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This Article is From Jan 28, 2014

रवीश उवाच : चुनावों में प्रचार की धूम

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रवीश उवाच : चुनावों में प्रचार की धूम
नई दिल्ली:

नमस्कार, मैं रवीश कुमार.... होर्डिंग लगाकर क्या कोई नेता बन सकता है, या बने हुए नेता की छवि नई की जा सकती है? 2014 का चुनाव प्रचार के लिहाज से पहले के चुनावों को पीछे छोड़ने जा रहा है। ऑटो रिक्शा के पीछे होर्डिंग लगाने की होड़ हो या रेडियो एफएम में सबका नमस्कार बोलना या मिस्ड कॉल। हो सकता है कि कुछ ऐसा भी हो, जो न देखा गया हो, जैसे 2012 के चुनावों में नरेंद्र मोदी का थ्री डी कैंपेन। विचार सुनने आई भीड़ को मेले और मजमे का आनंद देकर लौटा दिया जाए, ताकि उन्हें लगे कि सबसे उत्तम नेता को वह सुन कर जा रहे हैं।

दिल्ली की सड़कों से गुजरिए तो आज कल राहुल गांधी का विज्ञापन चारों ओर नजर आता है। जिसमें वह कई लोगों के साथ 'मैं, नहीं हम' के नारे के साथ खड़े हैं। राहुल 'मैं' से 'हम' का प्रतीक बनना चाहते हैं, मगर इस 'हम' में भी 'मैं' ही नजर आता है। यह नारा कहां से आया इस पर भी विवाद हुआ पर विज्ञापन की तस्वीरों में गुजरात के गरीब का फोटो बुलंदशहर का और यूपी के हरे भरे खेत स्वीट्जरलैंड के निकलते रहे हैं। फिलहाल अखबार से लेकर टीवी तक कांग्रेस और राहुल का विज्ञापन छा गया है।

वर्ष 1989 से भारतीय राजनीति में प्रचार का तरीका बदलता है, राजीव गांधी के विज्ञापन एजेंसियों को चुनावी ठेका देने से। वह 'मिस्टर क्लीन' की छवि के साथ उतारे गए और विश्वनाथ प्रताप सिंह 'मिस्टर क्लीन' बनकर आ गए। वर्ष 1998 में बीजेपी अपनी वेबसाइट बनाकर कुछ नए तरीकों से साथ हस्तक्षेप करती है, लेकिन असली खेल बदलता है 1999 से....

2004 आते-आते मोबाइल फोन पर नेताओं के संदेश आने लगते हैं, जो आज आपसे कह रहे हैं कि आप ही हमें मिस्ड कॉल मार दीजिए, एसएमएस, ईमेल, तमाम टीवी चैनल। इन सबके जरिए राजनीतिक विज्ञापन सोफा सेट तक पहुंचने लगा। इस बार ब्रांड अटल नहीं बल्कि एक ऐसा ब्रांड चल गया, जो ब्रांड नहीं था, जिसे बोझ कहा गया था। विदेशी बहु के नारे के बाद भी सोनिया गांधी यूपीए को जिता लार्इं। एक ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री बना, जिसके बारे में किसी ने सोचा न था।

2009 के चुनाव में शाइनिंग इंडिया के कटु अनुभव के कारण बीजेपी का विश्वास थोड़ा हिलता है, मगर सतर्कता के साथ आक्रामकता बनी रहती है। कांग्रेस के जय हो के नारे से बीजेपी भय हो के सहारे लड़ने उतरती है और उनका मजबूत नेतृत्व मनमोहन सिंह के कमजोर नेतृत्व वाले मुद्दे से हार जाता है। लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि 2014 का चुनाव न तो 2009 है और न ही 2004, क्योंकि अब सबके सामने अमरीका है।

अमरीका की तरह डिबेट तो होने से रहा, मगर कैंपेन कुछ-कुछ या बहुत कुछ वैसा ही हो रहा जैसा-जैसा बराक ओबामा ने अपनाया था। उम्मीद करता हूं कि अब भारत का चुनाव भी अमरीका में ही हो, ताकि मुझ जैसे अमरीका वंचित एंकर को वहां जाने का मौका मिले। 2008 में अमरीका की अर्थव्यवस्था फिसल रही थी, जैसे इस समय भारत की स्थिति है।

इस बीच लाखों करोड़ों फूंक कर ओबामा को उम्मीदों के प्रतीक के रूप में कैसे गढ़ दिया जाता है, यह जानने के लिए, वक्त मिले तो ओबामा के कैंपेन मैनेजर रहे डेविड प्लाफ की किताब 'दि ऑडासिटी टू विन' पढ़िएगा। ऑडासिटी का मोटा मोटी मतलब हुआ 'दुस्साहस', एक खास किस्म की आक्रामकता। डेविड बताते हैं कि कैसे खास रणनीति के तहत रिपब्लिकन उम्मीदवार के तमाम मुद्दों की ऐसी धुनाई की गई कि उसका फलूदा निकल गया। पता लगाया गया कि कैसे ओबामा के प्रतिद्वंद्वी मैक्केन इंटरव्यू या भाषण तो अच्छा देते हैं, मगर डायरेक्ट टू कैमरा यानी दर्शकों से आखें मिलाकर बात करने में वह ओबामा पर भारी नहीं पड़ेंगे।

इस एक कमजोरी का फायदा उठाने के लिए रणनीति बनी कि टीवी पर ओबामा अर्थव्यवस्था पर पांच मिनट के लंबे-लंबे भाषण देंगे। इसके लिए लाखों समथर्कों को जोड़ा गया और उनसे चंदे मांगे गए। जैसे यहां मोदी अपने कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि दस करोड़ परिवारों से संपर्क करें और एक वोट एक नोट लें।

ओबामा ने तय किया कि खराब अर्थव्यवस्था को लेकर लोग हताश और भ्रमित हैं और वे हालात तो बदल नहीं सकते, मगर यह तो जता सकते हैं कि उनके पास एक कार्य योजना है। बस लाखों लोगों की सूची बनाई गई, उन्हें ईमेल भेजने के लिए विशालकाय टीमें बनीं।

तीस साल से कम के युवाओं को टार्गेट कर भविष्य निर्माण के नाम पर शामिल किया गया। टैक्स, हेल्थ केयर और अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों की पहचान की गई, जो निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखते हों। यहां तक कि फंड देने वालों को विश्वास हो कि उनका पैसा कैसे खर्च हो रहा है, डेविड प्लॉफ ने लैपटॉप पर एक संदेश रिकार्ड किया और बताया कि कितना पैसा आया और कितना पैसा कहां-कहां खर्च हुआ, ताकि चंदा देने वालों को यह विश्वास हो कि वे एक ऐसी पार्टी को चंदा दे रहे हैं, जो खर्चे का हिसाब देती है। हमारी पार्टियां खर्चे का हिसाब चुनाव आयोग को बताती हैं, सीधे आपको नहीं।

मगर नेता अपनी छवि को लेकर काफी सचेत रहे हैं। नरेंद्र मोदी ही हर रैली में नए रंग या नए कु्र्ते के साथ हाजिर होते हैं। अलग अलग परिधानों में होते हैं। रैली के अलावा कभी सलमान के साथ तो कभी लता मंगेशकर तो कभी सैनिकों के साथ दिखते हैं। उनका हर नया कुर्ता सिर्फ फैशन नहीं है, बल्कि जिम्मेदारी संभालने की तत्परता और उम्मीद बनने की चाहत भी है। कितने का कुर्ता है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, वर्ना सादे कुर्ते में राहुल गांधी मोदी से आगे निकल जाते। यहां प्राइम टाइम में बात करेंगे कि क्या कॉपी राइटर नेता पैदा कर सकते हैं। किया भी है या नहीं... वीडियो देखिए...

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