लेकिन समस्या ये भी है कि जिन बंदरों को खर्चा करके पकड़ा गया और खर्चा करके असोला भाटी वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी में  पाला गया वे बंदर यहां से भाग भी जाते हैं.

सालों की समस्या और करोड़ों के खर्च करने के बाद भी जब बंदरों की समस्या का कोई हल नहीं निकला तो अब दिल्ली सरकार ने फैसला किया है कि सबसे पहले बंदरों की समस्या समझने के लिए वह बंदरों की गिनती करवाएगी और बंदरों की संख्या पर नियंत्रण के लिए नसबंदी का कोई कारगर तरीका अपनाएगी.

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क्या कहते हैं जानकर
पीपल फॉर एनीमल की ट्रस्टी गौरी मौलेखी के मुताबिक 'जंगली जानवरों को बहुत साइंटिफिकली डील किया जाना चाहिए. फिलहाल इम्यूनो कॉन्ट्रासेप्टिव नाम का एक सस्ता और टिकाऊ तरीका जो इंटरनेशनल लेवल पर इस्तेमाल हो रहा है वाइल्ड एनिमल की पापुलेशन को कंट्रोल करने के लिए उस पर रिसर्च आखिरी स्टेज पर है. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार के द्वारा उसका इंतजार किया जाना चाहिए यह एक ऐसी समस्या है बंदरों की जो हमने अपने ऊपर खुद बनाई है.'

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सांसद भी हैं परेशान
पंजाब के अमृतसर से कांग्रेस के सांसद गुरजीत सिंह औजला सेंट्रल दिल्ली के लुटियंस जोन के मीना बाग इलाके में सरकारी निवास में रहते हैं. औजला बंदरों के आतंक से इतने परेशान हैं कि उन्होंने घर की दीवार पर कंटीले तार लगवाए हैं, घर की एंट्री और एसी तक पर प्लास्टिक की कीलें लगवाई हैं ताकि बंदर यहां से दूर रहें. लेकिन वे बताते हैं  कि ' हमने सब करके देख लिया लेकिन बंदरों की समस्या बरकरार है. बंदर हमारे यहां आकर एसी पर कूदते हैं, तार तोड़ते हैं, कपड़े फाड़ते हैं, गमले तोड़ते हैं. शुरुआत में हमने इनको भगाने के लिए पटाखे रखे थे लेकिन बाद में समझ आया कि यह जो कर रहे हैं इनको करने दो सब चुपचाप खेलते रहो अगर इनको डराओगे तो यह दोगुनी तादात में आकर आप पर फिर से हमला करेंगे.'

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लुटियंस जोन में केवल सांसद ही नहीं बल्कि मंत्री और बड़े अफसर भी बंदरों से परेशान हैं. हालत यह है कि लोकसभा सचिवालय तो अपने सांसदों के लिए बंदरों से बचने की एडवाइजरी भी जारी कर चुका है. जब बंदरों पर काबू पाने का कोई रास्ता नहीं निकला तो अब नई दिल्ली नगरपालिका परिषद, यानी एनडीएमसी ने लोगों को बंदरों से बचने की सलाह देने वाला बोर्ड भी इलाके में लगवा दिया.

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नई दिल्ली नगर निगम ने चेतावनी के बोर्ड लगवाए हैं.

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