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नमस्कार मैं रवीश कुमार। संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद में भारत ने इज़राइल के खिलाफ वोट किया है। क्या भारत ने ऐसा कर उन लोगों को चौंका दिया है जो इज़राइल का साथ दे रहे थे और सरकार से कह रहे थे कि उसे 2014 के चुनावों में अस्वीकार कर दिए गए सेकुलरवादियों के बहकावे में नहीं आना चाहिए। क्या भारत ने उन लोगों को भी चौका दिया है जो मोदी सरकार पर आरोप मढ़ रहे थे कि वो इज़राइल परस्त है। जिनिवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में जब इज़राइल के खिलाफ जांच के लिए मतदान हुआ तो रूस, चीन, ब्राज़ील, सऊदी अरब, कुवैत, मैक्सिको, पाकिस्तान और भारत सहित 29 देशों ने इज़राइल के खिलाफ वोट किया है।
फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और ब्रिटेन जैसे 17 देश मतदान से गैर-हाज़िर रहे और सिर्फ एक वोट इज़राइल के समर्थन में पड़ा है और वो अमरीका ने दिया। फैसला ये हुआ है कि अब इजराइल के खिलाफ इस बात की जांच होगी उसने अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया है या नहीं।
परिषद की अध्यक्षा नवी पिल्लै ने कहा है कि इज़राइल की सैनिक कार्रवाई युद्ध अपराध लगती है। ऐसा क्या हुआ कि इज़राइल के हमदर्द मुल्कों में सिर्फ अमरीका ही खुलकर सामने आया। क्या इस हमले से इज़राइल की अंतरराष्ट्रीय स्थिति कमज़ोर हो रही है। भारत ने मतदान तो किया ही बहस के दौरान यह भी कहा कि फ़िलिस्तीन मुद्दे का समाधान यह है कि संप्रभु स्वतंत्र रूप से एक यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ फ़िलिस्तीन बने जिसकी राजधानी पूर्वी जेरुसलम हो और जो इज़राइल के साथ शांति से रहे।
भारत ने ब्रिक्स देशों के साथ इजराइल के ख़िलाफ वोट किया है। अब यह फैसला कितना भारत का है और कितना ब्रिक्स का विद्वान बाचेंगे। मगर आप जानते हैं कि ब्राजील में ब्रिक्स देशों के नेताओं ने इज़राइल के खिलाफ एक प्रस्ताव पर दस्तखत भी किये थे। वहां दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि अफगानिस्तान से लेकर अफ्रीका तक के इलाकों में टकराव और उफान का दौर चल रहा है। गंभीर अस्थिरता पैदा हो रही है और हम सब पर असर पड़ रहा है। मुल्क के मुल्क तार तार हो रहे हैं हमारे मूकदर्शक बने रहने से खतरनाक परिणाम हो सकते हैं।
लेकिन, भारत में उनकी सरकार की विदेश मंत्री राज्य सभा में चर्चा का विरोध करते हुए कहा था कि यह चर्चा वांछित नहीं है क्योंकि हमारा दोनों देशों से राजनयिक संबंध हैं। किसी मित्र राष्ट्र के प्रति किसी भी प्रकार की अशिष्ट टिप्पणी उनके साथ हमारे संबंधों पर असर डाल सकती है।
इस सोमवार को राज्य सभा में बहस तो हुई मगर कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ जैसा 2003 में इराक के पक्ष में हुआ था। इस बार सुषमा स्वराज बयान देती हैं कि हमने फ़िलिस्तीन के ऊपर अपना स्टैंड चेंज नहीं किया है और इज़राइल के साथ अपने अच्छे संबंधों को बरकरार रखते हुए फ़िलिस्तीन के मुद्दे का समर्थन करते हैं।
इन हंगामों के बीच अब तक इस हमले में 700 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। जिनमें से 600 से ज्यादा फिलिस्तिनी नागरिक और बच्चे हैं और दो इज़राइली नागरिक मारे गए हैं और 32 सैनिक। हिन्दुस्तान में जब लेफ्ट और अन्य दल इज़राइल के हमले की निंदा कर रहे थे, तब सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोग इज़राइल के लिए आवाज़ उठाने लगे। इनमें से ज्यादातर खुद को मोदी समर्थक बताने वाले और बीजेपी समर्थक हैं।
इस संदर्भ में दो लेख महत्वपूर्ण हैं जिसमें सेकुलर दलों की आलोचना की गई है और कहा गया कि मीडिया इज़राइल विरोधियों से भरा हुआ है। ये लेख हैं अशोक मलिक और स्वपन दासगुप्ता के। स्वपन दासगुप्ता 20 जुलाई को पायनियर अखबार में लिखते हैं कि घरेलू श्रोताओं की ख़ातिर फ़िलिस्तीन के लिए आंसू बहाए जा रहे हैं। सेकुलर दल इज़राइल पर हमले के बहाने 2014 की हार के सदमे से उबरने का प्रयास कर रहे हैं। जताना चाहते हैं कि मोदी के पास भले ही बहुमत है, लेकिन वीटो उनके पास है। इनलोगों को हमास और इराक के सुन्नी आतंकवादी दल आईसीसी का संबंध नहीं दिखता। स्वपन साफ साफ लिखते हैं कि इन राजनीतिक इरादों के प्रति सहानुभूति भी रखना निंदनीय है। भारत को ऐसी जमात के साथ खड़ा नहीं होना चाहिए।
लेकिन जैसे ही खबर आई कि भारत ने खिलाफ मतदान किया है सोशल मीडिया पर इजराइल और नमो समर्थक सकपका गए। कइयों को लगा कि भारत ने मतदान से गैर-हाज़िर रहने का विकल्प क्यों नहीं चुना। जैसे मार्च 2014 में भारत ने श्रीलंका के खिलाफ मतदान से गैर-हाज़िर रहने का विकल्प चुना था। हमारी सहयोगी निधि राज़दान को सरकार के सूत्रों ने बताया है कि भारत ने 1947 से फिलिस्तिन के पक्ष में मतदान करने की परंपरा को निभाया है और हमेशा मानवाधिकार के मुद्दे पर इज़रायल के खिलाफ वोट किया है। भारत का इज़राइल से अच्छा संबंध है, मगर बहुपक्षीय स्तर पर इज़रायल मानवाधिकार का हनन करने वाले के तौर पर देखा जाता है। अंतरराष्ट्रीय नियमों के खिलाफ जाने वाले देश का समर्थन करने का कोई मतलब नहीं है। भारत को कोई लाभ नहीं होता समर्थन देकर इज़राइल ने भी किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का साथ नहीं दिया है।
पर ब्रिक्स तो 1947 में नहीं बना था, जहां भारत ने इज़राइल के खिलाफ दस्तखत किए हैं। और फिर इज़राइल से दोस्ती की बात करने वालों को सूत्रों से यह क्यों कहलवाना पड़ा कि इज़राइल का साथ देने से कोई लाभ नहीं होता। फिर उन दलीलों का क्या हुआ जिसमें कहा गया कि भारत के मुसलमानों को खुश करने के लिए फिलिस्तीन के हक में आवाज़ उठाने की नौटंकी की जा रही है। क्यों न यह माना जाए कि भारत ने एक सही और स्पष्ट स्टैंड लिया है। और यह स्टैंड मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि मानवाधिकार के हक में लिया है। इज़राइल के खिलाफ बोलने वालों में यह भी तो बोल रहे थे कि मामला मुसलमानों का नहीं है। अचानक भारत ने 1947 वाली बात क्यों याद दिलाई। 1947 और 2014 के भारत के दोनों कदम भले समान हों पर क्या हालात भी एक हैं। इस बार इजराइल के खिलाफ युद्ध अपराध वार क्राइम की जांच का मामला है। प्राइम टाइम
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