यह ख़बर 30 जून, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : सेकुलरिज़्म की परिभाषा क्या हो?

नई दिल्ली:

नमस्कार.. मैं रवीश कुमार! यह सवाल तो खुद से पूछिये कि आप सेकुलर हैं या नहीं? होना ज़रूरी भी है या नहीं। क्या सेकुलर होना एक सामान्य नागरिक आचरण है, जिसके तहत हम और आप एक दूसरे की मान्यताओं, आस्थाओं की सीमाओं का आदर करते हैं? क्या सत्ता बदलने से सेकुलर होने की कोई समझ बदल जाती है? क्या यह चुनाव सेकुलर होने के बुनियादी सोच को प्रभावित करता है या सेकुलर होने या दिखने के लिए नाटकीय हरकतों को रिजेक्ट करता है?

इस सवाल पर गौर करना ज़रूरी है, क्योंकि अगर किसी ने टोपी पहनने से मना कर दिया तो क्या वह ऐसा करके एक खास समुदाय को खुश नहीं कर रहा था। टोपी न पहनना तुष्टीकरण का अस्वीकार था या ध्रुवीकरण का अंगीकार। फिर राजनाथ सिंह ने टोपी क्यों पहन ली थी? फिर नरेंद्र मोदी अलग-अलग राज्यो में समुदायों और मज़हबों के लिहाज़ से टोपी या अंगवस्त्रम धारण करता है, तो इससे सेकुलरिज्म की क्या कोई वैकल्पिक परिभाषा बनती नजर आई या अलग-अलग वर्गों से संवाद कायम करने का पहले से चला आ रहा राजनीतिक तौर तरीका।

साथ में यह भी सोचिये कि सोनिया गांधी जब टोपी पहने किसी धार्मिक नेता से मिलती हैं तो क्या वह सेकुलरिज्म की घिसीपिटी समझ से बहुसंख्यक को चिढ़ा रही थीं या वोट लेने के लिए राजनीतिक जुगाड़ कर रही थीं। क्या टोपी न पहनकर या टोपी वाले नेता से मिलकर मौजूदा भारतीय राजनीति के दोनों प्रतीक नेता सेकुलरिज्म की अलग-अलग परिभाषा की दावेदारी कर रहे थे या दोनों अलग-अलग कपड़े पहनकर एक ही काम कर रहे थे।

यह भी ध्यान रखियेगा कि इस बहस का मकसद क्या है? सांप्रदायिकता बनाम सेकुलरिज्म की भिड़ंत के नाम पर एक संप्रदाय के प्रति अपनी नफ़रत को सही ठहराना या अपने भीतर की नफरत से उबर एक दूसरे के प्रति सहिष्णु बनना।

26 मई को हिन्दू में समाजशास्त्री शिवविश्वनाथ ने एक लेख लिखा। सेकुलर कट्टर सोच पर सवाल करने वाले उस लेख की शुरुआत में शिव विश्वनाथन कहते हैं कि जब वे टीवी पर विश्वनाथ मंदिर जाते और गंगा आरती करते नरेंद्र मोदी को देखते हैं तो वे सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि मोदी का संदेश यह है कि हमें अपने धर्म पर शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है। ऐसा इससे पहले नहीं हो सकता था।

ऐसा सोचते वक्त शिव विश्वनाथन जैसे समाजशास्त्री छठ से लेकर कुंभ के मौके पर उन तस्वीरों को भूल जाते हैं, जब मुलायम सिंह यादव गंगा में डुबकी लगाते हैं, सोनिया गांधी डुबकी लगाती हैं और लालू प्रसाद यादव लाइव कैमरों के सामने दो दशक से छठ मना रहे हैं। क्या ऐसे खगोलीय ज्ञान का संबंध सिर्फ राजनीतिक हार और जीत से ही होता है।

इसका ज़िक्र इसलिए भी किया कि एके एंटनी से पहले 26 मई को द हिन्दू में छपे शिव विश्वनाथन के लेख ने काफी खलबली मचाई, जिसे लेकर रवि सिंह और आदित्य निगम ने काफिला.ओआरजी पर अकादमिक लेख लिखे। कांग्रेस नेता एके एंटनी ने तो ऐसी बात कही है जो कई लोगों को ठीक लगी है, मगर ध्यान से देखेंगे तो एंटनी की यह बात आने वाले समय में उस खतरनाक सोच को और मान्यता देती है, जिसके खिलाफ वे अपनी बात कह रहे हैं।

एके एंटनी ने कहा कि सबके प्रति बराबर इंसाफ की नीति पर चलने के बाद भी कांग्रेस को लेकर समाज के कुछ तबके में यह संदेह पैदा हो गया कि पार्टी कुछ खास समुदाय या संगठन के प्रति ज़्यादा झुकी हुई है। रीजनल क्रिश्चियन पार्टी और इंडियन मुस्लिम लीग का महत्व सरकार में बढ़ता जा रहा है, जिससे यह धारणा बनी कि केरल में कांग्रेस सरकार को अल्पसंख्यक चला रहे हैं।

चुनाव के बाद दिग्विजय सिंह ने भी इकॉनोमिक टाइम्स को दिए इंटरव्यू में कहा कि हिन्दुओं के एक बड़े हिस्से को यह लगा कि उन्हें कम मिल रहा है। उन्हें एक होकर सभी सेकुलर दलों को हरा देना चाहिए। यहां तक कि सेकुलर शब्द का मतलब ही हो गया है मुस्लिम तुष्टीकरण।

क्या तुष्टीकरण सिर्फ अल्पसंख्यक सापेक्ष होता है। लेकिन यह इतना भी सापेक्ष न हो जाए कि हर निरपेक्ष चीज़ सांप्रदायिक लगने लगे। जैसे आप केरल के उन नेताओं को नहीं समझा सकते कि क्लास रूम में काले रंग का बोर्ड हटा कर हरे रंग का बोर्ड लगा देना, इस्लामीकरण नहीं है। ग्रीन बोर्ड का विरोध क्या इसलिए हो रहा है कि शिक्षा मंत्री इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का है।

सोमवार के हिन्दू अखबार में है कि सीपीएम के नेता पी विजयन कह रहे हैं कि केंद्र में बीजेपी शिक्षा का भगवाकरण कर रही है, तो केरल में इंडियन मुस्लिम लीग इसे हरा कर रही है। कांग्रेस के भी कई नेताओं ने ग्रीन बोर्ड का विरोध किया है।

देश ही नहीं दुनिया भर के स्कूलों में वैज्ञानिक कारणों से हरे रंग का बोर्ड लगाया जा रहा है। यह बोर्ड बीजेपी के शासित राज्यों में भी लगा होगा। ऐसी बहसों में आप दर्शकों की शिथिलता का खतरनाक इस्तेमाल न हो इसके लिए ज़रूरी है कि एक बार अपने क्लास रूम के ग्रीन बोर्ड को याद कर लीजिएगा। क्या ग्रीन बोर्ड इस्लामीकरण के मकसद से लगाए गए थे। न समझ आए तो इन दो रंगों की फूटी किस्मत पर सर फोड़ लीजिएगा और तब भी न समझ आए तो टीवी बंद कर भाग जाइएगा।

सेकुलर होने की समझ को लेकर इस देश में अलग से चुनाव हो जाना चाहिए। वैसे आप दर्शक बेहतर जानते होंगे कि क्या इसी आधार पर वोट किया या कई कारणों में से एक कारण यह भी था। जश्न जो भी मनाए मगर यह क्या कम बड़ी बात है कि सांप्रदायिकता की जीत का जश्न नहीं मन रहा है। सेकुलरिज्म के ही किसी अन्य रूप का मन रहा है। यही सेकुलर होने की सबसे बड़ी जीत है। आपको कहना पड़ता है कि सेकुलर होने का हमारा पैमाना सही है।

एके एंटनी के बयान के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने रविवार को बीजेपी के पहली बार चुनकर आए सांसदों की क्लास में कहा कि बीजेपी की निर्णायक जीत ने ना केवल देश का राजनीतिक परिदृश्य बदल दिया है, बल्कि विपक्ष के खेमे में राजनीतिक बहस को भी प्रभावित किया है। आडवाणी ने कहा कि 'कुछ ही दिन पहले वरिष्ठ कांग्रेस नेता एके एंटनी ने कहा है कि कांग्रेस को सेकुलरिज़्म पर अपनी नीतियों और उनके पालन पर आत्ममंथन करना चाहिए। हमें इस ईमानदार आत्मचिंतन का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि वह अब वही बात कह रहे हैं जो बीजेपी हमेशा से कहती आई है।

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क्या हम धर्मनिरपेक्षता की किसी नई समझ की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जहां धर्मनिरपेक्षता के मतलब से प्रतिनिधित्व का सवाल तो गायब हो जाएगा? मगर अल्पसंख्यक कोटे का मंत्रिपद जरूर रहेगा, क्योंकि किसी एक को मंत्री बनाना है। किसका सेकुलरिज्म जीता और किसका हारा? जो जीता वह क्या है और जो हारा वह क्या था?