प्रतीकात्मक फोटो
नई दिल्ली:
अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद क्या दुनिया के गर्म होने का खतरा बढ़ गया है. जलवायु परिवर्तन को लेकर अमेरिका क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौतों को मानेगा या ट्रंप पीछे तो नहीं हटेंगे. पर्यावरण के जानकार इसी बात का अंदाजा लगा रहे हैं कि पिछले साल हुई पेरिस डील पर इसका क्या असर पड़ेगा जिसके तहत विकसित देशों ने कुछ जिम्मेदारी उठाने का फैसला किया है. असल डर राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप के बयानों से पैदा हुआ जिसमें उन्होंने पिछले साल हुए पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को बेमतलब बताते हुए कहा है कि वह राष्ट्रपति बने तो अमेरिका को इस डील से बाहर करवा लेंगे.
ट्रंप की यह धमकी दुनिया भर के पर्यावरणविदों के लिए डराने वाली है. पूरी दुनिया में यह कोशिश हो रही है कि धरती के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए कैसे कार्बन उत्सर्जन कम किया जाए और सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और न्यूक्लियर एनर्जी जैसे माध्यमों से बिजली बनाई जाए. इसीलिए पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल के खत्म होने से पहले पेरिस डील के लिए पूरा ज़ोर लगाया ताकि उनके साथ यह विरासत जुड़ सके. पेरिस डील इसी महीने लागू हुई है और अमेरिका और यूरोपीय देशों समेत भारत और चीन ने इस डील को मान लिया है. दुनिया में आज जितना भी कार्बन उत्सर्जन हो रहा है उसमें अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और चीन-भारत की सबसे बड़ी भागेदारी है. मौजूदा उत्सर्जन के हिसाब से चीन के इमिशन सबसे ज्यादा हैं लेकिन ऐतिहसिक रूप से पर्यावरण में कार्बन सबसे ज्यादा अमेरिका ने फैलाया है. लेकिन ट्रंप कहते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन चीन का खड़ा किया हुआ हौव्वा है और इसके लिए अमेरिका जिम्मेदारी नहीं लेगा.
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आने के बाद क्लाइमेट चेंज पर काम कर रही अंतरराष्ट्रीय संस्था 'एक्शन एड' ने अपने बयान में कहा कि दुनिया में बाढ़, चक्रवाती तूफान और सूखे जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं. जलवायु परिवर्तन के असर से अमेरिका भी अछूता नहीं है और डोनाल्ड ट्रंप को इस मुद्दे का सामना करना चाहिए. एक्शन एड के पॉलिसी मैनेजर हरजीत सिंह ने एनडीटीवी इंडिया से बातचीत में कहा , "मेरे लिए सबसे बड़ी चिंता फाइनेंस को लेकर है. अमीर देशों ने विकासशील देशों को साफ सुथरी ऊर्जा के लिए वित्तीय मदद का वादा किया है. जो क्लाइमेट फंड बनना है उसमें अमेरिका को भी 300 करोड़ डॉलर देने हैं लेकिन उसने अभी तक 50 करोड़ डॉलर ही जमा किए हैं. ट्रंप के पीछे हटने का मतलब धरती को गरम होने से रोकने की कोशिश धरी की धरी रह जाएगी."
पर्यावरण के जानकारों का मानना है कि पिछले कुछ सालों में कई देशों को साथ लाकर जलवायु परिवर्तन से लड़ने की जो मुहिम शुरू हुई है उसकी बनाए रखनी होगी. पिछले साल हुई पेरिस डील में तमाम देशों ने अपने लक्ष्य बताए हैं कि वह कार्बन इमीशन रोकने के लिए और साफ सुथरी ऊर्जा के लिए क्या करेंगे. इसके तहत बिजली बनाने के लिए कोयले का इस्तेमाल सीमित करने और साफ सुथरे स्रोतों की ओर बढ़ने की जो कोशिश है उसके लिए बहुत सारे पैसे और टेक्नोलॉजी की जरूरत है. ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिकी रुख इस बारे में काफी कुछ तय करेगा. हालांकि नियमों के मुताबिक अमेरिका पेरिस डील से तुरंत बाहर नहीं निकल सकता. उसे इस प्रक्रिया में करीब चार साल लगेंगे और तब तक अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए नया चुनाव हो रहा होगा.
हरजीत सिंह ने कहा "चिंता यह भी है कि अमेरिका कहीं संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क से पूरी तरह बाहर न निकल जाए. अगर ऐसा हुआ तो अब तक की सारी कोशिशें बेकार हो जाएंगी"
ट्रंप की यह धमकी दुनिया भर के पर्यावरणविदों के लिए डराने वाली है. पूरी दुनिया में यह कोशिश हो रही है कि धरती के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए कैसे कार्बन उत्सर्जन कम किया जाए और सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और न्यूक्लियर एनर्जी जैसे माध्यमों से बिजली बनाई जाए. इसीलिए पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल के खत्म होने से पहले पेरिस डील के लिए पूरा ज़ोर लगाया ताकि उनके साथ यह विरासत जुड़ सके. पेरिस डील इसी महीने लागू हुई है और अमेरिका और यूरोपीय देशों समेत भारत और चीन ने इस डील को मान लिया है. दुनिया में आज जितना भी कार्बन उत्सर्जन हो रहा है उसमें अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और चीन-भारत की सबसे बड़ी भागेदारी है. मौजूदा उत्सर्जन के हिसाब से चीन के इमिशन सबसे ज्यादा हैं लेकिन ऐतिहसिक रूप से पर्यावरण में कार्बन सबसे ज्यादा अमेरिका ने फैलाया है. लेकिन ट्रंप कहते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन चीन का खड़ा किया हुआ हौव्वा है और इसके लिए अमेरिका जिम्मेदारी नहीं लेगा.
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आने के बाद क्लाइमेट चेंज पर काम कर रही अंतरराष्ट्रीय संस्था 'एक्शन एड' ने अपने बयान में कहा कि दुनिया में बाढ़, चक्रवाती तूफान और सूखे जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं. जलवायु परिवर्तन के असर से अमेरिका भी अछूता नहीं है और डोनाल्ड ट्रंप को इस मुद्दे का सामना करना चाहिए. एक्शन एड के पॉलिसी मैनेजर हरजीत सिंह ने एनडीटीवी इंडिया से बातचीत में कहा , "मेरे लिए सबसे बड़ी चिंता फाइनेंस को लेकर है. अमीर देशों ने विकासशील देशों को साफ सुथरी ऊर्जा के लिए वित्तीय मदद का वादा किया है. जो क्लाइमेट फंड बनना है उसमें अमेरिका को भी 300 करोड़ डॉलर देने हैं लेकिन उसने अभी तक 50 करोड़ डॉलर ही जमा किए हैं. ट्रंप के पीछे हटने का मतलब धरती को गरम होने से रोकने की कोशिश धरी की धरी रह जाएगी."
पर्यावरण के जानकारों का मानना है कि पिछले कुछ सालों में कई देशों को साथ लाकर जलवायु परिवर्तन से लड़ने की जो मुहिम शुरू हुई है उसकी बनाए रखनी होगी. पिछले साल हुई पेरिस डील में तमाम देशों ने अपने लक्ष्य बताए हैं कि वह कार्बन इमीशन रोकने के लिए और साफ सुथरी ऊर्जा के लिए क्या करेंगे. इसके तहत बिजली बनाने के लिए कोयले का इस्तेमाल सीमित करने और साफ सुथरे स्रोतों की ओर बढ़ने की जो कोशिश है उसके लिए बहुत सारे पैसे और टेक्नोलॉजी की जरूरत है. ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिकी रुख इस बारे में काफी कुछ तय करेगा. हालांकि नियमों के मुताबिक अमेरिका पेरिस डील से तुरंत बाहर नहीं निकल सकता. उसे इस प्रक्रिया में करीब चार साल लगेंगे और तब तक अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए नया चुनाव हो रहा होगा.
हरजीत सिंह ने कहा "चिंता यह भी है कि अमेरिका कहीं संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क से पूरी तरह बाहर न निकल जाए. अगर ऐसा हुआ तो अब तक की सारी कोशिशें बेकार हो जाएंगी"
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