यह ख़बर 15 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : मोदी जी, क्या हम एक देश नहीं हैं...?

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग को भंग कर दिया है, लेकिन अब तक उसकी जगह लेने के लिए कोई संस्था, कोई आयोग सामने नहीं आ सका है। लेकिन क्या उन्हें मालूम है कि योजना आयोग का गठन हुआ क्यों था...? और क्या हमें उन लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किसी संस्था की जरूरत नहीं रह गई है...?

भारत सरकार के 1950 के प्रस्ताव के तहत योजना आयोग का गठन किया गया और उसके उद्देश्यों को निर्धारित किया गया। उसके मुताबिक योजना आयोग, "देश के मानव संसाधन, पूंजी संसाधन और अन्य संसाधनों का आकलन करेगा..." क्या अब हमें इसकी जरूरत नहीं है...? क्या देश को यह जानने की जरूरत नहीं कि उसके संसाधन क्या हैं...? दूसरी बात, प्रस्ताव के मुताबिक योजना आयोग, "जिन संसाधनों में कमी है, उनमें वृद्धि की संभावनाओं को तलाशेगा..."

क्या अब हमारे पास इतने संसाधन हो गए हैं कि किसी तरह की कोई कमी नहीं रही...? क्या अब हमें अपने संसाधनों को बढ़ाने और विस्तार देने की जरूरत नहीं रह गई है...? योजना आयोग के गठन के एक साल बाद जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, "योजना आयोग दरअसल जमीनी सच्चाई बताने वाला सर्वे होगा, जो बताएगा कि हमारे संविधान के फ्रेमवर्क के तहत हमारे सामाजिक और आर्थिक फ्रेमवर्क को हानि पहुंचाए बिना संभावित संसाधनों से क्या कुछ हासिल करना संभव है। इस लिहाज से योजना आयोग ने काफी मूल्यवान सेवा की है यह बताकर, कि मौजूदा परिस्थितियों में हम क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते...?"
 
मोदी इस तरह की सच्चाई से डर क्यों रहे हैं...?

तीसरी बात, प्रस्ताव के मुताबिक योजना आयोग, "संसाधनों के सर्वाधिक प्रभावी और संतुलित इस्तेमाल के लिए योजनाएं तैयार करेगा..." क्या हम उस स्तर पर पहुंच गए हैं, जहां हमें देशव्यापी योजनाओं की कोई जरूरत नहीं...? क्या हम एक देश नहीं रह गए हैं, राज्यों का संयोजन बनकर रह गए हैं...? क्या हमारा कोई राष्ट्रीय लक्ष्य, उद्देश्य नहीं रह गया है...? क्या यह तय करने और हासिल करने का फैसला हम हर राज्य और हर उद्योग पर छोड़ दें कि वे क्या चाहते हैं, भले ही उसका उद्देश्य कुछ भी हो, राष्ट्रीय हो या भेदभाव वाला हो, यह सोचे बिना कि क्या इसके जरिये हम राष्ट्रीय ढांचे को ध्यान में रख रहे हैं या नहीं...? आखिरकार, संसाधन सीमित हैं और किसी को तो यह देखना होगा कि उपलब्ध सीमित संसाधनों का बेहतरीन तरीके से बंटवारा कैसे संभव है। अगर ऐसा नहीं होता है तो निश्चित तौर पर बड़े समूह, अपनी इच्छाओं के मुताबिक सभी संसाधन पाएंगे और हाशिये पर पड़े उपेक्षितों को कुछ नहीं मिलेगा, या ज़्यादा से ज़्यादा नाममात्र की बचत-खुचत उन्हें मिल पाएगी।

क्या बीजेपी ऐसा भारत चाहती है, जहां संसाधनों तक पहुंच सीमित लोगों (सत्ता से नजदीकी रखने वाले अमीर कारोबारी) तक ही हो और भारत की 70 फीसदी गरीब और उपेक्षित जनता को कुछ नहीं मिले, क्योंकि वे अमीर और ताकतवर लोगों के हाथों से अपना हिस्सा नहीं ले सकते...? क्या हमें विकास के लिए और सामाजिक क्षेत्र - स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी उन्मूलन और अन्य मामलों में संसाधनों के बंटवारे में तार्किक दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए...? क्या मोदी चाहते हैं कि राष्ट्रीय बजट में गरीबों का हिस्सा, जो उनका अधिकार भी है, का निर्धारण स्टॉक मार्केट चलाने वाले लोग करें...?

एक बार फिर नेहरू के 1951 में दिए संबोधन को याद करें, जिसमें उन्होंने कहा था, "हम जो भी योजना बनाएं, उसकी कामयाबी देशभर में सबसे निचले तबके के लोगों को मिलने वाली राहत से निर्धारित होगी... यह देखना होगा कि क्या वह योजना देश के आम लोगों के जीवन को बेहतर बना पाई... बाकी सारी बातें, इस प्राथमिक नजरिये पर ही निर्भर करेंगी..."

चौथी बात, मूल प्रस्ताव के मुताबिक योजना आयोग, "प्राथमिकताओं को निर्धारित करेगा..." क्या मोदी सरकार की कोई प्राथमिकता नहीं है...? अगर प्राथमिकताएं हैं, तो मोदी सरकार उनका निर्धारण कैसे करेगी, जब उनके पास वास्तविकता देखते हुए आगे बढ़ने के लिए कोई आंकड़े नहीं होंगे, या संसाधनों के वितरण के वैकल्पिक मॉडल के फायदे और नुकसान बताने वाली किसी विशेषज्ञ की सलाह नहीं होगी...?

पांचवां, योजना आयोग को ही "योजना को लागू करने के चरणों को निर्धारित करना था..." जाहिर है, जब कोई योजना नहीं होगी, तो उसके लागू करने के लिए चरणों को निर्धारित करने का सवाल ही नहीं उठता, लेकिन अगर आपके पास कोई योजना नहीं है और लागू करने के चरणों का निर्धारण केवल बाजार तय करेगा तो सरकार की सामाजिक जिम्मेदारियों का क्या होगा...? देश की संसदीय आवाज़ का क्या होगा, जो लोकतंत्र की भी आवाज़ है...? यह भी जाहिर है कि संसद उस योजना के बारे में कुछ नहीं कह सकती, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन अगर संसद, प्रेस और आम जनता की आर्थिक नीतियों को निर्धारित करने में कोई भूमिका होनी है, तो उन्हें बताना होगा कि सरकार की नीति क्या है। वरना, सरकार कहेगी कि उसकी कोई नीति नहीं है, और वह किसी भी नीति में बदलाव नहीं कर सकती।
 
छठी बात, योजना आयोग, "संसाधनों के आवंटन का प्रस्ताव रखेगी..." इसमें 'प्रस्ताव' शब्द पर ध्यान दीजिए। तकनीकी विशेषज्ञता के आधार पर योजना आयोग प्रस्ताव रखेगी, लेकिन उसे लागू करने का तरीका लोकतांत्रिक, संघीय और राजनीतिक प्रक्रिया ही होगा। अगर योजना आयोग अप्रभावी तरीके से राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र के बीच संसाधनों का बंटवारा कर रहा था, तो इस प्रक्रिया को संशोधित करने की जरूरत थी, योजना आयोग को भंग करने की नहीं।

1950 के प्रस्ताव के मुताबिक योजना आयोग, "आर्थिक विकास की गति को धीमी करने वाले कारकों की तरफ इशारा भी करेगा..." क्या अब इतने अच्छे दिन आ गए हैं कि आर्थिक विकास की गति धीमी करने वाला कोई कारक नहीं बचा...? क्या साध्वी ज्योति हमें उन कारकों का ध्यान दिलाएंगी या फिर हमें प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के नजरिये की जरूरत है, जो सरकार का ध्यान उन कारकों की तरफ दिलाएंगे...? प्रस्ताव की इसी पंक्ति के अनुसार, योजना आयोग को ही "योजना को लागू करने के लिए जरूरी परिस्थितियों का निर्धारण करना" था, लेकिन जब कोई योजना ही नहीं होगी, तो उसको लागू करने के लिए परिस्थितियों की तो कतई ज़रूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन, अगर कोई योजना नहीं होगी तो देश कैसे चलेगा...? या इसका फैसला भी सीआईआई और फिक्की जैसी संस्थाओं पर छोड़ देना होगा...?

अंत में, योजना आयोग को, "योजना के क्रियान्वयन की प्रगति का आकलन करना था, और उसमें बेहतरी के लिए समुचित सुझाव देना था..." क्या मोदी यह मानते हैं कि प्रगति और नाकामी का कोई आकलन नहीं होना चाहिए और अगर योजना आयोग यह आकलन नहीं करेगा तो कौन करेगा और वह किसका आकलन करेगा...?

वास्तविकता यह है कि नेहरू की विरासत को भंग करने के सिवा, सत्तारूढ़ पार्टी का कोई पॉजिटिव एजेंडा नहीं है। किसी तरह ये सोचते हैं कि योजना आयोग को भंग करने से विकास दर अपने आप बढ़ जाएगी, खेती और उत्पादन, अमीर और गरीब, साक्षर और निरक्षर, निरोग और बीमार के बीच का असंतुलन खत्म हो जाएगा, पर्यावरण की समस्याओं का खुद ही हल मिल जाएगा। अगर 1950 में गठित योजना आयोग जैसी संस्था और उसको दिए गए काम नहीं होंगे तो इससे ज्यादा तेजी से हमें निरंकुशता और बर्बादी की ओर कुछ भी नहीं ले जाएगा।

मोदी योजना आयोग को भंग कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास लोकसभा में बहुमत है, लेकिन योजना आयोग को भंग करने के बाद उन्हें किसी दूसरे योजना आयोग का गठन करना ही होगा, भले ही उसका नाम कुछ भी रखा जाए, क्योंकि योजना आयोग को नेहरू सरकार ने जो जिम्मेदारियां सौंपी थीं, वे देश के लिए बेहद अहम हैं। ऐसी जिम्मेदारी योजना आयोग, विशेषकर एक समय में जिस तरह के विशेषज्ञों से यह संस्था भरी हुई थी, ही निभा सकता है।

अगर हाल के समय में, योजना आयोग की चमक फीकी हुई थी, तो इसकी वजह यह थी कि इसका संचालन उन लोगों के हाथों में चला गया था, जिनका भरोसा योजना बनाने में नहीं था। यही वजह थी कि यह गैर-निर्वाचित (और ऐसे लोग, जो निर्वाचन के योग्य ही नहीं) लोगों के लिए सत्ता की ताकत महसूस करने का मंच बन गया, और वे अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल ऐसे कामों में दखल देने में करने लगे, जो सिर्फ राजनीतिक मंचों से ही उचित था। अगर राजनेता योजना आयोग के सामने घुटने टेकने लगे थे तो यह केंद्रीय और राज्य के मंत्रियों की गलती थी, योजना आयोग की नहीं। अगर उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) योजना की प्रक्रिया में कोई हिस्सेदारी नहीं कर पाया है, तो यह एनडीसी और इसके सदस्य मुख्यमंत्रियों की नाकामी है, योजना आयोग की नहीं।

हां, यह सही है कि पचास साल से भी ज़्यादा की योजनाओं के बावजूद सुधार की बहुत गुजाइंश है, लेकिन योजना आयोग को भंग करना और योजनागत विकास के रास्ते को बंद करना, उन लोगों के साथ धोखा है, जो उम्मीद करते हैं कि सरकार का फैसला, कारपोरेट फैसलों से भिन्न होता है। इसलिए हमें योजना बनाने की जरूरत है, और योजना आयोग या उसका नाम जो भी हो, के बिना हमारे पास कोई योजना नहीं होगी।

मोदी की मौजूदा कोशिश उनकी दूसरी ड्रामेबाजियों की तरह ही है, जिसमें सिर्फ शोमैनशिप नजर आती है...

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