यह ख़बर 23 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

दिल्ली : रैन बसेरा सरकारी और कंबल किराये पर

नई दिल्ली:

यमुना बाजार पुल के नीचे लोगों से अटा पड़ा रैन बसेरा। ठंड ने इंसान और जानवर तक की दूरी मिटा दी है। रैन बसेरा है तो दिल्ली सरकार का, लेकिन ठंड से बचने के लिए कई लोगों ने अपने शरीर पर किराये का लिहाफ ओढ़ रखा है।

यहां रात गुजारने वालों की तादाद ढाई सौ के आसपास है, लेकिन उनके लिए कंबल महज 100 से भी कम हैं। या तो खुद का कंबल लाइए या फिर किराये पर रात बिताइए। रिक्शा चलाने वाले मोहम्मद शकील ने बताया कि अगर इस रैन बसेरे में आते-आते शाम के 7 बज जाएं, तो फिर कंबल के लिए किराये का ही आसरा बचता है। नया लिहाफ लेंगे तो 20 रुपये और पुराने में काम चलाना है तो 10 रुपये।

किराये पर कंबल बेचने वाले ठेकेदार की दुकान भी इसी पुल के नीचे है, जहां हजारों की तादाद में कंबल और गद्दे सजे रहते हैं। कैमरा देखकर तो ठेकेदार गायब हो गया, लेकिन कीमत अदा करने वालों ने सच बयां कर दिया। बिहार का दिनेश यहां ठेला चलाकर गुजर-बसर करता है। कहा, साहब गरीब को कोई पूछने वाला नहीं। अगर ये रैन बसेरा बना तो चैन से सोने का इंतजाम भी तो हो, लेकिन हम अपने पैसों से यहां कंबल किराये पर लेकर सो रहे हैं, बताइए ये सुविधा किस काम की और किसके लिए। इतना ही नहीं कैमरा देखते ही लोग जुट गए और किराये की एक ऐसी ही दुकान का ठिकाना बताया।

फिर हम पहुंच लोहे वाले पुल के नीचे। यमुना बाजार से महज 500 मीटर दूर। यहां लोगों को छत देने का काम पुल कर रही है और ठंड की ठिठुरन पैसों की गर्माहट से दूर हो रही है। यहां खाट का भी इंतजाम दिखा। पूरा पैकेज 30 रुपये का, जिसमें एक खाट, एक गद्दा और एक लिहाफ। इतना ही नहीं, नया कंबल या लिहाफ लेंगे, तो कीमत 20 रुपये अदा करनी होगी।

रैन बसेरों को लेकर सरकारी दावों को टटोलने हम पहुंचे पुरानी दिल्ली की गली बोरियान। यहां टंगा अग्निशमन यंत्र दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं। जिसकी डेट निकल चुकी है। नियम के मुताबिक डॉक्टर को रैन बसेरों तक आना चाहिए, लेकिन डॉक्टर साहब बस दूर से रजिस्टर में एंट्री करते हैं और काम पूरा हो जाता है।

यहां के केयरटेकर राजेश पांडे ने बताया कि डॉक्टर साहब यहां तक नहीं आते। कहते हैं गाड़ी फंस जाएगी, लिहाजा वहीं रजिस्टर लेकर मैं चला जाता हूं और वह मरीजों के लिए दवाई दे देते हैं। दिल्ली सरकार के मुताबिक फिलहाल 221 रैन बसेरे चल रहे हैं, लेकिन आंकड़ों पर मत जाइए...हकीकत में जहां लोग अपनी रैन ना बसर कर पाएं, वह रैन बसेरे बस नाम ही के तो हैं।

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