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This Article is From Jan 30, 2014

रवीश उवाच : गांधी के आदर्श कितने प्रासंगिक?

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार। इसलिए नहीं कि आज के दिन गांधी की हत्या हुई थी, इसलिए नहीं कि आज भी कई लोग इस हत्या को जायज़ मानते हुए घूमते रहते हैं, इसलिए भी नहीं कि हमने कभी गांधी की मौत को लेकर गहरा पश्चाताप नहीं किया। बल्कि इसलिए कि हमारे बहुत सारे मोहल्ले, शहर, पुल, मूर्तियां, संग्रहालय, स्कूल, कालेज और बाज़ार गांधी के नाम पर बने हैं।

उनके लिए तो हम कम से कम गांधी को याद कर ही सकते हैं, ताकि गांधीनगरों और गांधी चौकों की प्रासंगिकता बची रहे। हम गांधी को भले न जीते हों मगर उनके बिना जी भी नहीं पाते।

वर्ना दिल्ली पुलिस मुख्यालय की दीवार पर गांधी की तस्वीर क्यों उकेरी जाती। शायद दूर से ही दीवार पर मुस्कुराते गांधी को देखकर किसी का पुलिस के प्रति विश्वास बदल जाए और पुलिस का व्यवहार उसके प्रति। थानों और अफसरों के कमरों में गांधी कब न थे। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में संयुक्त आयुक्त एसके गौतम ने कहा है कि गांधी की यह तस्वीर दिल्ली पुलिस के नारे 'शांति, सेवा और न्याय' के साथ मैच करती है। वैसे बिना गांधी को सोचे शांति सेवा और न्याय का नारा लिखा कैसे गया। जो भी हो मुझे दिल्ली पुलिस का यह प्रयास अच्छा ही लगा। कम से कम पुलिस मुख्यालय देखने में तो पुलिसिया नहीं लगेगा।

कुछ लोग गांधी को दिन रात मारने में लगे रहते हैं और कुछ हैं कि दिन रात गांधी को ज़िंदा करते रहते हैं। आज मुझसे मिलने एम्स के तीन युवा डॉक्टर आए। बताया कि एम्स और आईआईटी के कुछ डॉक्टर इंजीनियर मिलकर ग़रीब छात्रों को कोचिंग माफिया की लूट से बचाने का प्रयास कर रहे हैं।

इन लड़कों ने अपने छोटे से प्रयास में साधारण परिवार के दस लड़कों को मोबाइल फोन से कोचिंग देकर डॉक्टर बना दिया है। ये बहुत कुछ करना चाहते हैं, उससे भी ज़्यादा सांप्रदायिक सदभावना के लिए। बताया कि हमारे ग्रुप में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब हैं। केरल उड़ीसा और यूपी भी है। हम दंगों की मानसिकता के ख़िलाफ़ लड़ना चाहते हैं। आसिफ़, राजीव और अजय, अमर अकबर एंथनी की तरह एक खूबसूरत हिन्दुस्तान का सपना बयां करते हुए मुझे आज के गांधी ही लगे।  पहली मुलाक़ात थी मगर प्रभावित हो गया।  

फिर दैनिक हिन्दुस्तान में गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा भट्ट का लेख पढ़ा तो लगा कि आपको बताना चाहिए। राधा लिखती हैं कि अगस्त 2012 में असम के कोकराझार में हुई भयंकर हिंसा के कारण समाज का हर तबका एक दूसरे से भयभित हो गया। इस घटना को लेकर आज भी दिल्ली की प्रेस कॉन्फ्रेंसों में कांग्रेस−बीजेपी हो जाता है। जब वहां गांधीवादियों की टीम गई तो कोकराझार के भय और घोर अविश्वास के माहौल में जल्दी ही गांधी वो सहारा बन गए जिसके ज़रिये कई समुदायों को क़रीब लाया जा सका।

मुस्लिम राजवंशी बोडो संथाल सब साथ बैठे और एक दूसरे से निर्भय हुए। तय हुआ कि हम पड़ोसियों पर हमला नहीं करेंगे। बच्चे स्कूल जाने लगे। स्कूल−कॉलेजों में भी गांधी की बात सुनने के लिए आयोजन किए गए। वहां के युवा बदलने लगे और समूह बनाकर सेवाग्राम और आगा खां पैलेस पूना जाने लगे। कई कॉलेज स्कूल और गांवों में 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस युवाओं ने ख़ुद मनाया। गांधी हिंसा के बीच समाधान बन गए हैं।

आजकल हर दूसरे दिन दंगों को लेकर बहस होती है। कभी इस बहस में बोलने वाले चेहरों को क्लोज़ अप में देखियेगा। किसी के चेहरे पर अफसोस नहीं दिखेगा कि हम कांग्रेस बीजेपी के तौर पर फेल हुए तो हुए ही, लेकिन उससे पहले हम एक समाज के तौर पर फेल क्यों हुए। किसने कहा कि गांधी को ही याद कीजिए। आखिर ये दल जो गांधी जयंती मनाते हैं ऐसे मौको पर गांधी के सहारे टकराव कम करने क्यों नहीं जाते हैं और आप इनसे ये सवाल क्यों नहीं पूछते हैं।

ऐसे ही एक दिन मुझसे मिलने सुधीर कुमार तिवारी आए। बताया कि उनकी संस्था उन न्यायधीशों के कस्बे या ज़िले की अदालत में जाकर गांधी की प्रतिमा लगाती है, जिन्होंने ईमानदारी से सेवा की है। ताकि वहां के वकीलों और जजों को प्रेरणा मिले। ऐसे समय में जब गांधी की मूर्तियों की प्रासंगिकता किसी नौटंकी से कम नहीं समझी जाती किसी की उनही मूर्तियों में इतनी गहरी आस्था है।

ऐसा नहीं है कि गांधी नहीं हैं। भले राजनीतिक दलों और सत्ता प्रतिष्ठानों में गांधी नज़र नहीं आते। बीजेपी इस बात को लेकर आक्रामक है कि इस बार कांग्रेस समाप्त कर देने के सपने को पूरा कर देना है, पर वो यह नहीं बताते कि गांधी ने यह भी कहा था कि कांग्रेस को भंग कर लोक सेवक संघ बनाया जाए। क्या वो ऐसा करने जा रहे हैं, क्या वो इसकी बात करते हैं। दूसरी तरफ़ कांग्रेस है जो यह नहीं बताती कि उसकी सरकारों ने गांधी के आदर्शों का क्या किया। गांधी एक ढेला बन गए हैं दलों के बीच। जिसे मन करता एक गांधी उठाकर मार देता है।

कभी अण्णा हज़ारे आ जाते हैं गांधी पार्ट टू बन कर, तो कोई अरविंद केजरीवाल गांधी टोपी पर आम आदमी लिखकर गांधी के तरीकों पर चलने का दावा करने लगते हैं। सबको लगता है कि गांधी मतलब टोपी तो सब तरह तरह की टोपी लेकर कार्यकर्ता नेता चले आते हैं। जब मोहल्ला सभा तक सत्ता ले जाने की बात होती है तो पंचायतों को अधिकार देने की बात करने वाले इसे नौटंकी कहने लगते हैं। गांधी ने कहा था कि सत्ता का विकेंद्रीकरण और आज के नेता कहते हैं कि कम से कम गवर्नेंस। सबके पास किसिम किसिम के गांधी हैं, बस गांधी नहीं हैं।

क्या हम या हमारे राजनीतिक दल ईमानदारी से यह बात स्वीकार कर सकते हैं कि गांधी को पूजा तो जा सकता है, मगर उनके आदर्शों पर नहीं चला जा सकता है। क्या कोई दल अपने अतीत के तमाम राखों को झाड़ कर अचानक नए सिरे से गांधी पर चलने के लिए प्रस्थान कर सकता है। आइए देखें रवीश उवाच...

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