आखिकार घर पहुंचा ये परिवार, लेकिनअब भूखे पेट 'जिंदगी की गाड़ी' खींचना हो रहा है मुश्किल

घर लौटे प्रवासी श्रमिकों की बदहाली की तस्वीर भी उनकी घर वापसी की तस्वीरों से अलग नहीं है. अपने गांव और अपनों के बीच पहुंचकर राहत मिलने की उम्मीद अब धीरे-धीरे दम तोड़ दी जा रही है. मई के शुरुआती हफ्ते में एक बेहद ही मार्मिक तस्वीर ने घर लौट रहे श्रमिकों की तकलीफ पर देश का ध्यान खींचा था.

आखिकार घर पहुंचा ये परिवार, लेकिनअब भूखे पेट 'जिंदगी की गाड़ी' खींचना हो रहा है मुश्किल

भोपाल:

घर लौटे प्रवासी श्रमिकों की बदहाली की तस्वीर भी उनकी घर वापसी की तस्वीरों से अलग नहीं है. अपने गांव और अपनों के बीच पहुंचकर राहत मिलने की उम्मीद अब धीरे-धीरे दम तोड़ दी जा रही है. मई के शुरुआती हफ्ते में एक बेहद ही मार्मिक तस्वीर ने घर लौट रहे श्रमिकों की तकलीफ पर देश का ध्यान खींचा था. इस तस्वीर में एक मजदूर अपनी गर्भवती पत्नी और 2 साल की मासूम बेटी को हाथ से बनाई एक लकड़ी की गाड़ी में खींचता हुआ करीब 700 किलोमीटर पैदल हैदराबाद से बालाघाट तक पहुंच गया था. संकट भरे रास्ते को हिम्मत से पार करने वाले इस मजदूर की तकलीफ पर लौटने के बाद भी कम नहीं हुई है. 

अप्रैल की तपती धूप में इस परिवार ने जिसमें गर्भवती पत्नी और बेटी साथ है, हैदराबाद से बालाघाट तक का सफर तय किया था. आज यही गाड़ी इस घर का सबसे कीमती खिलौना है. अपने परिवार को इस हाथ से बनाई में गाड़ी में बैठाकर खींचकर लाने वाले रामू घोरमरे एक प्रवासी मजदूर हैं. उन्होंने बताया, 'मैं हैदराबाद से निकला तब मन में यह था कैसे भी घर पहुंच जाऊं 17 मार्च को ही होली के बाद वहां काम करने पहुंचा था 22 मार्च को लॉकडाउन हो गया'. 

रामू ने आगे बताया कि किसी तरह हैदराबाद में गुजारने के बाद 200 रुपये में चार बेरिंग खरीदकर लाए और ठेकेदार से लोहे के टुकड़े लेकर गाड़ी बनाकर पत्नी और बेटी को उसमे बैठा कर पैदल ही बालाघाट की ओर चल पड़ा. 150 किमी पैदल चलने के बाद बीच के कुछ रास्ते में एक ट्रक ने बैठा लिया फिर वापस 200 किलोमीटर और पैदल चलकर किसी तरह अपने घर पहुंचा. रामू के साथ हौसले और तकलीफों के इस सफर में हमकदम उनकी गर्भवती पत्नी धनवंती बाई भी थीं. 

हाथ से बनाई गाड़ी से रामू परिवार को खींचकर किसी तरह अपने गांव तो पहुंच गए लेकिन अब सवाल ये है कि जिंदगी की गाड़ी कैसे खींचे. रामू ने बताया कि पंचायत की ओर से इतना अनाज मिला था कि 15 दिन खाना खा सकें. अब वह खत्म होने लगा है कोई काम भी नहीं मिल रहा है और ना ही कोई मदद मिली. रामू ने कहा, 'आज मैं बस्ती में निकला था सोचा घर के लिए कुछ लेकर आऊंगा लेकिन कहीं से कोई सहायता नहीं मिली और ना ही ऐसा कोई काम जिससे रोटी जुटाई जा सके. 

वहीं छिंदवाड़ा में चार बच्चों को पालने के लिए मजदूरी करने इंदौर गई आदिवासी महिला राजवती जैसे तैसे घर लौट आईं. उमरेठ के मोरडोंगरी में शेल्टर होम में क्वॉरेंटाइन से निकलीं तो घर पहुंची  लेकिन फिर तबीयत बिगड़ गई और कुछ दिनों बाद उनकी मौत हो गई. वैसे सरकार का दावा है कि अब तक वो 5 लाख 82 हजार श्रमिकों को घर पहुंचा चुकी है, प्रदेश की 22,809 पंचायतों में 22,484 में 22,44000 से ज्यादा श्रमिकों को काम मिला है उन्हें 829 करोड़ रुपये का भुगतान हुआ है.

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गौरतलब है कि कभी प्रधानमंत्री ने मनरेगा को विफलताओं का स्मारक और गड्ढे खोदने वाली योजना बताया था, लेकिन आज गांव पहुंच श्रमिक इसी के आसरे हैं, हालांकि तमाम आंकड़ेबाजी के बावजूद ये तय है कि श्रमिकों को रोजगार देने के लिये अभी और उपाय किये जाने की जरूरत है.