अमरनाथ तीर्थयात्रियों पर आतंकवादी हमला अनंतनाग जिले के बटिंगू इलाके में सोमवार रात को हुआ...
नई दिल्ली:
अमरनाथ यात्रियों पर यह हमला पिछले करीब दो दशक में पहली बार हुआ है. इससे पहले पहलगाम के यात्री कैंप में 2002 में हमला हुआ था. इस हमले के बाद जम्मू–कश्मीर पुलिस और सीआरपीएफ ने कहा है कि बस यात्रा जत्थे का हिस्सा नहीं थी और यात्रियों ने नियमों का पालन नहीं किया. पारम्परिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक पहली प्रतिक्रियाओं में शोक और हताशा के साथ गुस्से का भाव भी दिख रहा है. हमले के बाद कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर इसे साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश भी की है.
सच्चाई यह है कि यह यात्रा जितनी पवित्र हिन्दुओं के लिए है, उतनी ही महत्वपूर्ण कश्मीरी मुसलमानों के लिए भी. वर्ष 2002 में हुए हमले के अगले साल 2003 में इस रिपोर्टर ने अमरनाथ यात्रा को कवर किया था. हर होटल वाले, घोड़े-खच्चर वाले और दुकान लगाने वाले के लिए यह यात्रा सालभर में कमाई का सबसे बड़ा ज़रिया है. पालकी वालों से लेकर अपने पीठ पर यात्रियों को लादकर ले जाने वाले सभी मुसलमान ही होते हैं. इनमें से बहुत सारे लोगों के पास कमाई का कोई और ज़रिया नहीं है.
"हम इस यात्रा का पूरे साल इंतज़ार करते हैं... साल के ये दो महीने जो कुछ हम कमाते हैं, वही हमारे लिए पूरे साल की कमाई है..." एक खच्चर वाले ने 2003 में मुझे बताया था. इस वक्त हिन्दू समुदाय में जो डर या गुस्सा इस यात्रा से पनपा होगा, उससे कहीं अधिक निराशा इन लोगों के लिए है, जिनके लिए इस यात्रा का चलना या न चलना जीवन–मरण के सवाल जैसा है.
यात्री सिर्फ अमरनाथ की पवित्र गुफा ही नहीं जाते. इनमें से बहुत-से वैष्णो देवी और लद्दाख भी जाते हैं और पटनी टॉप, गुलमर्ग और कश्मीर के नज़ारों का मज़ा भी लेते हैं. कश्मीर में पशमीना शॉल व्यापारियों, बोट हाउस मालिको से लेकर काजू-बादाम और अखरोट बेचने वालों के लिए यह वक्त कमाई का बन जाता है. यानी यह सिर्फ हिन्दू तीर्थ का नहीं, बल्कि पूरे कश्मीर की अर्थव्यवस्था को गुलज़ार करने का मौका है.
अमरनाथ यात्रा का धार्मिक पहलू भी मुस्लिम समुदाय के साथ एक दिलचस्प रिश्ते से जुड़ा है. करीब 14,000 फुट की ऊंचाई पर बसी यह गुफा और शिवलिंग की खोज एक मुसलमान चरवाहे बूटा मलिक ने 19वीं शताब्दी में की थी. पुजारी भले ही हिन्दू हों, लेकिन आज भी गुफा के संरक्षकों में मलिक के परिवार के लोग हैं, इसलिए आतंकियों का यह हमला एक समुदाय के खिलाफ नहीं, बल्कि कश्मीर की साझा संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर हमला है.
सच्चाई यह है कि यह यात्रा जितनी पवित्र हिन्दुओं के लिए है, उतनी ही महत्वपूर्ण कश्मीरी मुसलमानों के लिए भी. वर्ष 2002 में हुए हमले के अगले साल 2003 में इस रिपोर्टर ने अमरनाथ यात्रा को कवर किया था. हर होटल वाले, घोड़े-खच्चर वाले और दुकान लगाने वाले के लिए यह यात्रा सालभर में कमाई का सबसे बड़ा ज़रिया है. पालकी वालों से लेकर अपने पीठ पर यात्रियों को लादकर ले जाने वाले सभी मुसलमान ही होते हैं. इनमें से बहुत सारे लोगों के पास कमाई का कोई और ज़रिया नहीं है.
"हम इस यात्रा का पूरे साल इंतज़ार करते हैं... साल के ये दो महीने जो कुछ हम कमाते हैं, वही हमारे लिए पूरे साल की कमाई है..." एक खच्चर वाले ने 2003 में मुझे बताया था. इस वक्त हिन्दू समुदाय में जो डर या गुस्सा इस यात्रा से पनपा होगा, उससे कहीं अधिक निराशा इन लोगों के लिए है, जिनके लिए इस यात्रा का चलना या न चलना जीवन–मरण के सवाल जैसा है.
यात्री सिर्फ अमरनाथ की पवित्र गुफा ही नहीं जाते. इनमें से बहुत-से वैष्णो देवी और लद्दाख भी जाते हैं और पटनी टॉप, गुलमर्ग और कश्मीर के नज़ारों का मज़ा भी लेते हैं. कश्मीर में पशमीना शॉल व्यापारियों, बोट हाउस मालिको से लेकर काजू-बादाम और अखरोट बेचने वालों के लिए यह वक्त कमाई का बन जाता है. यानी यह सिर्फ हिन्दू तीर्थ का नहीं, बल्कि पूरे कश्मीर की अर्थव्यवस्था को गुलज़ार करने का मौका है.
अमरनाथ यात्रा का धार्मिक पहलू भी मुस्लिम समुदाय के साथ एक दिलचस्प रिश्ते से जुड़ा है. करीब 14,000 फुट की ऊंचाई पर बसी यह गुफा और शिवलिंग की खोज एक मुसलमान चरवाहे बूटा मलिक ने 19वीं शताब्दी में की थी. पुजारी भले ही हिन्दू हों, लेकिन आज भी गुफा के संरक्षकों में मलिक के परिवार के लोग हैं, इसलिए आतंकियों का यह हमला एक समुदाय के खिलाफ नहीं, बल्कि कश्मीर की साझा संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर हमला है.
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