उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिकता पर सुनाए गए फैसले के खिलाफ कानून मंत्री कपिल सिब्बल सहित कुछ केन्द्रीय मंत्रियों की टिप्पणियों पर शुक्रवार को 'अप्रसन्नता' व्यक्त करते हुए कहा कि यह 'अनुचित' और 'अच्छे भाव में नहीं' थीं। न्यायालय ने इसके साथ ही उन्हें भविष्य में ऐसा करने के प्रति आगाह किया है।
इन मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए दायर जनहित याचिका के साथ संलग्न बयानों के अवलोकन के बाद अप्रसन्न नजर आ रही प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि फैसले के खिलाफ की गई टिप्पणियां 'सराहनीय नहीं' हैं।
न्यायाधीशों ने कहा, 'हम सहमत हैं कि कुछ बयान तो अच्छे नहीं हैं। वे उच्च पदों पर हैं और उनके पास जिम्मेदारी है। उन्हें बयान देते समय सावधानी बरतनी चाहिए।'
कानूनमंत्री कपिल सिब्बल, वित्तमंत्री पी चिदंबरम, राज्यमंत्री मिलिन्द देवड़ा और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की टिप्पणियों के अवलोकन के बाद न्यायाधीशों ने कहा, 'उन्होंने बहुत ही हल्के तरीके से बयान दिए हैं। हम इसे अनुचित टिप्पणियां मानते हैं।'
न्यायाधीशों ने कहा कि वित्तमंत्री का बयान बहुत अधिक आपत्तिजनक नहीं है, लेकिन अन्य लोगों की कुछ टिप्पणियां अच्छे भाव में नहीं थीं।
इसके बावजूद न्यायालय ने इन नेताओं के खिलाफ कोई भी आदेश देने से इनकार कर दिया। इन सभी नेताओं को इस मामले में व्यक्तिगत रूप से पक्षकार बनाया गया है।
न्यायाधीशों ने कहा, 'अपनी अप्रसन्नता जाहिर करने के अलावा हम कुछ नहीं कर सकते हैं। हालांकि ये बयान सराहनीय नहीं है, हम याचिका पर विचार नहीं कर रहे हैं।
यह जनहित याचिका दिल्ली निवासी पुरूषोत्तम मुल्लोली ने दायर की थी। इसमें कथित रूप से अपमानजनक टिप्पणियां करने वाले मंत्रियों को हटाने का अनुरोध किया गया था।
याचिकाकर्ता के वकील एचपी शर्मा ने दलील दी कि इन मंत्रियों के बयान शीर्ष अदालत द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था का उल्लंघन हैं और इसके लिये उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। याचिका में कहा गया था कि केन्द्र इसमें पक्षकार था और उसे कानून में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन यह विवाद शीर्ष अदालत में आया तो मंत्रियों और मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य है कि अपमानजनक तरीके से निर्णय पर हमला बोलने की बजाय उसका सम्मान किया जाए।
याचिका में कहा गया था कि मंत्रियों ने संविधान की अनुसूची-तीन के तहत ली गई शपथ का उल्लंघन किया है। इसलिए उनकी नियुक्ति असंवैधानिक और गैर-कानूनी है।
शीर्ष अदालत ने समलैंगिक यौनाचार को अपराध के दायरे से बाहर करने संबंधी दिल्ली उच्च न्यायालय का 2 जुलाई, 2009 का निर्णय निरस्त करते हुए 11 दिसंबर को कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 संवैधानिक है और इसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है।
न्यायालय के इस निर्णय का देश भर में विरोध हुआ और मंत्रियों सहित समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने इसकी आलोचना की थी।
इसके बाद केन्द्र सरकार और समलैंगिक अधिकारों के कार्यकर्ताओं ने इस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए शीर्ष अदालत में याचिका दायर कर रखी है।
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