जावेद अख्तर (फाइल फोटो)
अलीगढ़:
प्रख्यात शायर और गीतकार जावेद अख्तर ने दावा किया है कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी बताई जाने वाली मशहूर गजल ‘ना किसी की आंख का नूर हूं’, दरअसल उनके दादा मुज़तर ख़ैराबादी ने लिखी थी।
अख्तर ने गुरुवार को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में मुज़तर की गजलों के पांच खण्डों में तैयार किए गए संग्रह ‘ख़रमन’ का विमोचन करते हुए कहा कि आम धारणा है कि मशहूर गजल ‘ना किसी की आंख का नूर हूं, ना किसी के दिल का चिराग हूं’, आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने लिखी थी ‘लेकिन सचाई यह है कि यह गजल मेरे दादा मुज़तर ख़ैराबादी ने लिखी थी।’
उन्होंने कहा कि चूंकि मुज़तर के बाप-दादा तथा पुरखे सन 1857 के ग़दर से बहुत गहरे से जुड़े थे और इसके लिए उनके रिश्तेदार मौलाना फजले हक खराबादी को ‘काला पानी’ की सजा हुई थी, इसलिए इस संग्राम के नेताओं के लिए मुज़तर के दिल में खास जगह थी। वर्ष 1862 में जन्मे मुज़तर ने अपने परिजन से सुनी बातों के आधार पर बहादुर शाह जफर की अपने निर्वासन के दौरान रही मन (स्थिति) को अनुभव करके वह गजल लिखी थी।
अख्तर ने दलील देते हुए कहा कि नियाज फतेहपुरी, आले अहमद सुरूर तथा गोपीचंद नारंग भी ‘ना किसी की आंख का नूर हूं’, को बहादुर शाह के बजाय मुज़तर द्वारा लिखे जाने की बात का समर्थन करते हैं। मशहूर उर्दू समालोचक प्रोफेसर अबुल कलाम कासमी ने इस मौके पर कहा कि मुज़तर की गजलों के इस विशाल संग्रह को प्रकाशित करके उर्दू की महान सेवा की गयी है। इन गजलों से भारतीय राष्ट्रवाद और गंगा-जमुनी संस्कृति में उर्दू का योगदान जाहिर होता है।
अख्तर ने गुरुवार को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में मुज़तर की गजलों के पांच खण्डों में तैयार किए गए संग्रह ‘ख़रमन’ का विमोचन करते हुए कहा कि आम धारणा है कि मशहूर गजल ‘ना किसी की आंख का नूर हूं, ना किसी के दिल का चिराग हूं’, आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने लिखी थी ‘लेकिन सचाई यह है कि यह गजल मेरे दादा मुज़तर ख़ैराबादी ने लिखी थी।’
उन्होंने कहा कि चूंकि मुज़तर के बाप-दादा तथा पुरखे सन 1857 के ग़दर से बहुत गहरे से जुड़े थे और इसके लिए उनके रिश्तेदार मौलाना फजले हक खराबादी को ‘काला पानी’ की सजा हुई थी, इसलिए इस संग्राम के नेताओं के लिए मुज़तर के दिल में खास जगह थी। वर्ष 1862 में जन्मे मुज़तर ने अपने परिजन से सुनी बातों के आधार पर बहादुर शाह जफर की अपने निर्वासन के दौरान रही मन (स्थिति) को अनुभव करके वह गजल लिखी थी।
अख्तर ने दलील देते हुए कहा कि नियाज फतेहपुरी, आले अहमद सुरूर तथा गोपीचंद नारंग भी ‘ना किसी की आंख का नूर हूं’, को बहादुर शाह के बजाय मुज़तर द्वारा लिखे जाने की बात का समर्थन करते हैं। मशहूर उर्दू समालोचक प्रोफेसर अबुल कलाम कासमी ने इस मौके पर कहा कि मुज़तर की गजलों के इस विशाल संग्रह को प्रकाशित करके उर्दू की महान सेवा की गयी है। इन गजलों से भारतीय राष्ट्रवाद और गंगा-जमुनी संस्कृति में उर्दू का योगदान जाहिर होता है।
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