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This Article is From Aug 02, 2016

आत्मकथा : महात्मा गांधी के दर्शन के दो दिन बाद ही प्रेमचंद ने छोड़ दी थी 20 साल पुरानी नौकरी

आत्मकथा : महात्मा गांधी के दर्शन के दो दिन बाद ही प्रेमचंद ने छोड़ दी थी 20 साल पुरानी नौकरी
मुंशी प्रेमचंद. स्केच- असरार अहमद
(मुंशी प्रेमचंद की यह आत्मकथा 'हंस' पत्रिका में 1932 में प्रकाशित हुई थी.)

मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं खड्ढे तो हैं पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है. जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहां निराशा ही होगी. मेरा जन्म संवत् 1937 में हुआ. पिता डाकखाने में क्लर्क थे, माता मरीज, एक बड़ी बहन भी थीं. उस समय पिताजी शायद 20 रुपये पाते थे, 40 तक पहुंचते-पहुंचते उनकी मृत्यु हो गई. यों वह बड़े विचारशील, जीवन-पथ पर आंखें खोलकर चलने वाले आदमी थे. लेकिन आखिरी दिनों में एक ठोकर खा ही गए और खुद तो गिरे ही थे, उसी धक्के में मुझे भी गिरा दिया. 15 साल की अवस्था में उन्होंने मेरा विवाह कर दिया और विवाह के साल ही भर बाद परलोक सिधारे.

उस समय मैं नवें दर्जे में पढ़ता था. घर में मेरी स्त्री थी, विमाता थीं, उनके दो बालक थे और आमदनी एक पैसे की नहीं. घर में जो कुछ लेई-पूंजी थी, वह पिताजी की छह महीने की बीमारी और क्रियाकर्म में खर्च हो चुकी थी. और मुझे अरमान था वकील बनने का और एमए पास करने का. नौकरी उस जमाने में भी इतनी दुष्प्राप्य थी, जितनी अब है. दौड़-धूप करके दस बारह की कोई जगह पा जाता, पर यहां तो आगे पढ़ने की धुन थी. पांव में लोहे की नहीं अष्टधातु की बेड़ियां थीं और मैं चढ़ना चाहता था पहाड़ पर.

पांव में जूते न थे, देह पर साबुत कपड़े न थे. स्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी. काशी के क्वींस कॉलेज में पढ़ता था. हेडमास्टर ने फीस माफ कर दी थी. इम्तहान सिर पर था. और मैं बांस फाटक एक लड़के को पढ़ाने जाता था. जाड़ों के दिन थे. चार बजे पहुंचता था, पढ़ाकर छह बजे छुट्टी पाता था. वहां से मेरा घर देहात में पांच मील था. तेज चलने पर भी आठ बजे से पहले न पहुंच सकता था. और प्रातः काल आठ बजे फिर घर से चलना पड़ता था, सही वक्त पर स्कूल नहीं पहुंचता. रात को भोजन करके कुप्पी के सामने पढ़ने बैठता और न जाने कब सो जाता. फिर भी हिम्मत बांधे हुए था.

मैट्रिकुलेशन तो किसी तरह से पास हो गया, पर आया सेंकेड डिवीजन में और क्वींस कॉलेज में भरती होने की आशा न रही. फीस केवल अव्वल दर्जे वालों की ही मुआफ हो सकती थी. संयोग से उसी साल हिंदू कॉलेज खुल गया था. मैंने इस नए कॉलेज में पढ़ने का निश्चय किया. प्रिंसिपल थे - मिस्टर रिचर्डसन. उनके मकान पर गया. वह पूरे हिंदुस्तानी वेष में थे. कुर्ता और धोती पहने फर्श पर बैठे कुछ लिख रहे थे. मेरी प्रार्थना सुनकर - आधी ही कहने पाया था - बोले कि घर पर मैं कॉलेज की बातचीत नहीं करता, कॉलेज में आओ. खैर, कॉलेज में गया. मुलाकात तो हुई, पर निराशाजनक. फीस मुआफ न हो सकती थी. अब क्या करूं. अगर प्रतिष्ठित सिफारिशें ला सकता, तो शायद मेरी प्रार्थना पर कुछ विचार होता लेकिन देहाती युवक को शहर में जानता कौन था.
इस साल गूगल ने मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन पर पेश किया यह डूडल.

रोज घर से चलता कि कहीं से सिफारिश लाऊं पर बारह मील की मंजिल मारकर शाम को घर लौट आता. किससे कहूं, कोई अपना पुछत्तर न था. कई दिनों बाद एक सिफारिश मिली. एक ठाकुर इंद्र नारायण सिंह हिंदू कॉलेज की प्रबंधकारिणी सभा में थे. उनसे जाकर रोया, उन्हें मुझ पर दया आ गई. सिफारिशी चिट्ठी दे दी. उस समय मेरे आनंद की सीमा न थी. खुश होता हुआ घर आया. दूसरे दिन प्रिंसिपल से मिलने का इरादा था, लेकिन घर पहुंचते ही मुझे ज्वर आ गया. और दो सप्ताह से पहले न हिला. नीम का काढ़ा पीते-पीते नाम में दम आ गया. एक दिन द्वार पर बैठा था कि मेरे पुरोहितजी आ गए. मेरी दशा देखकर समाचार पूछा. और तुरंत खेतों में जाकर एक जड़ खोद लाए और उसे धोकर सात दाने काली मिर्च के साथ पिसवाकर मुझे पिला दिया. उसने जादू का असर किया. ज्वर चढ़ने में घंटे भर की देर थी. इस औषधि ने मानों जाकर उसका गला ही दबा दिया. मैंने पंडितजी से बार-बार उस जड़ी का नाम पूछा पर उन्होंने न बताया. कहा - नाम बता देने से उसका असर जाता रहेगा. एक महीने के बाद मैं फिर मिस्टर रिचर्डसन से मिला और सिफारिशी चिट्ठी दिखाई. प्रिंसिपल ने मेरी तरफ तीव्र नेत्रों से देखकर पूछा - इतने दिनों कहां थे?

बीमार हो गया था?
क्या बीमारी थी?

मैं इस प्रश्न के लिए तैयार न था. अगर ज्वर बताता हूं तो शायद साहब मुझे झूठा समझें. ज्वर मेरी समझ में हल्की चीज थी. जिसके लिए इतनी लंबी गैरहाजिरी अनावश्यक थी. कोई ऐसी बीमारी बतानी चाहिए जो अपनी कष्टसाध्यता के कारण दया को भी उभारे. उस वक्त मुझे और किसी बीमारी का नाम याद न आया. ठाकुर इंद्रनारायण सिंह से जब मैं सिफारिशी के लिए मिला था उन्होंने अपने दिल की धड़कन की बीमारी की चरचा की थी. वह शब्द मुझे याद आ गया.

मैंने कहा - पैलपिटेशन ऑफ हार्ट सर.
साहब ने विस्मित होकर मेरी ओर देखा और कहा - अब तुम बिल्कुल अच्छे हो.
जी हां.
अच्छा प्रवेशपत्र भरकर लाओ.

मैंने समझा बेड़ा पार हुआ. फॉर्म लिया. खानेपूरी की और पेश कर दिया. साहब उस समय कोई क्लास ले रहे थे. तीन बजे मुझे फॉर्म वापस मिला. उस पर लिखा था, इसकी योग्यता की जांच की जाय.
मुंशी प्रेमचंद का लमही स्थित घर.

यह नई समस्या उपस्थित हुई. मेरा दिल बैठ गया. अंग्रेजी के सिवा और किसी विषय में पास होने की मुझे आशा न थी और बीजगणित और रेखा गणित से तो मेरी रूह कांपती थी. जो कुछ याद था, वह भी भूल-भाल गया था, लेकिन दूसरा उपाय ही क्या था. भाग्य का भरोसा करके क्लास में गया और अपना फॉर्म दिखाया. प्रोफेसर साहब बंगाली थे. अंग्रेजी पढ़ा रहे थे. वाशिंगटन इर्विन का रिपवान विंकिल था. मैं पीछे की कतार में जाकर बैठ गया. और दो ही चार मिनट में मुझे ज्ञात हो गया कि प्रोफेसर साहब अपने विषय के ज्ञाता हैं. घंटा समाप्त होने पर उन्होंने आज के पाठ पर मुझसे कई प्रश्न किए और मेरे फॉर्म पर संतोषजनक लिख दिया.

दूसरा घंटा बीजगणित का था. इसके प्रोफेसर भी बंगाली थे. मैंने अपना फॉर्म दिखाया. नई संस्थाओं में प्रायः वही छात्र आते हैं जिन्हें कहीं जगह नहीं मिलती. यहां भी यही हाल था. क्लासों में अयोग्य छात्र भरे हुए थे. पहले रेले में जो आया भरती हो गया. भूख में साग-पास सभी रुचिकर होता है. अब पेट भर गया था. छात्र चुन-चुन कर लिए जाते थे. इन प्रोफेसर साहब ने मेरी परीक्षा ली और मैं फेल हो गया. फॉर्म पर गणित के खाने में ‘असंतोषजनक’ लिख दिया.

मैं इतना हताश हुआ कि फॉर्म लेकर फिर प्रिंसिपल के पास न गया. सीधा घर चला आया. गणित मेरे लिए गौरीशंकर की चोटी थी. कभी उस पर न चढ़ सका. इंटरमीडिएट में दो बार गणित में फेल और निराश होकर इम्तहान देना छोड़ दिया. दस ग्यारह साल के बाद जब गणित की परीक्षा में अख्तियारी हो गई, तब मैंने दूसरे विषय लेकर आसानी से पास कर लिया. उस समय तक यूनिवर्सिटी के इस नियम ने कितने युवकों की आकांक्षाओं का खून किया, कौन कह सकता है.

खैर, मैं निराश होकर घर तो लौट आया, लेकिन पढ़ने की लालसा अभी तक बनी हुई थी. घर बैठकर क्या करता? किसी तरह गणित को सुधारूं और फिर कॉलेज में भरती हो जाऊं, यही धुन थी. इसके लिए शहर में रहना जरूरी था. संयोग से एक वकील साहब के लड़के को पढ़ाने का काम मिल गया. पांच रुपये वेतन ठहरा. मैंने दो रुपये में अपना गुजर करके तीन रुपये घर देने का निश्चय किया. वकील साहब के अस्तबल के ऊपर एक छोटी सी कच्ची कोठरी थी. उसी में रहने की मैंने आज्ञा ले ली. एक टाट का टुकड़ा बिछा दिया. बाजार से एक छोटा सा लैंप लाया और शहर में रहने लगा. घर से कुछ बरतन भी लाया. एक वक्त खिचड़ी पका लेता और बरतन धो-मांज कर लाइब्रेरी चला जाता. गणित तो बहाना था, उपन्यास आदि पढ़ा करता. पंडित रतननाथ दर का ‘फिसाना आजाद’ उन्हीं दिनों पढ़ा. ‘चंद्रकांता संतति’ भी पढ़ी. बंकिम बाबू के उर्दू अनुवाद, जितने पुस्तकालय में मिले, सब पढ़ डाले.

जिन वकील साहब के लड़के को पढ़ाता था, उनके साले मेरे साथ मैट्रीकुलेशन में पढ़ते थे. उन्हीं की सिफारिश से मुझे यह पद मिला था. उनसे दोस्ती थी, इसलिए जब जरूरत होती, पैसे उधार ले लिया करता था. वेतन मिलने पर हिसाब हो जाता था. कभी दो रुपये हाथ में आते तो कभी तीन. जिस दिन वेतन के तीन रुपये हाथ आते, मेरा संयम हाथ से निकल जाता. प्यासी तृष्णा हलवाई की दुकान की ओर खींच ले जाती. दो-तीन आने पैसे खाकर ही उठता, उसी दिन घर जाता और दो-ढाई रुपये दे आता. दूसरे दिन से फिर उधार लेना शुरू कर देता. लेकिन कभी-कभी उधार मांगने में भी संकोच होता और दिन का दिन निराहार व्रत रहना पड़ जाता.

इस तरह से चार-पांच महीने बीते. इस बीच एक बजाज से दो-ढाई रुपये के कपड़े लिए थे. रोज उधर से निकलता था. उसे मुझ पर विश्वास हो गया था, जब महीने-दो महीने गुजर गए और मैं रुपए न चुका सका, तो मैंने उधर से निकलना ही छोड़ दिया. चक्कर देकर निकल जाता. तीन साल के बाद उसके रुपए अदा कर सका. उसी जमाने में शहर का एक बेलदार मुझसे कुछ हिंदी पढ़ने आया करता था. वकील साहब के पिछवाड़े में उसका मकान था. ‘जान लो भैया’ उसका सखुन तकिया था. हम लोग उसे ‘जान लो भैया’ ही कहा करते. एक बार मैंने उससे भी आठ आने पैसे उधार लिए थे. वह पैसे उसने मुझसे मेरे घर-गांव जाकर पांच साल बाद वसूल किए. मेरी अब भी पढ़ने की इच्छा थी, लेकिन दिन-दिन निराश होता जाता था. जी चाहता था कहीं नौकरी कर लूं, पर नौकरी कैसे मिलती है और कहां मिलती है यह न जानता था.

जाड़े के दिन थे. पास एक कौड़ी न थी. दो दिन एक-एक पैसे का चबेना खाकर काटे थे. मेरे महाजन ने उधार देने से इंकार कर दिया था, या संकोचवश मैं उससे मांग न सका था. चिराग जल चुके थे, मैं एक बुकसेलर की दुकान पर एक किताब बेचने गया. चक्रवर्ती गणित की कुंजी थी. दो साल हुए खरीदी थी. अब तक उसे बड़े जतन से रक्खे हुए था, पर आज चारों ओर से निराश होकर मैंने उसे बेचने का निश्चय किया. किताब दो रुपये की थी लेकिन एक पर सौदा ठीक हुआ. मैं रुपया लेकर दुकान से उतरा ही था कि एक बड़ी-बड़ी मूछों वाले सौम्य पुरुष ने जो उस दुकान पर बैठे हुए थे, मुझसे पूछा - तुम कहां पर पढ़ते हो?
मैंने कहा - पढ़ता तो कहीं नहीं हूं, पर आशा करता हूं कि कहीं नाम लिखा लूंगा.
‘मैट्रिकुलेशन पास हो?’
‘जी हां’
‘नौकरी करने की इच्छा तो नहीं है?’
‘नौकरी कहीं मिलती ही नहीं.’

यह सज्जन एक छोटे से स्कूल के हेडमास्टर थे. उन्हें एक सहकारी अध्यापक की जरूरत थी. अठारह रुपये वेतन था. मैंने स्वीकार कर लिया. अठारह रुपए उस समय मेरी निराशा-व्यथित कल्पना की ऊंची से ऊंची उड़ान से भी ऊपर थे. मैं दूसरे दिन हेडमास्टर साहब से मिलने का वादा करके चला तो पांव जमीन पर न पड़ते थे. यह 1899 की बात है. परिस्थितियों का सामना करने को तैयार था और गणित में अटक न जाता तो अवश्य आगे जाता, पर सबसे कठिन परिस्थिति यूनिवर्सिटी की मनोविज्ञान-शून्यता थी जो तब और उसके कई साल बाद तक डाकू का-सा व्यवहार करती थी, जो छोटे-बड़े सभी को एक ही खाट पर सुलाती थी.

मैंने पहले पहल 1907 में गल्पें लिखनी शुरू की. डॉक्टर रवींद्रनाथ की कई गल्पें मैंने अंग्रेजी में पढ़ी थीं और उसका उर्दू अनुवाद उर्दू पत्रिकाओं में छपवाया था. उपन्यास तो मैंने 1901 ही से लिखना शुरू किया. मेरा एक उपन्यास 1902 में निकला और दूसरा 1904 में. लेकिन गल्प 1907 से पहले एक भी न लिखी. मेरी पहली कहानी का नाम था ‘संसार का सबसे अनमोल रत्न’. वह 1907 में ‘जमाना’ में छपी. उसके बाद मैंने चार-पांच कहानियां और लिखीं. पांच कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ के नाम से 1909 में छपा. उस समय बंग-भंग का आंदोलन हो रहा था. कांग्रेस गरम दल की सृष्टि हो चुकी थी. इन पांचों कहानियों में स्वदेश प्रेम की महिमा गाई गई थी.

उस वक्त मैं शिक्षा विभाग में सब डिप्टी इंसपेक्टर था और हमीरपुर के जिले में तैनात था. पुस्तक को छपे छह महीने हो चुके थे. एक दिन मैं रात को अपनी रावटी पर बैठा हुआ था, कि मेरे नाम जिलाधीश का परवान पहुंचा, कि मुझसे तुरंत मिलो. जाड़ों के दिन थे. साहब दौरे पर थे. मैंने बैलगाड़ी जुतवाई और रातों-रात 30-40 मील तय करके दूसरे दिन साहब से मिला. साहब के सामने ‘सोजे वतन’ की एक प्रति रक्खी हुई थी. मेरा माथा ठनका. उस वक्त मैं नवाबराय के नाम से लिखा करता था. मुझे इसका कुछ-कुछ पता मिल चुका था कि खुफिया पुलिस इस किताब के लेखक की खोज में है. समझ गया कि उन्होंने मुझे खोज निकाला और उसी की जवाबदेही के लिए मुझे बुलाया गया है.

साहब ने मुझसे पूछा - यह पुस्तक तुमने लिखी है?
मैंने स्वीकार किया.

साहब ने मुझसे एक-एक कहानी का आशय पूछा और बिगड़कर बोले- तुम्हारी कहानियों में सिडीशन भरा हुआ है. अपने भाग्य को बखानो कि अंग्रेजी अमलदारी में हो, मुगलों का राज्य होता, तो तुम्हारे दोनों हाथ काट लिए जाते. तुम्हारी कहानियां एकांगी हैं, तुमने अंग्रेजी सरकार की तौहीन की है, आदि. फैसला हुआ कि ‘सोजे वतन’ की सारी प्रतियां सरकार के हवाले कर दूं और साहब की अनुमति के बिना कुछ न लिखूं. मैंने समझा, चलो सस्ते छूटे. एक हजार प्रति छपी थीं. अभी मुश्किल से 300 बिकी थीं. शेष 700 प्रतियां मैंने जमाना कार्यालय से मंगवाकर साहब की सेवा में अर्पण कर दीं.

मैंने समझा कि बला टल गई. किंतु अधिकारियों को इतनी आसानी से संतोष न हो सका. मुझे बाद में मालूम हुआ कि साहब ने इस विषय में जिले के अन्य कर्मचारियों से परामर्श किया, सुपरीटेंडेंट पुलिस, दो डिप्टी कलेक्टर और डिप्टी इंस्पेक्टर - जिनका मैं मातहत था - मेरी तकदीर का फैसला करने बैठे. एक डिप्टी कलेक्टर ने गल्पों से उद्धरण निकालकर सिद्ध किया कि इसमें आदि से अंत तक सिडीशन के सिवा और कुछ नहीं है. और सिडीशन भी साधारण नहीं, बल्कि संक्रामक. पुलिस के देवता ने कहा - ऐसे खतरनाक आदमी को जरूर सख्त सजा मिलनी चाहिए, डिप्टी इंस्पेक्टर साहब मुझसे स्नेह करते थे. इस भय से कहीं मुआमला तूल न पकड़ ले, उन्होंने यह प्रस्ताव किया कि वह मित्र भाव से मेरे राजनैतिक विचारों की थाह लें और उस कमेटी में रिपोर्ट करें. उनका विचार था कि मुझे समझा दें और रिपोर्ट में लिख दें कि लेखक केवल कलम का उग्र है और राजनैतिक आंदोलन से उसका कोई संबंध नहीं है. कमेटी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार किया. हालांकि पुलिस के देवता उस वक्त पैंतरे बदलते रहे.

सहसा कलेक्टर साहब ने डिप्टी इंसपेक्टर से पूछा - आपको आशा है कि वह आपसे अपने दिल की बात कह देगा.
डिप्टी साहब ने कहा - जी हां उनसे मेरी घनिष्ठता है.
‘आप मित्र बनकर उसका भेद लेना चाहते हैं, यह तो मुखबिरी है, मैं इसे कमीनापन समझता हूं .’

डिप्टी साहब अप्रतिभ होकर हकलाते हुए बोले - मैं तो हुजूर के हुक्म...साहब ने बात काटी - नहीं, यह मेरा हुक्म नहीं है, मैं ऐसा हुक्म नहीं देना चाहता. अगर पुस्तक में लेखक का सिडीशन साबित हो सके तो खुली अदालत में मुकदमा चलाइए, नहीं तो धमकी देकर छोड़ दीजिए, मुंह में राम बगल में छुरी मुझे पसंद नहीं.
जब वह वृतांत डिप्टी इंसपेक्टर ने कई दिन पीछे मुझसे कहा, तो मैंने पूछा - क्या आप सचमुच मेरी मुखबिरी करते थे?
वह हंसकर बोले - असंभव. कोई लाख रुपए भी देता तो न करता. मैं तो केवल अदालती कार्रवाई रोकना चाहता था और वह रुक गई. मुकदमा अदालत में जाता तो सजा हो जाना यकीनी था. यहां आपकी पैरवी करने वाला भी कोई न मिलता, मगर साहब हैं शरीफ आदमी.
मैंने स्वीकार किया - बहुत ही शरीफ.

मैं हमीरपुर में ही था कि मुझे पेचिश की शिकायत पैदा हो गई. गर्मी के दिनों में देहातों में कोई हरी तरकारी मिलती न थी, एक बार कई दिनों तक लगातार सूखी घुइयां खानी पड़ी. यों मैं घुइयों को बिच्छू समझता हूं और तब भी समझता था लेकिन न जानें क्योंकर यह धारणा मन में हो गई कि अजवाइन से घुइयों का बादीपन जाता रहता है. खूब अजवाइन जलवाकर खा लिया करता. दस बारह दिन तक कोई कष्ट न हुआ. मैंने समझा शायद बुंदेलखंड की पहाड़ी जलवायु ने मेरी दुर्बल पाचनशक्ति को तीव्र कर दिया, लेकिन एक दिन पेट में दर्द शुरू हुआ और सारे दिन मैं मछली की भांति तड़पता रहा. फकिया खाईं, पेट पर गर्म बोतल फेरी, जामुन का अर्क पिया - देहात में जितनी दवाएं मिल सकती थी खाईं मगर दर्द कम न हुआ. दूसरे दिन पेचिश हो गई. मल के साथ आंव आने लगा. लेकिन दर्द जाता रहा.

एक महीना बीत चुका था. मैं एक कस्बे में पहुंचा, तो वहां के थानेदार ने मुझसे थाने में ही ठहरने और भोजन करने का आग्रह किया. कई दिन से मूंग की दाल खाते और पथ्य करते-करते ऊब चुका था. सोचा क्या हरज है आज यहीं ठहरो. भोजन तो स्वादिष्ट मिलेगा. थाने में ही अड्डा जमा दिया. दारोगाजी ने जिमीकंद का सालन पकवाया, पकौड़ियां, दही बड़े, पुलाव. मैंने एहतियात से खाया - जिमीकंद तो मैंने केवल दो फांक खाई - लेकिन खा-पीकर जब थाने के सामने दारोगाजी के फूस के बंगले पर लेटा तो दो-ढाई घंटे के बाद पेट में दर्द होने लगा. सारी रात और अगले दिन भर कराहता रहा. सोडे की दो बोतलें पीने के बाद कै हुई. तो जाकर चैन मिला. मुझे विश्वास हो गया यह जिमीकंद की कारस्तानी है.

घुइयां से पहले ही मेरी कट्टी हो चुकी थी, अब जिमीकंद से भी बैर हो गया. तब से इन दोनों चीजों की सूरत देखकर मैं कांप जाता हूं. दर्द तो फिर जाता रहा, पर पेचिश ने अड्डा जमा लिया. पेट में चौबीसों घंटे तनाव बना रहता. अफारा हुआ करता. समय के साथ चार-पांच मील टहलने जाता, व्यायाम करता, पथ्य से भोजन करता कोई न कोई औषधि भी खाया करता किंतु पेचिश टलने का नाम न लेती थी, और देह भी घुलती जाती थी. कई बार कानपुर आकर दवा कराई. एक बार महीने भर प्रयास में डॉक्टरी और आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन किया पर कोई फायदा नहीं.

तब मैंने अपना तबादला कराया. चाहता था रोहेलखंड पर पटका गया बस्ती के जिले में और हलका वह मिला जो नेपाल की तराई है. सौभाग्य से वहीं मेरा परिचय स्व.पंडित मन्नन द्विवेदी से हुआ जो डुमरियागंज में तहसीलदार थे. कभी उनके साथ साहित्य चर्चा हो जाती थी, लेकिन यहां आकर पेचिश और बढ़ गई. तब मैंने छह महीने की छुट्टी ली और लखनऊ के मेडिकल कॉलेज से निराश होकर काशी के एक हकीम से इलाज कराने लगा. तीन-चार महीने के बाद थोड़ा सा फायदा तो मालूम हुआ पर बीमारी जड़ से न गई. जब फिर बस्ती पहुंचा तो वही हालत हो गई. तब मैंने दौरे की नौकरी छोड़ दी और बस्ती हाईस्कूल में स्कूल मास्टर हो गया. फिर यहां से तबदील होकर गोरखपुर पहुंचा. पेचिश पूर्ववत जारी रही. यहां मेरा परिचय महीवीर प्रसादजी पोद्दार से हुआ, जो साहित्य के मर्मज्ञ, राष्ट्र के सच्चे सेवक और बड़े ही उद्योगी पुरुष हैं.

मैंने बस्ती में ही ‘सरस्वती’ में कई गल्पें छपवाई थीं. पोद्दारजी की प्रेरणा से मैंने फिर उपन्यास लिखा और ‘सेवा सदन’ की सृष्टि हुई. वहीं मैंने प्राइवेट बीए भी पास किया. सेवा सदन का जो आदर हुआ उससे उत्साहित होकर मैंने ‘प्रेमाश्रम’ लिख डाला और गल्पें भी लिखता रहा. कुछ मित्रों की विशेषकर पोद्दारजी की सलाह से मैंने जल चिकित्सा आरंभ की लेकिन तीन-चार महीने के स्नान और पथ्य का मेरे दुर्भाग्य से यह परिणाम हुआ कि मेरा पेट बढ़ गया और मुझे रास्ता चलने में भी दुर्बलता मालूम होने लगी. एक बार कई मित्रों के साथ मुझे एक जीने पर चढ़ने का अवसर पड़ा. और लोग धड़धड़ाते हुए चले गए पर मेरे पांव ही न उठते थे. बड़ी मुश्किल से हाथों का सहारा लेते हुए ऊपर पहुंचा. उस दिन मुझे अपनी कमजोरी का यथार्थ ज्ञान हुआ. समझ गया, अब थोड़े दिनों का मेहमान हूं, जल चिकित्सा बंद कर दी.

एक दिन संध्या के समय उर्दू बाजार में श्री दशरथ प्रसाद जी द्विवेदी, संपादक स्वदेश से मेरी भेंट हो गई. कभी-कभी उनसे भी साहित्य चर्चा होती रहती थी. उन्होंने मेरी पीली सूरत देखकर खेद के साथ कहा -बाबूजी आप तो बिल्कुल पीले पड़ गए हैं, कोई इलाज कराइए.
 
महात्मा गांधी के दर्शन के 2-4 दिन बाद ही प्रेमचंद ने छोड़ दी थी नौकरी.
मुझे अपनी बीमारी का जिक्र बुरा लगता था. मैं भूल जाना चाहता था कि मैं बीमार हूं. जब दो चार महीने का ही जिंदगी से नाता है तो क्यों न हंसकर मरूं. मैंने चिढ़कर कहा - मर ही तो जाऊंगा भई या और कुछ. मैं मौत का स्वागत करने के लिए तैयार हूं. द्विवेदी जी बेचारे लज्जित हो गए. मुझे भी अपनी उग्रता पर बड़ा खेद हुआ. यह 1920 की बात है. असहयोग आंदोलन जोरों पर था. जलियांवाला बाग हत्याकांड हो चुका था. उन्हीं दिनों महात्मा गांधी ने गोरखपुर का दौरा किया. गाजीमियां के मैदान में ऊंचा प्लेटफॉर्म तैयार किया गया. दो लाख से कम का जमाव न था. क्या शहर क्या देहात, श्रद्धालु जनता दौड़ी चली आती थी. ऐसा समारोह मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था. महात्माजी के दर्शनों का यह प्रताप था, कि मुझ जैसा मरा आदमी भी चेत उठा. उसके दो ही चार दिन बाद मैंने अपनी बीस साल की नौकरी से इस्तीफा दे दिया.

अब देहात में चलकर कुछ प्रचार करने की इच्छा हुई. पोद्दारजी का देहात में एक मकान था. हम और वह दोनों वहां से चले गए और चर्खे बनवाने लगे. वहां जाने के एक ही सप्ताह बाद मेरी पेचिश कम होने लगी. यहां तक कि एक महीने के अंदर मल के साथ आंव आना भी बंद हो गया. फिर मैं काशी चला आया और अपने देहात में बैठकर कुछ प्रचार और कुछ साहित्य सेवा में अपने जीवन को सार्थक करने लगा. गुलामी से मुक्त होते ही मैं नौ साल के जीर्ण रोग से मुक्त हो गया.

इस अनुभव ने मुझे कट्टर भाग्यवादी बना दिया है. अब मेरा दृढ़ विश्वास है कि भगवान की जो इच्छा होती है वही होता है और मनुष्य का उद्योग भी उसकी इच्छा के बिना सफल नहीं होता.

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