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This Article is From Aug 24, 2017

'निजता का अधिकार' जन्म के साथ आता है और मृत्यु के साथ जाता है, इसे मनुष्य से अलग नहीं किया जा सकता: जस्टिस सप्रे

सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड से जुड़े निजता के अधिकार यानी राइट टू प्राइवेसी पर गुरुवार अपना फैसला सुनाते हुए उसे मौलिक अधिकारों का हिस्सा घोषित कर दिया.

'निजता का अधिकार' जन्म के साथ आता है और मृत्यु के साथ जाता है, इसे मनुष्य से अलग नहीं किया जा सकता: जस्टिस सप्रे
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को निजता के अधिकार पर अपना अहम फैसला सुनाया
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड से जुड़े निजता के अधिकार यानी राइट टू प्राइवेसी पर गुरुवार अपना फैसला सुनाते हुए उसे मौलिक अधिकारों का हिस्सा घोषित कर दिया. नौ जजों की संविधान पीठ ने 1954 और 1962 में दिए गए फैसलों को पलटते हुए कहा कि राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकारों के अंतर्गत प्रदत्त जीवन के अधिकार का ही हिस्सा है.

प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे ने निजता के अधिकार पर निर्णय से सहमति व्यक्त करते हुए अपना अलग फैसला लिखा. उन्होने अपने फैसले में कहा कि इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती कि कोई व्यक्ति ऐसे अधिकार के बगैर गरिमा के साथ सार्थक जीवन का आनंद ले रहा है.

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हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि यह अधिकार असीमित नहीं है और इस पर कुछ जायज पाबंदियां लगाई जा सकती हैं जिन्हें लगाने का सरकार को अधिकार है. उन्होंने कहा की निजता का अधिकार उन वांछित अधिकारों में से एक है जिसे मानव जगत में प्रत्येक सभ्य समाज मान्यता देता है.

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न्यायमूर्ति सप्रे ने अपने फैसले में कहा कि निजता का अधिकार संविधान के खण्ड तीन में नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों का हिस्सा है परंतु यह पूर्ण नहीं है और यह कुछ पाबंदियों के दायरे में आता है जिन्हें सरकार को सामाजिक, नैतिक और बाध्यकारी जनहित में कानून के अनुरूप लगाने का अधिकार है.

VIDEO: राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकारों का हिस्सा है- सुप्रीम कोर्ट
न्यायमूर्ति सप्रे ने 24 पेज के अपने अलग लिखे फैसले में कहा, ‘मेरी सुविचारित राय में किसी भी व्यक्ति का निजता का अधिकार मूल रूप से स्वाभाविक अधिकार है जो प्रत्येक मनुष्य में जन्म के साथ आता है. ऐसा अधिकार मनुष्य की अंतिम सांस तक उसके साथ रहता है. निश्चित ही इसे न तो मनुष्य से अलग किया जा सकता है और न ही खत्म किया जा सकता है. दूसरे शब्दों में यह मनुष्य के जन्म के साथ ही आता है और उसके साथ ही खत्म हो जाता है.’ यह निर्णय संविधान पीठ के 547 पेज के फैसले का हिस्सा है.

(इनपुट भाषा से)

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