नमस्कार.. मैं रवीश कुमार। प्राइम टाइम टेलिविजन में सोमवार को शुरू हुआ मंगलवार को भी जारी रहा। इस दो दिवसीय वैदिक युग के प्रणेता का नाम बकौल वेद प्रताप वैदिक करोड़ों भारतीय जानते हैं। अब वैदिक युग की मुलाकात पाकिस्तानी आतंकवाद के हाफिज़ युग से हो जाए, तो हिन्दुस्तान के युग विहीन टीवी पत्रकारों का समय बोध कैसे न जागे?
वैदिक जी भारत और पाकिस्तान की तरफ के आज़ाद कश्मीरों को आज़ाद कर देने की वकालत कर दी है। वह भी पाकिस्तान के टीवी चैनल पर जहां प्रशांत भूषण पर हमला करने वाले तत्काल पहुंच भी नहीं सकते थे। नेवर माइंड यानी ख़ैर अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थन करते हुए आपका यह एंकर इस बात से परेशान है कि वह पाकिस्तानी पत्रकारों की इस बात पर यकीन करे कि न करे कि उनका इंटरव्यू इसलिए हुआ, क्योंकि वैदिक जी पाकिस्तान में खुद को नरेंद्र मोदी और सुष्मा स्वराज के करीबी बता रहे थे।
तमाम हंगामों के बीच हम उनके लंबे लंबे बायोडेटा से अभी हीन ग्रंथी यानी इंगलिस में कांप्लेक्स का शिकार हो ही रहे थे कि मंगलवार सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया में अक्षय मुकुल की रिपोर्ट छपी कि भारतीय इतिहास शोध संस्थान यानी आईसीएचआर के निदेशक जाति व्यवस्था की उन खूबियों की वकालत कर रहे हैं, जिनकी पश्चिम परस्त और कार्ल मार्क्स के अनुयायी इतिहासकार निंदा ही करते रह गए।
आईसीएचआर के चेयरमैन का नाम है वाई सुदर्शन राव। वारंगल स्थित काकातिया युनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रोफेसर श्री राव के ब्लॉग पर लिखे गए बायोडेटा में जितने विषय है, उन सबका ज़िक्र करना संभव नहीं है। बस मुझे दो ही बेहद दिलचस्प लगे, क्योंकि दोनों अगल बगल लिखे गए हैं। पहला है इंडियन कल्चर और दूसरा भारतीय संस्कृति। इसके अलावा वे बौद्ध, आध्यात्म, वैदिक साहित्य और सनातन धर्म जैसे अनेकानेक विषयों में महारत हासिल रखते हैं।
विवाद का संदर्भ है 2007 यानी यूपीए काल में लिखा उनका एक लेख। भारतीय जाति व्यवस्था पर लिखे उनके लेख का हिन्दी अनुवाद किया है तो कुछ चूक की आशंका हो सकती है। तो वे लिखते हैं कि प्राचीन काल में जाति व्यवस्था बहुत अच्छा काम कर रही थी और हमें इसके ख़िलाफ किसी पक्ष से कोई शिकायत भी नहीं मिलती है। इसे कुछ खास सत्ताधारी तबके ने अपने आर्थिक और सामाजिक हैसियत को बनाए रखने के लिए दमनकारी सामाजिक व्यवस्था के रूप में प्रचारित किया गया। इसके बारे हमेशा गलत समझा गया कि यह कोई शोषण पर आधारित समाजिक और आर्थिक व्यवस्था है।
प्राचीन काल के किस काल खंड में यह व्यवस्था बहुत बेहतर काम कर रही थी और उस काल में शिकायत करने की क्या व्यवस्था थी जहां तब के लोगों ने जाति व्यवस्था के बारे में शिकायत दर्ज नहीं कराई। जिस रूलिंग क्लास ने इसे दमनकारी व्यवस्था के रूप में पेश किया वह किस कालखंड के हैं।
वैसे तो मेरे जैसे हिन्दी मीडियम वाले भी कास्ट सिस्टम पर सवाल उठाते हैं, मगर राव साहब कहते हैं कि अंग्रेजीदां भारतीय हमारे समाज के जिन रीति रिवाजों पर सवाल उठाते हैं, उन बुराइयों की जड़ें उत्तर भारत के सात सौ काल के मुस्लिम शासन में मौजूद थीं। तो क्या दक्षिण में जाति व्यवस्था नहीं थी।
इस काल के दौरान मध्यकालीन पंडितों ने शास्त्रों में कड़ी शर्तें लगा दीं, जिनकी आलोचना करते हुए मौजूदा बुद्धिजीवियों ने ऐतिहासिक कारण नहीं देखा। भारतीय जाति व्यवस्था सभ्यता के विकास क्रम में लोगों के जटिल जीवन की कुछ बुनियादी ज़रूरतों के जवाब में उभर कर सामने आई। धमर्शास्त्रों के अनुसार समय के साथ जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था में समाहित हो गई।
किस धमर्शास्त्र में कहा गया है, इसका जिक्र नहीं है और यह नहीं बताया कि कब जाति वर्ण बन गई। वैसे इतिहासकार राव बताते हैं कि वर्ण व्यवस्था में पूरी मानवता को देखते हुए इंसान के काम को श्रेणियों में बांटा गया। फिर वे वर्ण और जाति में फर्क करते हुए कहते हैं कि जाति व्यवस्था समुदाय की बात करती है और वर्ण व्यवस्था व्यक्ति विशेष की। वर्ण मोक्ष की तरफ ले जाता है, जबकि जाति किसी सभ्य समाज के भौतिक और मावन संसाधनों के प्रबंधन के लिए है। आप किसी जाति में पैदा होकर किसी दूसरे वर्ण को हासिल कर सकते हैं। जाति व्यवस्था पीढ़ियों तक परिवार की संस्कृति को बनाए रखती है।
धमर्शास्त्र के अनुसार सभी व्यक्ति जन्म से शूद्र होते हैं और वे संस्कारों के जरिये वर्ण हासिल करते हैं। आधुनिक और पश्चिम विद्वानों ने वर्ण और जाति को नहीं समझा। कोई जाति के बिना अपना काम ढूंढ़ सकता है, लेकिन पेशा बदलने से जाति नहीं बदलती। कहीं आप जाति और वर्ण में कंफ्यूज तो नहीं हो रहे। मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारतवर्ष में पांच हजार से ज्यादा जातियां हैं, मगर वर्ण तो सिर्फ चार हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
पश्चिम के दो बड़े विश्वविद्लायों लंदन स्कूल ऑफ इकनोमिक्स और कोलंबिया युनिवर्सिटी से पढ़े लिखे संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने एनहिलिनेशन ऑफ कास्ट में लिखा है कि यह दुखद है कि आज भी जाति का बचाव करने वाले कहते हैं कि जाति व्यवस्था श्रम के विभाजन का नाम है। वे कहते हैं कि श्रम का विभाजन हर सभ्य समाज का लक्षण है, इसलिए जाति व्यवस्था गलत नहीं है। पहली बात तो यह है कि जाति व्यवस्था सिर्फ श्रम विभाजन मात्र नहीं है। यह मजदूरों का भी आपस में विभाजन है। सभ्य समाज को बेशक श्रम का विभाजन चाहिए, लेकिन किसी भी सभ्य समाज में श्रम का विभाजन कभी न बदलने वाले खांचे में नहीं हुआ है। श्रम का विभाजन किसी प्राकृतिक ज़रूरत पर आधारित नहीं था। हम अपनी व्यक्तिगत क्षमता से अपना कैरियर चुनते हैं। जाति व्यवस्था में इस सिस्टम का उल्लंघन हुआ है। इस व्यवस्था में माता पिता की सामाजिक स्थिति के आधार पर तय होता है कि कोई क्या काम करेगा।
डाक्टर आंबेडकर माक्सर्वादी नहीं थे और ये भाषण 1936 का है। सुदर्शन राव साहब कहते हैं कि चुनावी राजनीति और आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के असर के कारण धमर्शास्त्रों को ठीक से नहीं समझा गया। क्या जाति और भोजन को लेकर भेदभाव या छुआछूत की जो हमारी समझ है, वह दरअसल इसलिए गलत है क्योंकि हम धमर्शास्त्र को ठीक से नहीं समझते। फिर जिस समाज को हम रोज अपनी आंखों से देखते हैं उसके बारे में क्या समझें।
जाति को परिवार संस्था से जोड़ते हुए इतिहासकार राव लिखते हैं कि शादियां चाहे समलैंगिक हो या विपरीत लिंग की भारतीय शादी सिर्फ दो व्यक्तियों की पसंद नापसंद का मामला नहीं है। शादी दो परिवारों के बीच होती है।
क्या राव साहब ने यह कहा कि समलैंगिक यानी होमोसेक्सुअल शादियां भारतीय संस्कृति का हिस्सा थी, तो यह बात दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि बीजेपी और संघ परिवार धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंधों को अप्राकृतिक और आपराधिक बनाने से मुक्त करने का विरोध करती है। हमारी बहस भी सिर्फ जाति व्यवस्था पर उनके विचार और ऐतिहासिक साक्ष्यों और मौजूदा राजनीति की समझ को लेकर होगी। वहीं तक सीमित रहेगी।
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