तीन तलाक मामले पर सुप्रीम कोर्ट : अगर यह धर्म का मामला है तो कोर्ट इसमें दखल नहीं देगी

पीठ यह देखेगी कि क्या यह धर्म का मामला है. अगर यह देखा गया कि यह धर्म का मामला है तो कोर्ट इसमें दखल नहीं देगी. लेकिन अगर यह धर्म का मामला नहीं निकला तो सुनवाई आगे चलती रहेगी. तीन तलाक से मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है या नहीं. इस पर कोर्ट देखेगी. बहुविवाह पर कोर्ट सुनवाई नहीं करेगा.

तीन तलाक मामले पर सुप्रीम कोर्ट : अगर यह धर्म का मामला है तो कोर्ट इसमें दखल नहीं देगी

सुप्रीम कोर्ट में पांच याचिकायें मुस्लिम महिलाओं ने दायर की हैं...

खास बातें

  • तीन तलाक से मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है या नहीं.
  • हुविवाह पर कोर्ट सुनवाई नहीं करेगा.
  • सीजेआई ने साफ कहा कि पहले तीन तलाक का मुद्दा ही देखा जाएगा.
नई दिल्ली:

उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने मुसलमानों में 'तीन तलाक', 'निकाह हलाला' और बहुपत्नी प्रथा की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई सुबह से जारी है. कोर्ट ने कहा है कि इस मामले में वह लगातार 6 दिनों तक सुनवाई करेगी. संविधान पीठ इस मुद्दे पर सुनवाई कर रही है. पीठ यह देखेगी कि क्या यह धर्म का मामला है. अगर यह देखा गया कि यह धर्म का मामला है तो कोर्ट इसमें दखल नहीं देगी. लेकिन अगर यह धर्म का मामला नहीं निकला तो सुनवाई आगे चलती रहेगी. तीन तलाक से मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है या नहीं. इस पर कोर्ट देखेगी. बहुविवाह पर कोर्ट सुनवाई नहीं करेगा. सीजेआई ने साफ कहा कि पहले तीन तलाक का मुद्दा ही देखा जाएगा. इस सुनवाई में पहले तीन दिन चुनौती देने वालों को मौका मिलेगा. फिर तीन दिन डिफेंस वालों को मौका मिलेगा. 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह उन देशों के कानून को भी देखेगा जिनमें तीन तलाक को बैन किया गया है. ट्रिपल तलाक को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ता ने कहा है कि अगर यह इस्लाम के मूल में होता तो कई देश इसे बैन न करते. कोर्ट ने कहा कि चुनौती देने वालों को बताना पड़ेगा कि धर्म की स्वतंत्रता के तहत तीन तलाक नहीं आता. वहीं डिफेंड करने वालों को यह बताना पड़ेगा कि यह धर्म का हिस्सा है.

सलमान खुर्शीद ने कोर्ट में कहा : ट्रिपल तलाक कोई मुद्दा ही नहीं है क्योंकि तलाक से पहले पति और पत्नी के बीच सुलह की कोशिश जरूरी है. अगर सुलह की कोशिश नहीं हुई तो तलाक क्या वैध नहीं माना जा सकता. एक बार में तीन तलाक नहीं बल्कि ये प्रक्रिया तीन महीने की होती है. जस्टिस रोहिंग्टन ने खुर्शीद से पूछा, क्या तलाक से पहले सुलह की कोशिश की बात कहीं कोडिफाइड है. खुर्शीद ने कहा - नहीं. 

पर्सनल ला बोर्ड की ओर से कपिल सिब्बल ने भी खुर्शीद का समर्थन किया कि ट्रिपल तलाक कोई मुद्दा नहीं है. खुर्शीद निजी तौर पर कोर्ट की मदद कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने पूछा - ये पर्सनल ला क्या है? ये क्या इसका मतलब  शरियत है या कुछ और?

पर्सनल ला बोर्ड की ओर से कपिल सिब्बल ने कहा, ये पर्सनल ला का मामला है. सरकार तो कानून बना सकती है लेकिन कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए. जस्टिस कूरियन ने कहा, ये मामला मौलिक अधिकारों से भी जुड़ा है.

जस्टिस रोहिंग्टन ने केंद्र से पूछा, इस मुद्दे पर आपका क्या स्टैंड है? केंद्र की ओर से एएसजी पिंकी आनंद ने कहा, सरकार याचिकाकर्ता के समर्थन में है कि ट्रिपल तलाक असंवैधानिक है. बहुत सारे देश इसे खत्म कर चुके हैं.

केंद्र  ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि  हम किसी की तरफ नहीं हैं, लेकिन सरकार लैंगिक समानता और महिलाओं के गरिमापूर्व जीवन के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. ट्रिपल तलाक लैंगिक समानता और महिलाओं की गरिमा के खिलाफ है. सोमवार 15 मई से केंद्र सरकार इस मुद्दे पर अपनी दलीलें देंगी. AG मुकुल रोहतगी केंद्र की ओर से बहस करेंगे.

प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ सात याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है. इनमें पांच याचिकायें मुस्लिम महिलाओं ने दायर की हैं जिनमें मुस्लिम समुदाय में प्रचलित तीन तलाक की प्रथा को चुनौती देते हुए इसे असंवैधानिक बताया गया है. संविधान पीठ के सदस्यों में सिख, ईसाई, पारसी, हिन्दू और मुस्लिम सहित विभिन्न धार्मिक समुदाय से हैं.इस पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन, न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित और न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर शामिल हैं.

संविधान पीठ मुस्लिम समुदाय में  तीन तलाक, बहुविवाह 'निकाह हलाला' जैसी प्रथाओं का संवैधानिक आधार पर विश्लेषण करेगी. कोर्ट तीन तलाक के सभी पहलुओं पर विचार कर रही है. अदालत ने जोर देकर कहा कि यह मसला बहुत गंभीर है और इसे टाला नहीं जा सकता. कोर्ट ने ये भी साफ किया है कि इस मामले में यूनिफार्म सिविल कोड पर चर्चा नहीं होगी.
 
इस मामले में केंद्र सरकार की ओर से हलफनामा दायर किया गया जिसमें कहा गया है कि ट्रिपल तलाक के प्रावधान को संविधान के तहत दिए गए समानता के अधिकार और भेदभाव के खिलाफ अधिकार के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. केंद्र ने कहा कि लैंगिक समानता और महिलाओं के मान सम्मान के साथ समझौता नहीं हो सकता. केंद्र सरकार ने कहा है कि भारत जैसे सेक्युलर देश में महिला को जो संविधान में अधिकार दिया गया है उससे वंचित नहीं किया जा सकता. तमाम मुस्लिम देशों सहित पाकिस्तान के कानून का भी केंद्र ने हवाला दिया जिसमें तलाक के कानून को लेकर रिफॉर्म हुआ है और तलाक से लेकर बहुविवाह को रेग्युलेट करने के लिए कानून बनाया गया है

सुनवाई के दौरान तीन तलाक को लेकर केंद्र सरकार ने कोर्ट के सामने कुछ सवाल रखे :  
1. धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत तीन तलाक, हलाला और बहु-विवाह की इजाजत संविधान के तहत दी जा सकती है या नहीं ?
2. समानता का अधिकार और गरिमा के साथ जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्राथमिकता किसको दी जाए?
3. पर्सनल लॉ को संविधान के अनुछेद 13 के तहत कानून माना जाएगा या नहीं?
4. क्या तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह उन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत सही है, जिस पर भारत ने भी दस्तखत किये हैं?

AIMPLB ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दलील
- ट्रिपल तलाक को महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन बताने वाले केंद्र सरकार का रुख बेकार की दलील है.
- पर्सनल लॉ को मूल अधिकार के कसौटी पर चुनौती नहीं दी जा सकती.
-  ट्रिपल तलाक, निकाह हलाला जैसे मुद्दे पर कोर्ट अगर सुनवाई करता है तो ये जूडिशियल लेजिस्लेशन की तरह होगा.
- केंद्र सरकार ने इस मामले में जो स्टैंड लिया है कि इन मामलों को दोबारा देखा जाना चाहिए ये बेकार का स्टैंड है.

ट्रिपल तलाक मामले में सुप्रीम कोर्ट में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने लिखित जवाब दाखिल कर कहा है कि
- ट्रिपल तलाक के खिलाफ दाखिल याचिका सुनवाई योग्य नहीं है.
- मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत प्रोटेक्शन है उसे मूल अधिकार के कसौटी पर नहीं आंका जा सकता.
 -कोर्ट पर्सनल लॉ को दोबारा रिव्यू नहीं कर सकती उसे नहीं बदला जा ससकता. कोर्ट पर्सनल लॉ में दखल नहीं दे सकती.
- मुस्लिम पर्सनल लॉ में एक बार में ट्रिपल तलाक, हलाला और बहु विवाह इस्लमिक जो इस्लामिक रिलिजन का महत्वपूर्ण पार्ट है और वह मुस्लिम पर्सनल लॉ के चारों स्कूलों द्वारा परिभाषित है.
-  मुस्लिम पर्सनल लॉ संविधान के अनुच्छेद-25, 26 व 29 में प्रोटेक्टेड है और क्या इसका व्याख्या या रिव्यू हो सकता है ?
- संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का जहां तक सवाल है तो वह एग्जेक्युटिव के खिलाफ लोगों को अधिकार मिला हुआ है लेकिन इसे प्राइवेट पार्टी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं हो सकता.
- किसी व्यक्तिगत शख्स के खिलाफ इसे लागू नहीं कराया जा सकता. संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत जनहित याचिका का इस्तेमाल प्राइवेट शख्स के खिलाफ इस्तेमाल के लिए नहीं हो सकता क्योंकि ये मामला पर्सनल है.
- सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कई मामलों में ये व्यवस्था दे रखी है कि किसी व्यक्ति विशेष या आइडेंटिकल केस जूडिशियल रिव्यू नहीं हो सकता.
-सवाल था कि क्या बहुविवाह संविधान के अनुच्छेद 14 व 15 के खिलाफ है क्या एक तरफा तलाक लिया जाना समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है. एक से ज्यदा पत्नी रखा जा सकता है क्या ये क्रुअल्टी नहीं है. तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ये मामला विधायिका का है. कोर्ट इस मालमे में विधान नहीं बना सकती.
- बोर्ड की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि संवैधानिक स्कीम के तहत जूडिशयिरी का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन धर्म और धार्मिक कार्यक्रम को कोर्ट तय नहीं कर सकता.
- अगर किसी धार्मिक मसले पर विभेद होगा तो धार्मिक ग्रंथ व किताबों का सहारा लिया जाएगा्. धार्मिक सवाल पर कोर्ट के पास अपना विचार रखने का स्कोप नहीं है.
-इस्माम में शादी को सिविल कॉन्ट्रैक्ट माना जाता है. शरियत शादी को जीवन भर का साथ मानता है.
- इसे टूटने से बचान के तमाम प्रयास किए जाते हैं. लेकिन इसे अखंडनीय नहीं माना जाता और जबरन रहने के लिए मजबूर नहीं किया जाता.
-शादी के वक्त ही तलाक आदि के प्रावधान के बारे में पता होता है और शर्त मानने या न मानने के लिए पार्टी स्वतंत्र होता है.
-  एक बार में तीन तलाक का जहां तक सवाल है तो ये अवांछनीय जरूर है लेकिन तीन तलाक से शादी खत्म हो जाती है. तीन तलाक कहने के बाद पत्नी का दर्जा खत्म हो जाता है.
-मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद25 व 26 में प्रोटेक्ट किया गया है. - पर्सनल लॉ कल्चरल मुद्दा है और इसे प्रोटेक्शन दिया गया है. कोर्ट पर्सनल लॉ में दखल नहीं दे सकती.
- जहां भी दुनिया में पर्सनल लॉ में बदलाव हुआ है तो वह भारतीय समाजिक व सास्कृतिक परिस्थितियों से अलग है. भारतीय संदर्भ में उसे देखना होगा. अगर उसमें बदलाव हुआ तो इस्लाम धर्म मानने वाले लोगों के साथ न्याय नहीं होगा.

लॉ बोर्ड के सवाल
इसके तहत कई सवाल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से कोर्ट के सामने रखे गए:
- क्या ये ट्रिपल तलाक आदि के खिलाफ दाखिल याचिका विचार योग्य है ?
-  क्या पर्सनल लॉ को मूल अधिकार की कसौटी पर टेस्ट हो सकता है.
-  क्या कोर्ट धर्म और धार्मिक लेख की व्याख्या कर सकता है ?

जमियत उलेमा-ए-हिंद
जमात उलेमा-ए-हिंद ने भी ट्रिपल तलाक के मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपना लिखित पक्ष पेश किया है.
-  सुप्रीम कोर्ट सिर्फ उसी कानून को देख सकती है जो आर्टिकल 13 के अंदर कानून की परिभाषा में आता है.
-  मुस्लिम पर्सनल लॉ खुदाई यानी डिवाइन लॉ है. ये लॉ आर्टिकल 13 के तहत नहीं है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट इसकी समीक्षा नहीं कर सकता. - - पहले भी ऐसे मौके आए हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने से मना किया है.
-  सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कहा है कि किसी धर्म की सही प्रैक्टिस क्या है ये उसी धर्म के लोग ही तय करेंगे न कि कोई बाहरी एजेंसी तय करेगी. पहले पांच जजों की बेंच कह चुकी है - शिरूर मठ के मामले में 1954 में, फिर कृष्ना सिंह मामले में 1981 में मथुरा अहीर मामले में कह चुकी है कि वो रिलिजन ही तय करेगा कि हमारी रिलीजियस प्रैक्टिस क्या है. तो इसमें भी किसी आउटसाइडर एजेंसी की जरूरत नहीं है.
- सुप्रीम कोर्ट को एक्जामिन करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा है कि कानून बनाने का काम संसद का है, सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.

क्या है अर्जी
1. मार्च 2016 में  उतराखंड की शायरा बानो नामक महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके तीन तलाक, हलाला निकाह और बहु-विवाह की व्यवस्था को असंवैधानिक घोषित किए जाने की मांग की थी.
बानो ने मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन कानून 1937 की धारा 2 की संवैधानिकता को चुनौती दी है. कोर्ट में दाखिल याचिका में शायरा ने कहा है कि मुस्लिम महिलाओं के हाथ बंधे होते हैं और उन पर तलाक की तलवार लटकती रहती है. वहीं पति के पास निर्विवाद रूप से अधिकार होते हैं. यह भेदभाव और असमानता एकतरफा तीन बार तलाक के तौर पर सामने आती है.
2. इसके अलावा जयपुर की आफरीन रहमान ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है. मैरिज पोर्टल से शादी करने वाली रहमान को उसके पति ने स्पीड पोस्ट से तलाक का पत्र भेजा था. उन्होंने भी 'तीन तलाक' को खत्म करने की मांग की है.
3. ट्रिपल तलाक को अंवैधानिक और मुस्लिम महिलाओं के गौरवपूर्ण जीवन जीने के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए पश्चिम बंगाल के हावडा की इशरत जहां ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिस की है.
इशरत ने अपनी याचिका में कहा है कि उसके पति ने दुबई से ही फोन पर तलाक दे दिया और चारों बच्चों को जबरन छीन लिया.
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल पअपनी याचिका में इशरत ने कहा है कि उसका निकाह 2001 में हुआ था और सात से 22 साल के बच्चे भी हैं.  इशरत ने कहा है कि उसके पति ने दूसरी शादी कर ली है.
याचिका में कहा गया है कि ट्रिपल तलाक गैरकानूनी है और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन है जबकि मुस्लिम बुद्धिजीवी भी इसे गलत करार दे रहे है.

आतिया का मामला
4. साल 2016 में सहारनपुर की आतिया साबरी के पति ने कागज पर तीन तलाक लिखकर आतिया से अपना रिश्ता तोड़ लिया था. 2012 में आतिया की शादी हुई, उनकी 2 बेटियां हैं. उनका आरोप है कि लगातार 2 बेटियां से उनके शौहर और ससुर नाराज थे और उन्हें घर से निकालना चाहते थे. उनका कहना है कि दिसंबर 2015 में उन्हें जहर पिलाकर मारने तक की कोशिश की गई थी, पड़ोसियों ने उन्हें बचाया. इसके बाद वह अपने मायके चली गई थीं, जहां वह करीब डेढ़ साल तक रहीं. ससुराल में आतिया को दहेज के लिए भी प्रताड़ित किया जा रहा था. दहेज में मिले सामान को बेच दिया गया था और लाखों रुपए कैश की मांग की जा रही थी.

5. रामपुर की गुलशन परवीन का मामला
2016 में यूपी के रामपुर में रहने वाली गुलशन परवीन को नोएडा में काम करने वाले पति ने दय रुपये के स्टांप पेपर पर तीन तलाकनामा भेज दिया. गुलशन की 2013 में शादी हुई थी और उसका दो साल का बेटा भी है.

फरहा फैज की हस्तक्षेप याचिका
फरहा फैज़ मुस्लिम वोमेन क्वेस्ट नामक एनजीओ उत्तर प्रदेश में चलाती है. इसके साथ ही वो राष्ट्रवादी मुस्लिम महिला संघ की अध्यक्ष भी है.
दरअसल फरहा फैज ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर ट्रिपल तलाक को खत्म करने के मांग की है.
फरहा फैज़ ने अपनी याचिका में कहा है कि - ट्रिपल तलाक कुरान के तहत देने वाले तलाक के अंतर्गत नहीं आता.
- ट्रिपल तलाक की वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन होता है. शादी, तलाक़ और गुजारा भत्ता के लिए कोई सही नियम न होने कि वजह से महिलाएं लिंगभेद का शिकार हो रही है.
- इसके साथ ही मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड एक रजिस्टर्ड सोसाइटी है और वो पूरी कौम के अधिकारों का फैसला नहीं कर सकती.
- याचिका में कहा गया है कि कई मुस्लिम देशों में मुस्लिम पर्सनल लॉ को कोडिफिएड किया गया है जबकि यहां ऐसा नहीं है.

क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट ने
दरअसल, मुस्लिम पर्सनल लॉ में मौजूद 'तीन तलाक' और एक पत्नी के रहते दूसरी महिला से शादी के मामले में 2015 में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस ए आर दवे और जस्टिस आदर्श गोयल की बेंच ने अपने आदेश में चीफ जस्टिस से मामले पर खुद ही संज्ञान लेते हुए फैसला करने के लिए कहा था. बेंच ने कहा था:
- अब वक्त आ गया है कि इस पर कोई कदम उठाए जाए.
- तीन तलाक़, एक पत्नी के रहते दूसरी शादी मूलभूत अधिकार का उल्लंघन, समानता, जीने के अधिकार का उल्लंघन, शादी और उत्तराधिकार के नियम किसी धर्म का हिस्सा नहीं हैं.
-  समय के साथ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में बदलाव ज़रूरी हैं.
- सरकार, विधायिका इस बारे में विचार करें. - यह संविधान में वर्णित मुस्लिम महिलाओं के मूल अधिकार, सुरक्षा का मुद्दा, सार्वजनिक नैतिकता के लिए घातक है.
- भारतीय संविधान लिंग आधारित भेदभाव की इजाजत नहीं देता है.
- मुस्लिम पर्सनल लॉ के शरिया कानून में लैंगिक भेदभाव खत्म करने के लिए एक बड़ी बेंच बनाकर इस मसले को देखा जाए.
-  मुस्लिम पर्सनल लॉ कि वजह से महिलाओं को एकतरफ़ा तलाक झेलना पड़ रहा है और मर्द पहली पत्नी के रहते व बिना तलाक लिए ही दूसरी शादी कर ले रहे हैं जो उस महिला के सम्मान और सुरक्षा के लिए अनुचित है.

बहुचर्चित शाह बानो केस
शाह बानो का मामला भारतीय इतिहास में एक नजीर बन चुका है. इंदौर की रहने वाली शाह बानो ने तलाक के बाद अपने शौहर से गुजारे-भत्ते की मांग की थी. भारत की सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में 62 वर्षीय शाह बानो के हक में फैसला दिया था. उस समय आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका विरोध किया था. बाद में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद में कानून को बदल कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट या था.

 


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