यह ख़बर 23 सितंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

फाइंडिंग लॉजिक : फिल्में और विवाद!

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

संजय दत्त अभिनीत फिल्म 'खलनायक' जून 1993 में प्रदर्शित हुई थी। ठीक इससे 2 महीने पहले अप्रैल 1993 में संजय दत्त को टाडा के तहत गिरफ्तार किया गया था। यह महज एक इत्तेफाक ही था कि उस वक्त संजय दत्त की छवि फिल्म प्रदर्शित होने से पहले फिल्म के रोल से मेल खाने लगी थी, लेकिन फिल्म की कामयाबी की वजह यही बात बनी, यह कहना गलत होगा।

यह उस समय की एक बढ़िया फिल्म थी। उस वक्त निर्देशक सुभाष घई का नाम चलता था और दर्शकों की नब्ज पकड़ने में उनकी उस्तादी थी। यह कहना तो हास्यास्पद ही लगेगा कि संजय दत्त की गिरफ्तारी एक पब्लिसिटी स्टंट था।

पुराना ज्ञान छोड़ देते हैं, आज पर आते हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया अखबार और दीपिका पादुकोण के सोशल मीडिया युद्ध को देख कर काफी लोगों का यह मानना है कि यह उनकी फिल्म फाइंडिंग फैनी के लिए किया गया पब्लिसिटी स्टंट है। लेकिन यह पब्लिसिटी स्टंट, किसकी पब्लिसिटी के लिए, क्या दीपिका पादुकोण की? पहली बात तो यह कि 'बिग बॉस' शुरू हो चुका है और दीपिका किसी वाइल्ड कार्ड एंट्री के चक्कर में तो शायद नहीं हैं।

माशा अल्लाह, फिलहाल वह सबसे सफल अभिनेत्रियों की फेहरिस्त में शुमार हैं और इससे पहले कि उनकी ज्यादातर फिल्में बिना उनके किसी विवाद में पड़े ही सफल भी रहीं। अब तो वह विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता में भी हिस्सा नहीं ले सकती हैं कि अपनी नारीवादी छवि को मांझ रही हों।

अब बात उनकी फिल्म की। 'फाइंडिंग फैनी' को देखने जाने के लिए पहले ही कई कारण फिल्म में मौजूद थे। एक दिलचस्प प्रोमो। मंझे हुए कलाकार। जिन लोगों ने फिल्म नहीं देखी है, उन्हें बता दूं कि यह फिल्म दूर-दूर तक नारीवादी नजरिये का प्रचार या प्रसार नहीं करती। फिर ऐसे में यह विवाद इस फिल्म के लिए दर्शकों की उत्सुकता को कैसे जन्म देता है?

अगर फिल्म विवादास्पद हो तो जरूर कोई देखने के लिए एक बार उत्सुक होगा। जैसे 'एक छोटी-सी लव स्टोरी' के दृश्यों की वजह से निर्देशक और अभिनेत्री मनीषा कोइराला के बीच विवाद हुआ और फिल्म ने दर्शकों को खींचा। 'डेल्ही बैली' अपनी फिल्म में 'न्यू जेन' डायलॉग्स, जिनमें गालियों का उपयुक्त प्रयोग लाजमी था, की वजह से चर्चा में आई। जैसे कमल हासन की 'विश्वरूपम' जिसे मुस्लिम संगठनों के विरोध ने हिन्दी बेल्ट में भी हिट करवा दिया था, लेकिन कमल हासन को किस मानसिक तनाव से गुज़रना पड़ा इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।

क्या हम किसी अवधारणा के शिकार हैं, अगर हमें लगता है कि किसी फिल्म के प्रदर्शन से पहले फिल्म के नायक या नायिका किसी विवाद में घिर जाएं तो लोग फिल्म देखने टूट पड़ेंगे? क्या यह जरूरी है कि जब भी कोई नायक या नायिका किसी विवाद में घिरे तो वो सिर्फ एक सस्ती लोकप्रियता के लिए की गई कवायद भर है? क्या यह सोचना सही है कि फिल्मी दुनिया के लोगों में संवेदना नहीं होती? अगर कोई महिला सेक्स वर्कर भी हो तो क्या उसे अपनी राय देने का या विरोध जताने का अधिकार नहीं होता?

जो लोग बिना फिल्म का सिर-पैर देखे सिर्फ किसी विवाद के मद्देनज़र फिल्म देखने पहुंच जाते हैं तो इससे बेहतर पॉपकॉर्न तो आप अपने घर ही खा लेते। ऐसे कुछ लोग जरूर होते होंगे, लेकिन इस परिकल्पना को कैसे माना जाए कि लोग शाहिद कपूर और करीना कपूर के निजी क्षण के एमएमएस की खबर सुनकर फिल्म देखने पहुंच जाएंगे, यह सोचकर कि वहां पूरी क्लिप देखने को मिलेगी।

मार्केटिंग की अपनी एक दुनिया है। उसकी अपनी रणनीति भी है ही। काफी लोग किसी ना किसी तरह इसका इस्तेमाल करते हैं। राजनीति में भी खूब इस्तेमाल होने लगा है। लोग वोट भी दे देते हैं, लेकिन इस थ्योरी को आप किस तर्क पर प्रमाणित करेंगे कि विवाद किसी फिल्म के लिए दर्शक जुटा देता है और फिर वह हिट भी हो जाती है।

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

अगर कोई शोध करना चाहे तो साथ ही इस पर भी शोध जरूर करे कि कौन-से विवाद या प्रोमो या मार्केटिंग स्ट्रेटेजी की वजह से साजिद खान की फूहड़ फिल्में करोड़ों कमा लेती है और कई 'फिल्म फेस्टिवल' में अवार्ड ले चुकी फिल्में और उनके 'बोल्ड' विषय होने के बावजूद हिन्दी सिनेमा के दर्शक उन्हें सूंघते भी नहीं।